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सुप्रीम कोर्ट ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए 1976 में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस (CJI) संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने साफ किया कि संसद के पास संविधान की प्रस्तावना में बदलाव करने का पूरा अधिकार है। साथ ही कोर्ट ने इतने दिनों बाद इस मुद्दे को उठाने पर नाराजगी भी जाहिर की है।
भारत के संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द को चुनौती देने वाली याचिका पर 22 नवंबर को हुई सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इन शब्दों को आपातकाल के दौरान, जनता की राय के बिना जोड़ा गया था। याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने तर्क दिया कि प्रस्तावना में बदलाव करना संविधान सभा के विशेष अधिकार में आता है, न कि संसद के। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) पर हाल ही में 9 न्यायाधीशों की पीठ के फैसले का हवाला दिया, जिसमें समाजवाद की व्याख्या को लेकर भिन्नता सामने आई थी। लेकिन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने स्पष्ट किया कि भारत में समाजवाद का मतलब कल्याणकारी राज्य है, जो सभी को समान अवसर प्रदान करता है और निजी क्षेत्र की प्रगति को नहीं रोकता। जब याचिकाकर्ताओं ने यह मामला बड़ी पीठ को सौंपने की मांग की, तो कोर्ट ने इसे अस्वीकार कर दिया। सुनवाई के दौरान कुछ वकीलों के व्यवधान के कारण मुख्य न्यायाधीश ने नाराजगी व्यक्त की और आदेश को सोमवार (25 नवंबर) तक सुरक्षित रख लिया था।
25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्द जोड़ने का फैसला संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "प्रस्तावना संविधान का अभिन्न हिस्सा है और इसे संशोधित करना संसद की संवैधानिक शक्ति है।" उन्होंने यह भी कहा कि "धर्मनिरपेक्षता" संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और इसका उद्देश्य सभी धर्मों को समान अधिकार देना है। कोर्ट ने यह तर्क खारिज कर दिया कि आपातकाल के दौरान लोकसभा ने अपने विस्तारित कार्यकाल का दुरुपयोग किया।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि इन शब्दों को आपातकाल के दौरान जबरन जोड़ा गया।
1. इससे जनता पर विचारधारा थोपी गई। संविधान की प्रस्तावना में बदलाव संविधान सभा के अधिकार में आता है, न कि संसद के। अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इन्हें अवैध तरीके से प्रस्तावना में जोड़ने का विरोध कर रहे हैं।
2. सुप्रीम कोर्ट ने इन तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि संविधान में संशोधन का अधिकार संसद के पास है और 42वें संशोधन को पहले भी कई बार न्यायिक समीक्षा के अधीन लाया गया है।
कोर्ट ने बताया समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का मतलब
सुप्रीम कोर्ट ने समाजवाद का मतलब कल्याणकारी राज्य बताया, जो सभी को समान अवसर और अधिकार प्रदान करता है। धर्मनिरपेक्षता के बारे में कोर्ट ने कहा कि यह संविधान का एक बुनियादी हिस्सा है, जिसका उद्देश्य है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान रूप से देखा जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि 42वें संविधान संशोधन को चुनौती देने की कोई जरूरत नहीं है। यह संविधान के अनुरूप है और संसद को इसे बदलने का पूरा अधिकार था। अदालत ने यह भी कहा कि इतने सालों बाद इस मुद्दे को उठाना सही नहीं है।
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