दुनिया में कुछ लोग तमाम खासियतें होने के बावजूद वो मुकाम हासिल नहीं कर पाते, जिसके वे हकदार होते हैं। सिद्धांत तो ये है कि आपमें पोटेंशियल है तो आपको मुकाम पाने से कोई रोक नहीं सकता। पर कभी-कभी ऐसा नहीं हो पाता। कभी नियति ये नहीं चाहती, कभी परिस्थितियां वैसी नहीं बनती तो कभी थोड़ा ही सही, लेकिन भाग्य आपका साथ नहीं देता।
महारथी को हम कर्ण के नाम से जानते हैं
आज मैं अतुल आपको एक ऐसे महानायक की कहानी बता रहा हूं, जो आज भी किंवदंती है। जिसके शौर्य, पराक्रम की कई गाथाएं हैं। वो महानायक थोड़ा कलंकित भी है। पर उस काल में तेज और ओज में उसका कोई सानी नहीं था। उसने जो हासिल किया, अपने पराक्रम से हासिल किया। उसे सूर्य पुत्र कहा जाता था। उस महारथी को हम कर्ण के नाम से जानते हैं। आज सुना रहा हूं शिवाजी सावंत के ग्रंथ मृत्युंजय के कुछ अंश। मैंने अपनी कहानी को नाम दिया है- जब जीतकर भी हार गया कर्ण।
ज्येष्ठ कौन्तेय- कर्ण
शिवाजी सावंत की मृत्युंजय की पहली लाइन लिखते हैं- आज मैं कुछ कहना चाहता हूं। मेरी बात को सुनकर कुछ लोग चौंकेंगे, कहेंगे कि जो काल के मुख में जा चुके, वे कैसे बोलेंगे। लेकिन एक समय ऐसा भी आता है जब ऐसे लोगों को भी बोलना पड़ता है। जब हाड़-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं, तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है। सबसे पहले बात कर्ण के पैदा होने की। सभी जानते हैं कि कर्ण, कुंती का बेटा था। यानी ज्येष्ठ कौन्तेय, लेकिन ये नाम वो पा नहीं सका। कुंती ने कर्ण को जब जन्म दिया, तब वे महारानी कुंती नहीं थीं। कुंती मथुरा के शासक शूरसेन की बेटी थीं। उनका नाम पृथा था। मथुरा में पलीं-बढ़ीं। भोजपुर के राजा कुंतीभोज, शूरसेन के दोस्त थे। कुंतीभोज को कोई संतान नहीं थी। इस वजह से कुंतीभोज दुखी थे। शूरसेन ने एक बार उन्हें वचन दिया कि उनकी पहली संतान को वे कुंतीभोज को दे देंगे। अपने वचन को निभाने के लिए शूरसेन ने पृथा को कुंतीभोज को दे दिया। शूरसेन ने एक बार रथ में पृथा को बैठाया और भोजपुर छोड़कर आ गए। पृथा से कहा कि आज से तुम्हें यहीं रहना है। ये कहकर वो जाने लगे। पृथा बोली- पिताजी, एक बार गले लगा लीजिए। शूरसेन बोले- क्षत्रिय एक बार कुछ देकर चले जाते हैं तो मुड़कर नहीं देखते।
पृथा भोजपुर में रह गईं। काफी उदास रहने लगीं। कुंतीभोज ये सब देख रहे थे। एक दिन उन्होंने कहा कि पृथा, मैं तुम्हें पिता के पास छोड़ आता हूं। तुम्हारी खुशी से बड़ी कोई प्रतिज्ञा नहीं हो सकती। तब पृथा सख्त हुईं, कटार निकाली और उसके ऊपर अंगूठा फिराया, कुंतीभोज से कहा कि पिताजी, इससे तिलक कर दीजिए। मैं भी क्षत्राणी हूं। सिर्फ आपकी ही बेटी हूं। कुंतीभोज खुश हो गए और कहा कि बेटी आज से तुम कुंती कहलाओगी।
कुंतीभोज थरथरा गए
एक बार कुंतीभोज के पड़ोसी राज्य ने युद्ध छेड़ा। कुंतीभोज जीत गए। युद्ध जीतने का उत्सव मनाया जा रहा था। तभी गर्जना करते हुए एक महर्षि वहां आए। ये दुर्वासा थे। दुर्वासा यानी जमदग्नि के पुत्र। दुर्वासा यानी पूरे ब्रह्मांड का क्रोध जिनके कमंडल में समाया हुआ था। ऋषि विनम्रता की प्रतिमूर्ति होते हैं, लेकिन दुर्वासा इस पैमाने में नहीं आते। दुर्वासा ने कहा कि कुंतीभोज, जीत के मद में सब भूल गए हो। कुंतीभोज थरथरा गए। दुर्वासा को मनाया। दुर्वासा ने कहा कि कुंतीभोज मैं तुम्हारे यहां एक यज्ञ करना चाहता हूं। कोई इसकी व्यवस्था कर पाएगा। कुंतीभोज बोले- मेरी बेटी आपकी सेवा करेगी। दुर्वासा फिर चीखते हुए बोले- कुंतीभोज, तुम मुझसे मजाक कर रहे हो। तुम्हें कब कोई संतान हो गई। कुंतीभोज ने कहा- भगवन, मैंने शूरसेन की बेटी पृथा गोद ली है। अब उसका नाम कुंती है। कुंती वहीं खड़ी थीं। दुर्वासा को देखकर कांपी जा रहीं थीं।
लिहाजा दुर्वासा ने एक कुटिया बनाई और यज्ञ शुरू कर दिया। कुंती की ज्यादा उम्र नहीं थी, ऊपर से महाक्रोधी दुर्वासा का यज्ञ। 24 घंटे कुंती सेवा में तैनात रहती थीं। एक दिन रात में दुर्वासा ने खुशी से चिल्लाए। कुंती की आंख हल्की ही लगी थी कि खुल भी गई। यज्ञस्थल पर पहुंची तो दुर्वासा ने कहा कि मैंने पंचभूतों यानी पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्नि को अपने वश में कर लिया है। तुमने मेरी बहुत सेवा की है। कुंती कुछ सोचती कि दुर्वासा ने कहा कि तूने मेरी बहुत सेवा की है। मैं तुझे कुछ देना चाहता हूं। कमंडल का जल अंजुलि में भरा, कुंती के सिर के ऊपर से जल गिराते हुए एक मंत्र पढ़ दिया। कुंती को लगा कि उनके अंदर कोई मंत्र गया है। दुर्वासा बोले- तू जिस भी शक्ति को देखकर मंत्र पढ़ेगी, वो तुझे अपने जैसा पुत्र देकर चला जाएगा।
कुंती ने एक बेहद सुंदर बच्चे को जन्म दिया
कुछ दिन गुजर गए। एक दिन सुबह बगीचे में टहल रहीं कुंती को सूर्य बहुत अच्छा लगा। ना जाने क्या सोचकर मंत्र पढ़ दिया। कुंती को लगा कि कोई अग्निपुंज अंदर से गुजर गया। कुछ दिन बीते तो कुंती के पेट में खलबली मची। एक-दो महीने बाद और असर दिखा। तीन-चार महीने बाद पेट दिखने लगा। कुंती की धात्री यानी देखभाल करने वाली ने कहा कि आप कुछ महीने में बच्चे को जन्म देंगी। कुंती को अलग महल में ले जाया गया। 9 महीने बाद कुंती ने एक बेहद सुंदर बच्चे को जन्म दिया। बच्चा सूर्य के पुंज की तरह था। कानों में मांसल कुंडल थे। बच्चा कुछ अलग ही था। लेकिन धात्री ने कुंती से कहा कि आप बच्चे को पाल नहीं पाएंगी, कुंती रोई पर धात्री नहीं मानीं। बच्चे को चांदी की पेटी में रखकर नदी में बहा दिया। पहले अश्व नदीं, फिर चर्मण्वती फिर गंगा से होता हुआ यही बच्चा चंपावती नगरी में सूतराज अधीरथ और उनकी पत्नी राधा को मिला। नाम रखा गया- कर्ण। राधा मां ने पाला, इसलिए कर्ण को राधेय भी कहा जाता है।
कर्ण चंपावती में खेलता रहा, बढ़ता रहा। कर्ण का छोटा भाई शोण था। शोण कभी-कभी पूछता कि भैया तुम्हें ये कुंडल कहां से मिले। कर्ण के पास कोई जवाब नहीं होता। शोण कहता- भैया, जब तुम सोते हो, तब कुंडल की नीली आभा तुम्हारे चेहरे पर होती है। कर्ण हमेशा चौंका रहता कि मुझे कुंडल क्यों मिले और शोण को क्यों नहीं। वक्त गुजरता रहा। अधीरथ, हस्तिनापुर में महाराज धृतराष्ट्र के सारथी थे। अधीरथ एक बार चंपा नगरी आए और कर्ण-शोण को हस्तिनापुर ले गए।
कर्ण और अर्जुन की पहली मुलाकात
अधीरथ कर्ण को द्रोण की युद्धशाला में डालना चाहते थे। धृतराष्ट्र ने सारे प्रबंध भी कर दिए। द्रोण की युद्धशाला में गए तो द्रोण कर्ण को युद्धकला सिखाने को लेकर थोड़े अनमने से दिखे। कहा कि कृपाचार्य के पास चले जाओ, वे तुम्हें सिखाएंगे। कृप, द्रोण के साले थे। कर्ण कृप के पास ही सीखने लगे। कर्ण और अर्जुन की जब पहली मुलाकात हुई तो ऊपर से दोनों के बीच कोई सांप आकर गिरा। उस सांप को एक पक्षी ले जा रहा था, जो उसकी चोंच से छूट गया था, नीचे गिरा तो पक्षी फिर से उसे उठाकर चला गया। कर्ण को ये घटना काफी चौंकाने वाली लगी। शायद यहीं से कर्ण-अर्जुन में कुछ दूरियां आ गई थीं।
जब गुरु ने ली अर्जुन की परीक्षा
कर्ण अश्वत्थामा के करीब था। एक बार द्रोण ने सभी की छोटी सी परीक्षा ली थी। कर्ण चंपानगरी गया हुआ था। प्रतियोगिता एक पेड़ पर बैठी चिड़िया पर निशाना लगाने को कहा और सबसे पूछा कि क्या दिख रहा है। अर्जुन ने कहा था कि उसे चिड़िया की आंख दिख रही है। द्रोण ने अर्जुन को निशाना लगाने के लिए कहा और अर्जुन ने वही किया जो द्रोण चाहते थे। जब कर्ण चंपा से आया तो अश्वत्थामा ने घटना बताई औऱ पूछा कि तुम होते तो क्या कहते। कर्ण ने कहा- मुझको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। लक्ष्य सामने होने पर कर्ण, कर्ण नहीं रहता। उसका पूरा शरीर ही बाण बन जाता है। केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोंक और लक्ष्य बिंदु। मेरे नुकीले शरीर को तिल के बराबर जगह ही दिख रही है। अश्वत्थामा ने कर्ण की पीठ थपथपाई।
दुर्योधन ने कर्ण को अंगदेश का राजा बनाया
इसी सब अभ्यास में अंतिम परीक्षा का दिन आ गया। द्रोण ने सभी की प्रतियोगिता रखी। सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले को विजेता माना जाएगा। भीम ने गदा, युधिष्ठिर ने भाला, दुर्योधन ने गदा का प्रदर्शन किया। लेकिन अर्जुन...सब विधाओं में प्रदर्शन किया। तलवार हो, अश्वरथ संभालना हो, धनुर्विद्या का क्या ही कहना...अर्जुन ने सर्वांगीण प्रदर्शन किया। सुबह सूर्य नहीं निकले थे। कर्ण भी प्रतियोगिता में जाना चाह रहा था, लेकिन शोण ने ये कहकर रोका कि भैया तुम्हारे गुरु नहीं निकले। तुम्हारे कुंडल निस्तेज हैं। कर्ण ने वचन दिया कि जब तक सूर्य बादलों से बाहर नहीं आएंगे, मैं प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं लूंगा। ....अर्जुन के खत्म करते ही सूर्य निकले। कर्ण एकदम से प्रतियोगिता में पहुंचा। घोषणा की कि मुझे भी अर्जुन की तरह वीरता दिखाने का अवसर मिले। भीष्म, द्रोण जैसे सभी महारथियों ने मौका दिया। कर्ण ने भी सब वही कर दिया जो अर्जुन ने किया। इसके बाद ध्वनि पर बाण चलाने की बारी आई। कर्ण का निशाना चूका, पर मामला कुछ और था। भीष्म बोले- द्रोण, आपसे चूक कैसे हो गई। ध्वनि भेद सिर्फ चार जानते हैं- आप, मैं, अर्जुन और कर्ण। कर्ण ने सही निशाना। पर नीलकमल की माला अर्जुन के गले में पड़ चुकी थी। दुर्योधन ने प्रतियोगिता के बाद कर्ण को अंगदेश का राजा बना दिया। यहीं से दुर्योधन और कर्ण और यहीं से इतिहास बदल गया।....बस यही थी आज की कहानी....
कर्ण अपराजेय था
दोस्तो, कभी-कभी सबकुछ सही होते होते परिस्थितिवश गलत निर्णय हो जाते हैं। लेकिन ये फैसले आपकी जिंदगी बदल देते हैं। कहानी मैंने महाभारत युग की सुनाई है। उदाहरण काफी नया दे रहा हूं- सुभाष घई एड में कहा था- रील और रियल में रीटेक का मौका नहीं होता। गजब की बात है। भविष्य कह लें, इतिहास कह लें, करियर कह लें, आपके फैसले ही आपका मयार तय करते हैं। आपकी सोच बताते हैं। कर्ण अपराजेय था, पर अपने फैसलों, गलत पक्ष में खड़े होने से वो कद और पद नहीं पा सका।