अजमेर दरगाह विवाद: इतिहास की अन्य पुस्तकों में भी शिव मंदिर की जानकारी

अजमेर में एक मंदिर को तोड़कर दरगाह बनाई गई है। इसके सबूत भी कोर्ट में पेश किए गए हैं और मांग की गई है कि आधिकारिक सर्वेक्षण कराया जाए। इस याचिका में सबूत के तौर पर साल 1911 की एक किताब का हवाला दिया गया है।

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Dr Rameshwar Dayal
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Ajmer Dargah
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Ajmer Dargah controversy : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त अजमेर की ‘अजमेर शरीफ दरगाह’ एक बार फिर चर्चा में है। अजमेर की एक कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि वहां मंदिर को तोड़कर दरगाह का निर्माण किया गया है। इसके लिए कोर्ट में सबूत भी पेश किए गए हैं और मांग की गई है कि आधिकारिक सर्वे कराकर वहां हिंदुओं को पूजा करने का अधिकार दिया जाए। इस याचिका में बतौर सबूत वर्ष 1911 की एक पुस्तक का हवाला दिया गया है। लेकिन ऐसी जानकारी है कि इतिहास की अन्य पुस्तकों में बताया गया है कि दरगाह से पहले वहां शिव मंदिर था। इतिहास में यह भी जानकारी दी गई है कि यह दरगाह कई सौ साल पुरानी है। दूसरी ओर सवाल यह उठ रहा है कि जब  कानून (द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991) बन गया है तो ऐसे विवाद क्यों पैदा हो रहे हैं। इस कानून में कहा गया है कि आजादी के दिन तक जो धार्मिक स्थल जिस स्थिति में मौजूद था, उसे बदला नहीं जाएगा।

कैसे और क्यों पैदा हुआ यह विवाद

असल में उत्तर प्रदेश के एटा निवासी व हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने हाल ही अजमेर की एक कोर्ट में एक याचिका दायर कर खुलासा कि इतिहास से जुड़ी एक पुस्तक व उनके खुद की रिसर्च के बाद जानकारी मिली है कि भगवान शिव के मंदिर को ध्वस्त कर अजमेर शरीफ दरगाह का निर्माण किया गया है। उन्होंने मांग की है कि अजमेर दरगाह को संकट मोचन महादेव मंदिर घोषित किया जाए और अगर दरगाह का किसी तरह का पंजीकरण है तो उसे रद्द किया जाए। इसका ASI सर्वेक्षण कराया जाए और हिंदुओं को वहां पूजा करने का अधिकार दिया जाए। गत 27 नवंबर को याचिकाकर्ता के वकील योगेश सिरोजा ने सिविल जज मनमोहन चंदेल की बेंच के सामने तथ्य रखे। कोर्ट ने याचिका को मंजूर कर लिया और अजमेर दरगाह समिति, अल्पसंख्यक मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को एक नोटिस जारी किया। इन तीनों संस्थाओं से कोर्ट ने 20 दिसंबर तक जवाब देने को कहा है।

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याचिकाकर्ता ने मंदिर के पक्ष में कोर्ट में क्या सबूत पेश किए

यचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता ने 38 पेज की अपनी याचिका में मंदिर के पक्ष में कुछ तर्क और साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। उन्होने साल तत्कालीन रिटायर जज हरबिलास शारदा की साल 1911 में ‘अजमेर: हिस्टॉरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव’ किताब का हवाला दिया है और बताया कि 168 पन्नों की इस किताब में ‘दरगाह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती’ नाम से एक पूरा चैप्टर है। जिसके पेज नंबर 93 पर लिखा है कि दरगाह के ‘बुलंद दरवाजे’ की उत्तरी तरफ तीसरी मंजिल पर छतरी है। वह किसी हिंदू इमारत के हिस्से से बनी है। दरवाजे पर बनी छतरी की सतह पर खूबसूरत नक्काशी को चूने और रंग पुताई से भर दिया गया। पेज नंबर 94 पर जानकारी दी गई है कि छतरी में जो लाल रंग का बलुआ पत्थर का हिस्सा लगा है, वह किसी जैन मंदिर का है। इसके अलावा पेज नंबर 96 में बुलंद दरवाजे और अंदर के आंगन के नीचे पुराने हिंदू मंदिर के तहखाने हैं। इसमें कई कमरे अभी भी वैसे ही हैं। पेज नंबर 97 में बताया गया है कि हिंदू परंपरा के अनुसार तहखाने के अंदर मंदिर में महादेव की छवि है। इस पर हर दिन एक ब्राह्मण परिवार चंदन जलाता था। इस जगह को अब दरगाह के घड़ियाली (घंटी बजाने वाला) के रूप में जाना जाता है।

याचिकाकर्ता ने खुद भी दरगाह की जांच की

विष्णु गुप्ता का कहना है कि उन्होंने स्वयं दो साल तक अजमेर शरीफ जाकर रिसर्च की है, जिसमें वहां हिंदू मंदिर होने की जानकारी मिल। उनका कहना है कि दरगाह में मौजूद बुलंद दरवाजे की बनावट हिंदू मंदिरों के दरवाजे की तरह है। नक्काशी को देखकर भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां पहले हिंदू मंदिर रहा होगा। गुप्ता के अनुसार दरगाह के ऊपरी स्ट्रक्चर देखकर पता चलता है कि वहां भी हिंदू मंदिरों के अवशेष जैसी चीजें दिखती हैं। गुम्बदों को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी हिंदू मंदिर को तोड़कर यहां दरगाह का निर्माण करवाया गया। उनका कहना है कि देश में जहां-जहां शिव मंदिर हैं, वहां अधिकतर में पानी और झरने जरूर होते हैं। अजमेर शरीफ दरगाह में उनकी मौजूदगी पता चलती है। याचिकाकर्ता का यह भी दावा है कि अजमेर का हर एक व्यक्ति जानता है और उनके पूर्वज भी बताते रहे हैं कि दरगाह के नीचे शिवलिंग होता था।

अन्य पुस्तकों में मंदिर और दरगाह का जिक्र

सूत्र बताते है कि भारत के इतिहास से जुड़ी कुछ पुस्तकों में भी दरगाह व मंदिर का वर्णन किया गया है। मुगल शासक अकबर के शासनकाल में उनके पदाधिकारी अबुल फजल की लिखी किताब ‘अकबरनामा’ में बताया गया कि साल 1562 में अकबर फतेहपुर जा रहे थे। मंडाकर गांव के पास से गुजरते समय उन्होंने दरगाह के चमत्कारों के बारे में सुना और वह दरगाह जा पहुंचे। इसके बाद यह दरगाह आम जनता और शासकों के लिए आस्था का केंद्र बन गई। दूसरी ओर साल 1841 में आरएच इर्विन की लिखी किताब ‘सम अकाउंट ऑफ द जनरल एंड मेडिकल टोपोग्राफी ऑफ अजमेर’ में जानकारी दी गई है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के समय दरगाह की जगह एक प्राचीन महादेव मंदिर था। चिश्ती हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों को मानते थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन ने 40 दिनों तक मंदिर में शिवलिंग पर जल भी चढ़ाया था। एक अन्य किताब ‘द श्राइन एंड कल्ट ऑफ मुइन अल-दीन चिश्ती ऑफ अजमेर’ में भी वहां मंदिर का जिक्र है। साल 1989 में ब्रिटिश इतिहासकार पीएम करी ने इस किताब में लिखा है कि दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने का जिक्र है। किताब के मुताबिक, मोइनुद्दीन चिश्ती की कब्र के नीचे शिवलिंग स्थापित है।

विवाद पर क्या कहते हैं दरगाह के पदाधिकारी

अजमेर दरगाह के प्रमुख उत्तराधिकारी और ख्वाजा साहब के वंशज नसरुद्दीन चिश्ती का इस विवाद पर बयान आया है। उनक कहना है कि कुछ लोग सस्ती मानसिकता के चलते ऐसी बातें कर रहे हैं। आए दिन हर मस्जिद-दरगाह में मंदिर होने का दावा किया जा रहा है। हरबिलास शारदा की किताब की बात छोड़ दें, यहां के 800 साल पुराने इतिहास को नहीं नकारा जा सकता है। उन्होने जानकारी कि यहां 1950 में भी भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) ने सर्वे किया था, तब उसने मजार को लेकर क्लीन चिट दी थी। इसके बाद ऐसी बातें करने से आपसी भाईचारा खत्म होता है। इतिहासकार व प्रोफेसर नदीम रिजवी का भी कहना है कि दरगाह के नीचे मंदिर होने की बात गलत है। इस तरह दरगाह के नीचे मंदिर के होने की बात शुरू करने से देश की छवि पर गलत असर पड़ेगा। अजमेर शरीफ दरगाह पर पुराने समय में राजा महाराजा और अब बड़े नेता भी अकीदत (पूजा) करने के लिए आते हैं। वैसे आपको बता दें कि वहां हिंदू मंदिर होने का दावा किया गया था, लेकिन पुख्ता नहीं हो पाया साल 2021 में महाराणा प्रताप सेना संगठन ने दरगाह में स्वास्तिक चिह्न की जाली वाले फोटो शेयर किए। तब ASI की टीम ने दरगाह शरीफ की जांच की, लेकिन वहां स्वास्तिक के निशान वाली जाली नहीं पाई गई थी।

जग प्रसिद्ध है अजमेर शरीफ की यह दरगाह

वैसे अजमेर शरीफ की दरगाह सैंकड़ों सालों से जगप्रसिद्ध रही है और लेखकों व इतिहासकारों ने अपनी खोज में इसका जिक्र किया है। जाने माने लेखक व पत्रकार खुशवंत सिंह ने अपने उपन्यास ‘दिल्ली’ में इस दरगाह के अलावा दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह भी विस्तार से वर्णन किया है। दूसरी ओर जाने-माने इतिहासकार डॉ. जाहरुल हसन शाहरिब ने अपनी किताब ‘ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती’ में बताया है कि मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म सन 1135 में ईरान के इस्फान शहर में हुआ था। वह शिक्षा-दीक्षा के लिए दूसरे देशों में भी गए। किताब ने दावा किया है कि मक्का-मदीना में उन्हें ख्वाब में पैगम्बर मोहम्मद ने दिल्ली जाने का आदेश दिया। वह 11वीं सदीं के अंत में दिल्ली पहुंचे और फिर अजमेर चले गए। साल 1236 में मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन के बाद अजमेर में उनका मकबरा बनाया गया। शुरुआत में यह एक छोटा सा मकबरा था। समय के साथ अलग-अलग लोगों ने दरगाह का निर्माण कराया। मांडू के बादशाह महमूद खिलजी ने यहां एक मस्जिद बनवाई। इसके बाद मुगल सल्तनत में भी यहां निर्माण कार्य हुए। मोहम्मद बिन तुगलक और शेरशाह सूरी जैसे बादशाहों ने भी दरगाह को संरक्षण दिया था। आज भी पूरी दुनिया से लोग यहां मन्नत मांगने के लिए आते हैं।

बादशाह अकबर ने भी दरगाह पर मन्नत मांगी थी

ऐसा कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर ने भी अपनी औलाद के लिए इस दरगाह पर मन्नत मांगी थी, जो पूरी हुई थी। किंवदंतियों के अनुसार साल 1567 में बादशाह अकबर ने मन्नत मांगी थी कि अगर उनके परिवार में बेटा पैदा होगा तो अजमेर आकर इस दरगाह में इबादत करें। दो साल बाद उनकी महारानी ने बेटे को जन्म दिया। जिसके बाद बादशाह 15 दिन तक पैदल चलकर दरगाह पर पहुंचे और वहां अकबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। उन्होंने वहां दस डायमीटर की देग (बड़ी कड़ाही) भी स्थापित की, जिसमें आज भी एक बार में 4800 किलो मीठे चावल (जरदा) पकाकर उसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। यह भी कहा जाता है कि जब साल 1911 में दिल्ली में जार्ज पंचम की ताजपोशी हुई थी, उस दौरान उनकी पत्नी क्वीन मैरी ने दरगाह का दौरा कर वहां हौज की मरम्मत के लिए 1500 रुपए दान में दिए थे। आज भी इस हौज को विक्टोरिया टैंक के नाम से जाना जाता है। 

वर्ष 1991 में बना विशेष कानून क्या कहता है

कानून के जानकार कहते हैं कि जब देश में 'द प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट' लागू है, तब ऐसे मामलों की कोर्ट सुनवाई क्यों कर रहा है। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सीनियर प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने कहा भी है कि इस याचिका में कोई दम नहीं है क्योंकि ‘द प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991’ के तहत किसी भी धार्मिक इमारत को बदला नहीं जा सकता है। इस एक्ट के अनुसार 15 अगस्त 1947 को देश के धार्मिक स्थल जिस रूप में थे, उनका वही रूप बरकरार रहेगा। यानी आजादी के वक्त अगर कोई मस्जिद थी, तो बाद में उसे बदलकर मंदिर या चर्च या गुरुद्वारा नहीं किया जा सकता। ये कानून 11 जुलाई 1991 को लागू किया गया था। वैसे इस कानून में अयोध्या में राम मंदिर के विवाद को अलग रखा गया था। जहां पर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर निर्माण का फैसला सुनाया था।

वर्शिप एक्ट 1991 को मिल रही है लगातार चुनौतियां

कई याचिकाकर्ता इस कानून को चुनौती देते हैं या इसकी व्याख्या को लेकर सवाल उठाते हैं। उनका तर्क होता है कि कुछ मामलों में ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टिकोण से न्याय की जरूरत है, जो इस कानून के दायरे में नहीं आता। कुछ स्थानों, जैसे वाराणसी (ज्ञानवापी मस्जिद) और मथुरा (कृष्ण जन्मभूमि) को लेकर यह दावा किया जाता है कि वे मंदिरों को तोड़कर बनाए गए थे। इन मामलों में याचिकाकर्ताओं का तर्क होता है कि इन स्थलों की ऐतिहासिक जांच की जाए। याचिकाकर्ता 'धार्मिक स्वतंत्रता' के संवैधानिक अधिकार का हवाला देकर न्यायालय में मामले ले जाते हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता व वकील एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने इस एक्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उनका कहना है कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्धों के संवैधानिक अधिकारों से उन्हें वंचित करता है। उनके जिन धार्मिक और तीर्थ स्थलों को विदेशी आक्रमणकारियों ने तोड़ा, उसे वापस पाने के कानूनी रास्ते को बंद करता है। मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है, जिस पर 4 दिसंबर को सुनवाई होनी है। दूसरी ओर अजमेर कोर्ट ने दरगाह की अगली सुनवाई 20 दिसंबर को निर्धारित की है। इसमें अजमेर दरगाह समिति, अल्पसंख्यक मंत्रालय और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) अपनी रिपोर्ट पेश करेंगे।

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