New Delhi : संजीव खन्ना देश के नए चीफ जस्टिस बन गए हैं। उनका कार्यकाल 13 मई 2025 को पूरा होगा। संजीव खन्ना के पिता देवराज खन्ना दिल्ली हाईकोर्ट के जज रहे हैं। उनके चाचा जस्टिस हंसराज खन्ना भी सुप्रीम कोर्ट में जज रहे। उन्होंने तत्कालीन इंदिरा सरकार में इमरजेंसी का कड़ा विरोध किया था। लिहाजा कहा जाता है कि उन्हें सीनियर जज होने के बावजूद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया यानी सीजेआई नहीं बनाया गया था।
अब सवाल खड़ा होता है कि क्या हायर लेवल पर जूडिशरी में वंशवाद है? या महज एक संयोग है अथवा योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर नियुक्तियां हो रही हैं...? ये बड़ी बहस का मुद्दा है। यदि इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो ऐसे कई मामले हैं, जिनमें जज का बेटा जज बना। पूर्व सीजेआई डीवाई चन्द्रचूड़ के पिता वाईवी चन्द्रचूड़ भी जस्टिस रहे। उन्हें देश का 16वां सीजेआई बनाया गया था।
जस्टिस नागरत्ना के पिता रहे सीजेआई
जस्टिस केएम जोसेफ के पिता केके मैथ्यू वर्ष 1971 से 1976 तक सुप्रीम कोर्ट में जज रहे। इसी तरह जस्टिस बीवी नागरत्ना के पिता ईएस वेंकटरमैया भी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रह चुके हैं। गौरतलब है कि वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस नागरत्ना वर्ष 2027 में सीजेआई बन सकती हैं। हालांकि उनका कार्यकाल छोटा होगा।
बेला त्रिवेदी के पिता जिला जज
इसी क्रम में जस्टिस पीएस नरसिम्हा और सुधांशु धुलिया के पिता भी हाईकोर्ट में जज रह चुके हैं। जस्टिस बेला त्रिवेदी का रोचक किस्सा है। वे ट्रायल कोर्ट की जज थीं। फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं। उनके पिता अहमदाबाद जिला कोर्ट में जज थे। बेला त्रिवेदी जब सिविल जज नियुक्त हुईं थी, तब उनके पिता भी वहीं जज थे।
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गवई के पिता राज्यपाल रह चुके
जस्टिस बीआर गवई के पिता एसआर गवई जाने-माने नेता और सामाजिक कार्यकर्ता रहे, जो बाद में बिहार और केरल के राज्यपाल बनाए गए। ऐसे ही जस्टिस ए.एस.बोपन्ना के पिता भी कर्नाटक में जनता पार्टी के बड़े नेता थे। इसी फेहरिस्त में अगला नाम जस्टिस संजय किशन कौल का है। उनके पूर्वज कश्मीर के राजदरबार में वरिष्ठ पदों पर रहे हैं।
न्यायपालिका में वंशवाद की चर्चा
दरअसल, भारतीय न्यायपालिका में वंशवाद की चर्चा अक्सर होती है, खासकर जब जजों की नियुक्ति में एक तरह का पैटर्न नजर आता है। इसे लेकर एक वर्ग का मत है कि न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का आधार न केवल योग्यता और अनुभव होता है, बल्कि अक्सर उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी प्रभाव डालती है। अप्रत्यक्ष रूप से इसे वंशवाद कह सकते हैं, क्योंकि जजों की नियुक्ति में कई बार उन नामों को भी तरजीह दी जाती है, जिनके परिजन न्यायपालिका में पहले उच्च पदों पर रहे हैं।
वंशवाद क्या एक संयोग भर है?
न्यायपालिका में क्षेत्रीय और समुदाय आधारित संतुलन लाने की कोशिश के बावजूद यह आरोप लगते रहे हैं कि कई मेहनती और योग्य जजों को उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण नजरअंदाज किया जाता है, जबकि अन्य जजों को प्राथमिकता दी जाती है। यह एक सवाल खड़ा करता है कि क्या न्यायपालिका में वंशवाद केवल संयोग है? हालांकि, विशेषज्ञ कहते हैं कि यह एक चिंता का विषय है और इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
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