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आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के तीन बच्चे पैदा करने वाले बयान ने देश में एक नई चर्चा को जन्म दे दिया है। उनकी चिंता है कि हिंदुओं की प्रजनन दर यानी (Total Fertility Rate - TFR) 2 से नीचे हो गई है। इससे हिंदू खत्म हो सकते हैं। इस बड़ी बहस के हर पहलू को इस खबर के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं। पहले समझते हैं, वह मूल चिंता जो मोहन भागवत ने जताई है। यानी किसी समुदाय की TFR 2 से कम होने पर विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
अब बच्चे कितने पैदा करना हैं, यह किसी भी परिवार का व्यक्तिगत फैसला है। बावजूद इसके सरकार हम दो, हमारे दो की नीति पर चलती है। ज्यादा बच्चे करने वालों को राजनीति में हिस्सेदारी सहित कई तरह की सरकारी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं।
किसी समुदाय की प्रजनन दर 2 से नीचे होने क्या होता है
Amity University कोलकाता की स्कॉलर पल्लवी दास ने पॉपुलेशन स्टडी पर बहुत काम किया है। उनके अनुसार किसी समुदाय की प्रजनन दर (Fertility Rate) 2 से नीचे होने का सीधा असर उस समुदाय की जनसंख्या में कमी के रूप में देखा जा सकता है। इसके संभावित परिणाम निम्नलिखित हो सकते हैं
आबादी में गिरावट
प्रजनन दर 2 से नीचे होने का मतलब है कि एक दंपती औसतन 2 से कम बच्चे पैदा कर रहे हैं। यह Replacement Level से नीचे है, जिससे हर पीढ़ी में जनसंख्या घटने लगेगी। यानी इस जगह RSS चीफ मोहन भागवत सही कह रहे हैं।
- आर्थिक प्रभाव
-जनसंख्या में कमी से कार्यबल (Workforce) घट सकता है। इससे भविष्य में उत्पादकता में कमी आ सकती है, और आर्थिक विकास प्रभावित हो सकता है।
-सेवानिवृत्त लोगों की संख्या बढ़ने से पेंशन और स्वास्थ्य देखभाल का खर्च बढ़ जाएगा। - उम्रदराज जनसंख्या (Ageing Population)
प्रजनन दर में गिरावट से बुजुर्गों की संख्या बढ़ने लगती है और युवा आबादी घट जाती है। इससे जनसांख्यिकीय संतुलन (Demographic Balance) बिगड़ सकता है। जापान इसका उदाहरण है, जहां की प्रजनन दर 1.26 है। यह साल 2022 का आंकड़ा है और यह देश के लिए अब तक का सबसे कम स्तर है। - सामाजिक संरचना पर असर
-कम बच्चे होने से परिवार के आकार छोटे होते हैं, जिससे परिवार की सामाजिक संरचना बदल सकती है।
-कम युवाओं के कारण पारंपरिक सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य कमजोर हो सकते हैं। - आव्रजन (Immigration) की जरूरत
श्रमिकों की कमी को पूरा करने के लिए बाहरी देशों से आव्रजन पर निर्भरता बढ़ सकती है। इससे स्थानीय संस्कृति और समाज में बदलाव आ सकता है। जापान इस समय यही कर रहा है। वहां बढ़ी संख्या में भारतीय कामगारों की जरूरत है। - महिलाओं की स्थिति में सुधार
कम प्रजनन दर आमतौर पर महिलाओं की शिक्षा और रोजगार में सुधार से जुड़ी होती है। इससे महिलाओं को स्वास्थ्य और स्वतंत्रता के अधिक अवसर मिलते हैं। - लंबी अवधि में जनसंख्या स्थिरता का खतरा
-यदि प्रजनन दर लगातार कम रहती है, तो यह दीर्घकालिक जनसंख्या स्थिरता के लिए चुनौती बन सकती है।
-यानी मोटे तौर पर मोहन भागवत की चिंता ठीक नजर आती है। मगर इसे पूरे देश की जनसंख्या, खासतौर पर मुसलमानों की प्रजनन दर से भी तुलना करने की जरूरत है। चलिए थोड़ा आंकड़ों से समझते हैं
आबादी का अंतर और हिंदू- मुसलमान
डॉ सास्वत घोष और पल्लबी दास हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के राज्य और जिला स्तर की प्रजनन क्षमता में अंतर का अनुमान लगाते हैं। उनके अनुसार भारत में पिछले दशक के दौरान एक महत्वपूर्ण प्रजनन परिवर्तन हुआ है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, वर्ष 2019-21 में, भारत में कुल प्रजनन दर (टीएफआर, या प्रत्येक महिला से पैदा हुए बच्चों की औसतन संख्या) पहले ही 2.1 से नीचे पहुंच गई थी। यह परिवर्तन पिछले दशक के दौरान सभी क्षेत्रों और समाज के वर्गों में हुआ है।
पिछले 30 वर्षों के दौरान TFR- जैसा कि आकृति 1 में दर्शाया गया है, अखिल भारतीय स्तर पर वर्ष 1992 और वर्ष 2019 के बीच टीएफआर 3.4 से घटकर 2.0 हो गया है। इसी अवधि में हिंदुओं में यह 3.3 से घटकर 1.9 हो गया, जबकि मुसलमानों में यह 4.4 से घटकर 2.4 हो गया है।
चलिए हिंदू- मुसलमान की आबादी का TFR भी देख लेते हैं
भारत में दो प्रमुख धार्मिक समूह – हिंदुओं और मुसलमानों के प्रजनन की दरों में अंतर हमेशा से ही विवाद का विषय रहा है। NFHS-5 के अनुसार, हिंदुओं का टीएफआर 1.9 और मुसलमानों का 2.4 होने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन ऐतिहासिक रूप से अन्य समुदायों की तुलना में उच्च प्रजनन दर दर्ज करने वाले मुसलमानों सहित सभी धार्मिक समूह भारत में घटती प्रजनन क्षमता में शामिल हैं। यानी हाल के वर्षों में मुसलमानों द्वारा भी प्रजनन दर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है।
रिपोर्ट बताती हैं कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जिन जिलों में हिन्दुओं की प्रजनन दर अधिक थी, उनमें मुस्लिमों की प्रजनन दर भी अधिक थी, और जहां हिन्दुओं की प्रजनन दर कम थी वहां मुसलमानों की प्रजनन दर भी कम थी। यानी प्रजनन दर के स्तर को धर्म ने नहीं प्रभावित किया है।
यह ग्राफ दर्शाता है कि समय के साथ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टीएफआर के बीच का अंतर कैसे कम हुआ है। अखिल भारतीय स्तर पर, वर्ष 1992 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच 1.11 बच्चों का अंतर वर्ष 2019 तक घटकर केवल 0.42 बच्चों का रह गया था। पश्चिम बंगाल में अंतर में कमी सबसे अधिक रही, जहां वर्ष 1992 में 2.07 बच्चों का अंतर था, जो वर्ष 2019 में 0.56 हो गया था। हालांकि, अन्य ऐसे राज्य भी हैं, (उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक) जहां न केवल वर्षों से अंतर में कमी एक समान नहीं थी, बल्कि यह कुछ हद तक बढ़ भी गई है। जैसे-जैसे बिहार में मुसलमानों के बीच प्रजनन दर बढ़ी, उदाहरण के लिए, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच प्रति महिला बच्चों की संख्या के बीच का अंतर भी वर्ष 2011 और 2019 के बीच बढ़ गया (0.40 से 0.75 बच्चे प्रति महिला)।
बता दें कि 1950 में विश्व की जनसंख्या लगभग 2.5 अरब थी, जो अब 8 अरब से अधिक हो चुकी है। बीते सात दशकों में जनसंख्या विस्फोट ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं कि यह बढ़ोतरी धरती पर बोझ है या वरदान। भारत, जो अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है, इस समस्या का मुख्य केंद्र है। दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा भारत में रहता है। 2024 तक भारत की जनसंख्या 1,455,591,095 हो गई है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अप्रैल 2023 में भारत ने चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी आबादी का खिताब हासिल किया। हालांकि, एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रजनन दर लगातार घट रही है। आजादी के बाद 1950 में यह दर 6.2 थी, जो 2021 में 2 से नीचे आ गई। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक यह 1.3 तक गिर सकती है। साल 2054 में भारत की आबादी 1.69 अरब तक पहुंच सकती है, लेकिन उसके बाद घटने का सिलसिला जारी होगा और साल 2100 में भारत की आबादी घटकर 1.5 अरब रह जाएगी।
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