जब हमें पता चला कि घर में नया मेहमान आने वाला है तो परिवार वालों की खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं पत्नी की सेहत को लेकर और सतर्क हो गया। धीरे-धीरे दिन बीतते गए और आज से साढ़े पांच साल पहले पत्नी ने स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। भगवान के आशीर्वाद से सब कुछ ठीक हो गया।
दिन बीतते गए। मैं अपनी नौकरी की व्यस्तता के चलते बच्चे पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाया। पत्नी भी स्वास्थ्यगत परेशानियों के चलते नौनिहाल के साथ पूरा समय नहीं बिता पाईं। बच्चा जब रोए तो हम उसे मोबाइल दे देते। इससे वह चुप हो जाया करता। शुरू-शुरू में हमने ध्यान नहीं दिया। फिर ऐसा होने लगा कि जब तक बच्चे को मोबाइल न दें, वह ना खाए और ना ही कुछ पिए।
धीरे-धीरे बेटे को मोबाइल पर वीडियो देखने की इतनी ज्यादा आदत हो गई कि उसे मोबाइल न मिले तो वह रोता ही रहे। चुप कराने के लिए हम भी मोबाइल दे देते। तब अनुमान नहीं था कि हमारी इस गलती का इतना बड़ा असर होगा कि बच्चा बोलना ही नहीं सीख पाएगा। बेटा आज साढ़े पांच साल का है, लेकिन अभी भी वह बोल नहीं पाता।
ये कहानी मध्यप्रदेश के सागर जिले के बीना निवासी सुजीत श्रीवास्तव (परिवर्तित नाम) की है। बेटे को लेकर अपना दर्द बयां करते-करते उनका गला भर आता है। सुजीत कहते हैं, हमनें जब जांच कराई तो पता चला कि बेटा ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) से का शिकार हो गया। मोबाइल पर लगातार वीडियो देखने से उसका मानसिक विकास रुक गया।
सुजीत ने बताया, हम पहले बेटे को भोपाल ले गए। फिर नागपुर में इलाज कराया। डॉक्टरों की सलाह पर अब थैरेपी करा रहे हैं। बेटा साढ़े पांच साल का है, लेकिन मानसिक रूप से वह दो साल के बच्चे जैसा है। वह बोल भी नहीं पाता।
घर-घर से जुड़ी है यह दास्तां
ये अकेले सुजीत की कहानी नहीं है। यह कहानी घर-घर से जुड़ी है। बच्चे के रोने पर या उसे शांत करने के लिए पेरेंट्स मोबाइल या कोई और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट पकड़ा देते हैं। मोबाइल लेकर बच्चा वीडियो देखने लगता है या गेम खेलता है। इधर, पेरेंट्स अपने काम में जुट जाते हैं। धीरे-धीरे यह क्रम चलता रहता है और ऐसे ही बच्चे को मोबाइल की लत लग जाती है। भोपाल, इंदौर और नागपुर की अस्पतालों में हर दिन ऐसे सैकड़ों केस पहुंच रहे हैं। कई रिसर्च में यह पता चल चुका है कि चार साल से कम उम्र तक के बच्चों को फोन देने से उनका मानसिक विकास (मेंटल डेवलेपमेंट) प्रभावित होता है। इससे वर्चुअल ऑटिज्म का खतरा लगातार बढ़ रहा है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट...जानिए
बच्चों का स्क्रीन टाइम बढ़ने से बढ़ रहे मामलों को देखते हुए 'द सूत्र' की टीम ने विशेषज्ञ डॉ.राजेश टिक्कस से लंबी चर्चा की। उनसे समझा कि आखिर ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर से पीड़ित होने के क्या मुख्य कारण हैं? यह डिसऑर्डर कैसे बढ़ रहा है? पेरेंट्स को क्या करना चाहिए?
इन सब सवालों के जवाब में गांधी मेडिकल कॉलेज में बाल एवं शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ.राजेश टिक्कस कोरोना महामारी के दिनों को याद करते हैं। वे कहते हैं, कोरोना के बाद से बच्चों की आउटडोर एक्टिविटी कम हो गई हैं। अभिभावक भी अब बच्चों को बाहर नहीं भेजते। लिहाजा, नौनिहाल अपना ज्यादा समय स्कूल अथवा चारदीवारी में बिताते हैं। यहीं से वे मोबाइल के संपर्क में आते हैं और परेशानी शुरू हो जाती है।
चार साल तक के बच्चों को न दें मोबाइल
पेरेंट्स को सलाह देते हुए डॉ. टिक्कस ने कहा, कम से कम चार साल तक के बच्चों को मोबाइल नहीं देना चाहिए। बच्चों का स्क्रीन टाइम जीरो हो। पेरेंट्स को चाहिए कि वे बच्चे के साथ समय बिताएं। उनके साथ खेलें। मौजूदा हालातों पर बात करते हुए डॉ. टिक्कस कहते हैं, पेरेंट्स खाना खाने में बच्चों को मोबाइल थमा देते हैं। टीवी चालू कर देते हैं। इसकी जगह पेरेंट्स को चाहिए कि वे बच्चों को समझाएं। कहानियां सुनाएं। उनसे बात करते रहें और खाना खिलाते रहें।
बच्चों के साथ वक्त बिताएं पेरेंट्स
डॉ.टिक्कस एकल परिवारों को भी बच्चों के मानसिक विकास में बाधा मानते हैं। उनका कहना है कि पहले ज्वाइंट फैमिली का बच्चों के विकास में बड़ा अहम रोल होता था। परिवार के लोगों से बच्चों को खुशनुमा माहौल मिलता था। अब एकल परिवारों में ऐसा नहीं होता। माता-पिता वर्किंग होते हैं और बच्चे कहीं न कहीं इससे प्रभावित होते हैं। अब पेरेंट्स को चाहिए कि वे बच्चों को बाहर खेलने जाने दें। चाहें तो पेरेंट्स साथ में जाएं। उन्हें लोगों से मिलाएं। उनके दोस्त बनवाएं।
इस तरह बढ़ता जाता है स्क्रीन टाइम
इस बीमारी में बच्चों की मनोस्थिति समझने के लिए 'द सूत्र' की टीम ने मनोचिकित्सक डॉ.सत्यकांत त्रिवेदी से बात की। उन्होंने प्रैक्टिकल तरीके से कहा, बच्चे रोते हैं तो अभिभावक उन्हें मोबाइल या टैबलेट देकर चुप करा देते हैं। कई बार बच्चों का मोबाइल चलाना पेरेंट्स के लिए कोई उपलब्धि सा होता है। बच्चा मोबाइल का लॉक खोलकर वीडियो चला दे या किसी को कॉल लगा दे तो पेरेंट्स खुश होकर ये बात बताते हैं, जबकि यहीं से परेशानी शुरू हो जाती है। नतीजा यह होता है कि शुरुआत में तो सब खुशी खुशी में चलता रहता है और फिर आमतौर पर अच्छी लगने वाली यही आदत बच्चे को स्क्रीन का आदी बना देती है।
समझिए क्या कहती हैं दुनियाभर में हुईं रिसर्च
1. डब्ल्यूएचओ: विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ की बच्चों के स्क्रीन टाइमिंग को लेकर की गई रिसर्च कहती है कि दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों का स्क्रीन-टाइम जीरो ही होना चाहिए। यदि बच्चा दो से पांच वर्ष तक का है, तब भी स्क्रीन टाइम अधिकतम एक घंटे ही हो। यदि इससे ज्यादा स्क्रीन टाइम है तो मानकर चलिए कि आप बच्चे को बीमार कर रहे हैं।
2. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी: ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर के बढ़ते मामलों के बीच इसका असर समझने के लिए हार्वर्ड यूनिवर्सिटी सेंटर ऑफ डेवलपिंग चाइल्ड में हुई एक रिसर्च में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। रिसर्च के अनुसार, नौ वर्ष की उम्र तक ज्यादा समय मोबाइल या टैबलेट के साथ बिताने वाले बच्चों की एकेडमिक परफॉर्मेंस घटती है। मानसिक स्वास्थ लगातार बिगड़ता है।
क्या होते हैं स्क्रीन टाइम ज्यादा होने के नुकसान
मोबाइल अथवा किसी अन्य गैजेट्स पर ज्यादा स्क्रीन टाइम बिताने वाले बच्चे भावनात्मक तौर पर कमजोर होते हैं। स्क्रीन टाइम ज्यादा होने से बच्चों में चिड़चिड़ापन ज्यादा होता है। वे बार बार गुस्सा होीने लगते हैं।
आम तौर पर पूछे जाने वाले सवाल?
1. कितने वर्ष के बच्चों में ऑटिज्म का असर होता है?
जवाब: अमूमन एक से तीन वर्ष के बच्चों को ऑटिज्म का ज्यादा खतरा होता है। कई मामलों में देखा गया है कि पांच वर्ष तक के बच्चे भी इसकी चपेट में आ जाते हैं।
2. यदि बच्चे को ऑटिज्म हो गया तो क्या करें?
जवाब: विशेषज्ञों डॉक्टरों की सलाह पर बच्चों की थैरेपी करनी चाहिए। पेरेंट्स को बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहिए। उन्हें खुशनुमा माहौल देना चाहिए।
3. मोबाइल को लेकर बच्चा मचल रहा है तो क्या करें?
जवाब: बच्चों को खाना, खेलना ही ज्यादा पसंद होता है। लिहाजा, उनका पसंदीदा खाना बनाएं। बहादुरी के किस्से सुनाएं। घुमाने ले जाएं। इनडोर और आउटडोर गेम्स खेलें। उन्हें म्यूजियम, थिएटर और पार्क आदि घुमाने ले जाएं। साथ मिलकर क्राफ्ट करें, इससे वे रचनात्मक बनेंगे।
उम्र के हिसाब से क्या होनी चाहिए स्क्रीन टाइम
एक बच्चे के लिए स्क्रीन के इस्तेमाल का टाइम क्या हो? इसके कोई निश्चित पैरामीटर नहीं है। हालांकि अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स ने अपनी रिसर्च के बाद कुछ तथ्य सामने रखे हैं...
- 18 महीने से कम उम्र के बच्चों के लिए: परिवार और दोस्तों के साथ वीडियो चैटिंग के अलावा स्क्रीन टाइम से बचें।
- 18 से 24 महीने के बच्चों के लिए: अच्छे प्रोग्राम तय करें और इन्हीं को बच्चे के साथ मिलकर देखें, ताकि उन्हें समझने में मदद मिले कि वे क्या देख रहे हैं।
- 2 से 5 वर्ष के बच्चों के लिए: धार्मिक या सामाजिक प्रोग्राम्स के छोटे-छोटे एपिसोड के साथ सीमित समय के लिए बच्चों का स्क्रीन टाइम सेट किया जा सकता है।
- 6 वर्ष और उससे अधिक आयु के बच्चों के लिए: स्क्रीन पर बिताए जाने वाले समय की जरूरत काम के हिसाब से तय करना चाहिए।
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