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TEL AVIV. गाजा पट्टी ही हमास का केंद्र माना जाता है। यही वो इलाका है, जिसे लेकर इजरायल और फिलिस्तीन के बीच कई वर्षों से संघर्ष जारी है। इजरायल अब हर तरफ से घिरता नजर आ रहा है। हमास के भीषण हमले के बाद एक तरफ तो हिज्बुल्लाह लेबनान के लड़ाके बॉर्डर पर जुटे हैं, वहीं दूसरी ओर तालिबान भी फिलिस्तीन की मदद के लिए जाना चाहता है। ऐसे में इजरायल पर ट्रिपल खतरा मंडरा रहा है। हमास, हिज्बुल्लाह लेबनान और तालिबान ये सभी ऐसे संगठन हैं, जिन्हें कई देशों ने मान्यता दी है तो कई मुल्कों ने इन्हें आतंकी संगठन बताकर बैन लगा रखा है। हांलाकि ये तीनों संगठनों में हिज्बुल्लाह के हालात अब पहले जैसे मजबूत नहीं हैं, लेकिन ईरान की मेहरबानी से ये संगठन आज भी सक्रीय है।
हमास के हमले : इजरायल के 900 लोगों की मौत, 2600 से ज्यादा घायल
इजरायल और हमास के बीच जंग जारी है। हमले में इजरायल के 900 लोगों की जान जा चुकी है तो वहीं 2600 से ज्यादा घायल हैं। लेबनान बॉर्डर पर इजरायल ने हमला बोला है। हमास के खिलाफ गाजा में एयरस्ट्राइक लगातार बढ़ती जा रही है। नेतन्याहू ने कह दिया है कि हमने आतंक के खिलाफ युद्ध शुरू कर दिया है, इसको अंजाम तक पहुंचाएंगे। अब इजरायल हमास को तीन दिन से रुला रहा है। 9 अक्टूबर को इजरायल ने तीन घंटे में 130 हमले हमास के ठिकानों पर किए हैं। तीन दिन से इजरायल और फिलिस्तीन के गाजा पट्टी से युद्ध का सबसे विध्वंसक दौर चल रहा है।
कौन हैं तीनों आतंकी संगठन?
हमास : इजरायल पर हमला करने वाले हमास दुनियाभर में चर्चा में है। ये वही हमास है, जिसका गाजा पट्टी पर कब्जा है। हमास इजराइल का खात्मा चाहता है। इसी वजह से इजराइल और हमास के बीच कई बार झड़पें हो चुकी हैं। के ताकतवर बनने के पीछे उसे मिलने वाली फंडिंग है। हमास को दुनिया के कई देश सपोर्ट करते हैं, जिसमें सबसे अहम है ईरान और तुर्की। ये दोनों देश हमास को पैसे और हथियारों से मदद पहुंचाते हैं। हमास के पास घातक मिसाइलों का जखीरा भी है। हमास कोई संगठन नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जिसका मतलब है इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन। इसकी स्थापना 1987 में पहले फिलिस्तीनी इंतिफादा के दौरान हुई थी। इंतिफादा का मतलब बगावत या विद्रोह करना होता है। हमास के नेता कतर सहित मध्य पूर्व के कई देशों में फैले हुए हैं। हमास की विचारधारा मुस्लिम ब्रदरहुड की इस्लामी विचारधारा से मेल खाती है, जिसे 1920 के दशक में मिस्र में स्थापित किया गया था। इसका मकसद फिलिस्तीन में इस्लामिक शासन स्थापित करना और इजरायल का खात्मा करना है। 12 साल की उम्र से व्हीलचेयर पर रहने वाले शेख अहमद यासीन ने हमास की स्थापना की थी। हमास के पास इज अल-दीन अल-कसम ब्रिगेड नामक एक सशस्त्र विंग है, जिसने इजरायल में कई बंदूकधारी और आत्मघाती हमलावर भेजे हैं। हमास को इजराइल, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, मिस्र और जापान एक आतंकवादी संगठन के रूप में देखते हैं।
हिजबुल्लाह लेबनान : इस संगठन के लड़ाके इजराइल बॉर्डर के बाहर जमा हो रहे हैं। उन्हें बस हुक्म मिलने का इंतजार है, ताकि वे हमास के समर्थन में इजरायल पर हमला कर सकें। हिजबुल्लाह लेबनान का एक शिया राजनीतिक और अर्द्धसैनिक संगठन है। हिजबुल्लाह लेबनान के नागरिक युद्ध के दौरान स्थापित किया गया था। हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरूल्लाह हैं। साल 1982 में इजराइल ने जब दक्षिणी लेबनान पर हमला किया था, तब ये संगठन वजूद में आया था। इस संगठन को लेबनान के संविधान के तहत मान्यता प्राप्त है, जिसने इजरायल के बढ़ते खतरे के चलते अपने देश को इजरायल के कब्जे में जाने से बचाया था। 1943 में लेबनान में हुए एक समझौते के अनुसार, धार्मिक गुटों की राजनीतिक ताकतों को कुछ इस तरह बांटा गया- एक सुन्नी मुसलमान ही प्रधानमंत्री बन सकता था, ईसाई राष्ट्रपति और संसद का स्पीकर शिया मुसलमान, लेकिन यह धार्मिक संतुलन बहुत लंबे वक्त तक कायम नहीं रह पाया। साल 1982 में लेबनान में हिजबुल्लाह नाम का एक शिया संगठन बना जिसका मतलब था ‘अल्लाह की पार्टी’। ईरान ने इसे इजरायल के खिलाफ आर्थिक मदद देना शुरू किया। जल्द ही हिजबुल्लाह दूसरे शिया संगठनों से भी टक्कर लेने लगा। 1985 में इसने अपना घोषणापत्र जारी किया, जिसमें लेबनान से सभी पश्चिमी ताकतों को निकाल बाहर करने का ऐलान किया गया। तब तक यह फ्रांस और अमेरिका के सैनिकों और दूतावास पर कई हमले भी कर चुका था। पत्र में अमेरिका और सोवियत संघ दोनों को इस्लाम का दुश्मन घोषित किया गया था। 1992 के चुनावों में इसने संसद में आठ सीटें हासिल कीं। इसके बाद भी हिजबुल्लाह के हमले जारी रहे। 1997 में अमेरिका ने इसे आतंकी संगठन घोषित कर दिया था। साल 2000 में इजराइली सैनिक आधिकारिक रूप से लेबनान से बाहर आ गए लेकिन दोनों देशों के बीच तनाव खत्म नहीं हुआ। फिर 2011 में जब सीरिया में गृह युद्ध छिड़ा तब हिजबुल्लाह ने बशर अल असद के समर्थन में अपने हजारों लड़ाके वहां भेजे। इस बीच राजनीतिक रूप से हिजबुल्लाह लेबनान में और मजबूत होता गया। आज यह देश की एक अहम राजनीतिक पार्टी है, लेकिन दुनिया के कई देश इसे आतंकी संगठन घोषित कर चुके हैं। 2016 में सऊदी अरब भी इस सूची में शामिल हो गया। 2013 में इसके सैन्य अंग को आतंकी घोषित किया था।
तालिबान : तालिबान लड़ाके भी कुछ देशों से उन्हें रास्ते देने की इजाजत मांग रहे हैं, ताकि वे जंग में इजरायल के खिलाफ हमास का साथ दे सकें। आपको बता दें कि अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का उभार हुआ था। पश्तो भाषा में तालिबान का मतलब होता है छात्र खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों। कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी। तालिबान पर देववंदी विचारधारा का पूरा प्रभाव है। तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया था। शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है। शुरुआती दौर में अफगानिस्तान में रूसी प्रभाव खत्म करने के लिए तालिबान के पीछे अमेरिकी समर्थन माना गया लेकिन 9/11 के हमले ने अमेरिका को कट्टर विचारधार की आंच महसूस कराई और वो खुद इसके खिलाफ जंग में उतर गया, लेकिन काबुल-कंधार जैसे बड़े शहरों के बाद पहाड़ी और कबाइली इलाकों से तालिबान को खत्म करने में अमेरिकी और मित्र देशों की सेनाओं को पिछले 20 साल में भी सफलता नहीं मिली। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही तालिबान ने फिर सिर उठा लिया और तेजी से पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा जमा लिया। तालिबान कट्टर धार्मिक विचारों से प्रेरित कबाइली लड़ाकों का संगठन है। इसके अधिकांश लड़ाके और कमांडर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के सीमा इलाकों में स्थित कट्टर धार्मिक संगठनों में पढ़े लोग, मौलवी और कबाइली गुटों के चीफ हैं। सत्ता हस्तांतरण की बातचीत के लिए काबुल पहुंचा तालिबान कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बारादर तालिबान में दूसरी रैंक पर है और इसी के अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने की सबसे ज्यादा संभावना जताई जा रही है। 2015 में तालिबान ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण कुंडूज के इलाके पर कब्जा कर फिर से वापसी के संकेत दे दिए। अप्रैल 2021 में अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाइडेन के ऐलान के बाद तालिबान ने मोर्चा खोल दिया और 90 हजार लड़ाकों वाले तालिबान ने 3 लाख से अधिक अफगान फौजों को सरेंडर करने को मजबूर कर दिया।