हरीश दिवेकर, BHOPAL. 6 साल, 7 ऑपरेशन लोटस, 4 ऑपरेशन पूरी तरह से कारगर, कमल खिला और पुरानी सरकार चुटकियों में धराशाई हो गई। हाल ही में महाराष्ट्र में यही सियासी भूचाल आया लेकिन यहां हुआ ऑपरेशन लोटस कई मायनों में दूसरे राज्यों में हुए ऑपरेशन लोटस से अलग है।
ठाकरे से सत्ता छीनी, अब पुश्तैनी पार्टी हथियाने की तैयारी
शिवसेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे ने न सिर्फ उद्धव ठाकरे की सत्ता छीनी, पुराने साथी छीने बल्कि अब उनकी पुश्तैनी पार्टी भी हथियाने की तैयारी में है। ऑपरेशन लोटस को बीजेपी ने कभी आधिकारिक रूप से अपना माना नहीं है। ये नाम मीडिया का दिया हुआ ही माना जाता रहा है। सात राज्यों में से तीन में ये ऑपरेशन फेल हुआ और चार में सफल रहा। लेकिन महाराष्ट्र में तो ऑपरेशन लोटस ने न सिर्फ सरकार गिराई बल्कि शिवसेना की सर्जरी के लिए ऐसी चीरफाड़ कर डाली कि न सरकार बची और न पार्टी बचती नजर आ रही है। बीजेपी जो मध्यप्रदेश, कर्नाटक और उत्तराखंड में नहीं कर पाई वो महाराष्ट्र में होने जा रहा है। कंधा एकनाथ शिंदे का है, ट्रिगर दबाने की जिम्मेदारी अब चुनाव आयोग पर है। निशाने पर उद्धव ठाकरे की शिवसेना है। जो बंदूक है वो बीजेपी की है।
कुर्सी की लड़ाई अब सिंबल पर आई
ये बंदूक तीर कमान की तरफ तन गई है। महाराष्ट्र में संयुक्त अघाड़ी मोर्चा के साथ सरकार बनाने के बाद तीनों दल ये दावा करते थे कि सरकार पूरे पांच साल चलेगी। लेकिन ढाई साल में ही तख्ता पलट हो गया। बीजेपी से ढाई-ढाई साल के सीएम की डील करने वाली शिवसेना वाकई ढाई साल बाद सीएम पद छोड़ने पर मजबूर हो गई। लेकिन महाराष्ट्र में लड़ाई सिर्फ सीएम की कुर्सी बचाने की नहीं है। कुर्सी के लिए शुरू हुई ये लड़ाई अब पार्टी के सिंबल पर आ चुकी है। कुर्सी की खातिर विश्वासघात करने वाली शिवसेना का बीजेपी पूरा इतिहास ही बदलने के मूड में आ चुकी है। हालात ये बने कि सीएम उद्धव ठाकरे ये सोचने पर मजबूर हो गए कि कुर्सी जाती है तो जाए पिताजी की विरासत में दी हुई पार्टी बच जाए। पर कोई युक्ति कहीं काम नहीं आई। कुर्सी तो गई ही अब उनकी अपनी शिवसेना पर संकट के काले घने बादल मंडरा रहे हैं।
शिवसेना का आखिरी दांव
इमोशनल चाल, मार्मिक अपील, पिताजी के वचन और अब पिता को याद करते हुए दिया गया भावुक इंटरव्यू इनमें से कुछ भी ऐसा नजर नहीं आ रहा जो पार्टी पर छाए इन काले घने बादलों को छांटने में मददगार नजर नहीं आ रहा। चुनाव आयोग की चली तो ये बादल तीर कमान को अपनी चपेट में ले लेंगे। हालांकि इससे पहले शिवसेना ने आखिरी दांव खेला है। उद्धव ठाकरे ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली है और तब तक चुनाव आयोग को कोई फैसला न लेने देने की अपील की है जब तक मामला सर्वोच्च अदालत में पेंडिंग है।
ठाकरे से जल्द छिन जाएगी शिवसेना
भारत की सियासत के सात दशक से ज्यादा पुराने इतिहास में कुल सात उदाहरण भी ऐसे नहीं हैं जिनसे शिवसेना की हालत की तुलना की जा सके। हालांकि अब ये तय माना जाने लगा है कि ठाकरे से शिवसेना भी जल्द ही छिन जाएगी। वैसे ये फैसला चुनाव आयोग के लिए भी बहुत आसान नहीं है। कई ऐसे टैक्निकल पहलू हैं जिन पर चुनाव आयोग को विचार करना होगा। शिंदे भी कसौटी पर कसे जाएंगे। ठाकरे और शिंदे में से जो इस कसौटी पर खरा उतरेगा वही शिवसेना का अगला शेर होगा। फिलहाल ये शेर नख, शिख और दंत विहीन ज्यादा नजर आता है।
कौन होगा शिवसेना का अगला सरताज
शिवसेना का शेर बन अब कौन दहाड़ेगा। महाराष्ट्र में होगा किसका राज। शिवसेना का कौन होगा अगला सरताज। ऐसे बहुत से सवाल हैं। जिनका जवाब सिर्फ एक है चुनाव आयोग। इसलिए ये समझ लेना जरूरी है कि शिवसेना किसकी होगी, इस मुद्दे पर चुनाव आयोग कैसे फैसला ले सकता है। राजनीतिक पार्टियों में बंटवारे की दो स्थितियां हैं। पहला, जब विधानसभा या संसद का सत्र चल रहा हो और ऐसे हालात बनें। तब फैसला लेने के लिए विधानसभा स्पीकर मौजूद होते हैं। दूसरी स्थिति ये है, जब संसद या विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो। ऐसे में किसी भी पार्टी में होने वाला बंटवारा संसद या विधानसभा से बाहर का बंटवारा माना जाएगा। जैसे कि महाराष्ट्र में मौजूदा हालात दिख रहे हैं। इस परिस्थिति में अगर कोई गुट, पार्टी के चुनाव चिह्न पर दावा करता है तो इन पर सिंबल ऑर्डर 1968 लागू होता है। इसके तहत चुनाव आयोग दावे और समर्थन के आधार पर और दोनों पक्षों को सुनकर इनमें से कोई भी फैसला ले सकता है।
- आयोग किसी एक खेमे को चुनाव चिह्न देने का फैसला कर सकता है।
हालांकि फैसला लेने से पहले आयोग बहुत सारे फैसलों पर गौर करता है। जिसमें न सिर्फ विधायकों और सांसदों की संख्या शामिल है। बल्कि संगठन किसके साथ है ये भी मायने रखता है। फिलहाल शिंदे इन सभी मामलों में ठाकरे से कहीं ज्यादा आगे नजर आ रहे हैं। जिसके आंकड़े देखकर ही फिलहाल ये तय माना जा रहा है कि ठाकरे के हाथ से तीर कमान भी फिसल सकता है।
- 2019 में शिवसेना के पास 56 विधायक थे। एक के निधन के बाद 55 बचे। जिनमें से 40 शिंदे गुट के साथ हैं।
ये सभी बातें इस ओर ही इशारा करती हैं कि चुनाव आयोग चाहे जिस तरह से फैसला करे। शिवसेना का ऊंट शिंदे की तरफ मुंह करके ही बैठेगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला असली गेम चेंजर साबित होगा।
शिवसेना में जो घट रहा वो देश में पहली बार नहीं
शिवसेना में जो कुछ घट रहा है वो देश में पहली बार नहीं हो रहा। सबसे पहले 1968 में कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) अलग अलग हुए। एक ही साल बाद कांग्रेस में भी ऐसी कलह हुई। इंदिरा को गांधी परिवार की इस पार्टी से निकाल दिया गया। कांग्रेस ओ और जे में बंट गई। 1987 में AIADMK में यही हालात बनें। एमजीआर की पत्नी होने के बावजूद संगठन में ताकतवर बनकर उभरी जयललिता उनसे पार्टी सिंबल छीनने में कामयाब रहीं। हाल ही में रामविलास पासवान की पार्टी अब उनके बेटे चिराग पासवान से छिन चुकी है। अब शिवसेना भी अगली तारीख बनने की तैयारी में नजर आती है। जो इतिहास बनेगी या नहीं ये फैसला सुप्रीम कोर्ट को करना है।