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31 मई 2025 को देशभर में लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर की 300वीं जयंती वर्ष के रूप में मनाई जा रही है। अहिल्याबाई होल्कर का जीवन समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए समर्पित रहा। वे 28 वर्षों तक शासन करती रहीं और न कभी युद्ध हुआ न अकाल पड़ा।
महारानी ने कुशल रणनीति और न्यायप्रियता के साथ राज्य को समृद्धि की ओर अग्रसर किया। उस युग में जब देश में सती प्रथा प्रचलित थी तब अहिल्याबाई ने न केवल होलकर वंश की कमान संभाली बल्कि अपनी प्रजा से ऐसा प्रेम किया कि वे अपनी संतान से भी अधिक प्रिय थीं।
उनका जीवन सादगी, धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के प्रति समर्पण का उदाहरण था, जिसके लिए उन्हें 'द फिलॉसफर क्वीन' की उपाधि मिली। आज उनकी 300वीं जयंती पर आइए उनसे जुड़ी कुछ जरूरी बातों को जानें।
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अहिल्याबाई का जीवन परिचय
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड कस्बे के ग्राम चांडी में हुआ था, जिसे अब अहिल्यानगर के नाम से जाना जाता है। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे मराठा सेना के सैनिक थे और माता सुशीला बाई एक सामान्य किसान परिवार से थीं।
आठ वर्ष की उम्र में उनका विवाह मल्हार राव होलकर के पुत्र खांडेराव से हुआ। उनके जीवन में व्यक्तिगत कष्ट और दुःखों के बावजूद उन्होंने राज्य की सेवा को सर्वोपरि रखा। 29 वर्ष की आयु में पति का निधन हो गया, इसके बाद पिता, पुत्र, दामाद और बेटी का भी निधन हुआ, लेकिन वे अपने कर्तव्यों से विचलित नहीं हुईं।
मराठा सैन्य परिवारों में महिलाओं को आत्मरक्षा के लिए तीर-कमान, भाला चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था ताकि वे गांवों की रक्षा कर सकें। समाज में उन्हें 'लोकमाता' के रूप में सम्मानित किया जाता था। शिव भक्ति के साथ-साथ नित्य नर्मदा दर्शन, मछलियों को दाना खिलाना और गरीबों की सेवा उनके दैनिक कर्मों में शामिल था।
महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए उन्होंने संपत्ति का अधिकार दिया और उन्हें अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी दी। इसी परंपरा के तहत अहिल्याबाई ने भी अपनी मां के साथ शस्त्र संचालन सीख लिया था। शिवभक्त माता-पिता की प्रेरणा से वे स्वयं भी जीवनभर शिव की भक्त रहीं।
250 मंदिरों का पुनर्निर्माण
अहिल्याबाई होल्कर ने सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति के संरक्षण में बड़ा योगदान दिया। उन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों में 250 से अधिक मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया।
सोमनाथ, बद्रीनाथ, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, मथुरा और वाराणसी जैसे पवित्र स्थलों के मंदिरों को संरक्षित और विकसित किया। इनके प्रयासों से धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन को नई ऊर्जा मिली।
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सांस्कृतिक का पुनर्जागरण
महारानी अहिल्याबाई ने इंदौर और पूरे भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पुनरुद्धार किया। उन्होंने 130 से अधिक तीर्थ स्थलों, मंदिरों, धर्मशालाओं, अन्नक्षेत्रों, विद्यालयों और व्यायाम शालाओं का निर्माण कराया।
उन्होंने सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, द्वारिका, रामेश्वर, जगन्नाथपुरी जैसे पवित्र स्थलों के मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। साथ ही विधवाओं, अनाथों और दिव्यांगों के लिए आश्रम बनाए।
महिलाओं के अधिकारों की गारंटी
अहिल्याबाई होल्कर महिलाओं के सम्मान, सुरक्षा और अधिकारों की कटिबद्ध समर्थक थीं। उन्होंने महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिए, विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार दिलाया और महिलाओं की सुरक्षा के लिए सैन्य टुकड़ी भी गठित की।
उनकी दूरदर्शिता ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने का मार्ग दिखाया। उन्होंने अपने सूझबूझ भरे नेतृत्व से राज्य को युद्ध और अस्थिरता से बचाया। वे स्वयं भी तलवार, भाला और तीर-कमान चलाना जानती थीं। उन्होंने योग्यता के आधार पर अपनी पुत्री का विवाह किया और आंतरिक शत्रुओं के खिलाफ कड़ा रूख अपनाया।
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पुत्र को न्याय दिलाने का साहस
मल्हार राव की मृत्यु के बाद उनके पौत्र मालेराव ने राज्य में अत्याचार किया। अहिल्याबाई की धार्मिक आस्था और सेवा भावना के विपरीत, मालेराव ने निर्दोषों को सताया और अपमानित किया।
जब मालेराव ने निर्दोष जड़ी-बूटी विक्रेता की हत्या करवा दी, तो अहिल्याबाई ने कठोर निर्णय लेते हुए उसे हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया। इस निर्णय ने उन्हें गहरा आघात पहुंचाया, परन्तु उन्होंने प्रजा के हित में अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा।
सामाजिक सुधार और शैक्षिक विकास
महारानी ने अपने राज्य में पंचायती राज, न्याय व्यवस्था, सशक्त सेना और ग्रामीण-नगरीय योजनाओं का सफल संचालन किया। उन्होंने विधवाओं, अनाथों और दिव्यांगों के लिए आश्रम बनवाए, और शिक्षा, उद्योग व व्यापार को प्रोत्साहित किया।
अंतिम समय और विरासत
अहिल्याबाई होलकर ने 13 अगस्त 1795 को अपना अंतिम सांस लिया। उनके जीवन की अंतिम घड़ी तक वे भगवान शिव की भक्ति और सामाजिक सेवा में लीन रहीं।
उनका जीवन न्याय, वीरता, श्रद्धा और मातृत्व का प्रेरणादायक आदर्श है। आज भी उन्हें ‘लोकमाता’, ‘मातोश्री’ और ‘न्यायप्रिय’ जैसे सम्मानित नामों से याद किया जाता है।
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