नजरिया : क्या कमलनाथ की ये माँग देश तोड़ने वाली है?

देश-दुनिया। पहले तो विश्व में 9 अगस्त का दिन 'विश्व आदिवासी दिवस' के रूप में नहीं मनाया जाता। वह 'विश्व मूल निवासी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। दोनों में अंतर है, बहुत ज्यादा अंतर है। भारत का 'विश्व मूल निवासी दिवस' से कोई लेना-देना नहीं है... 

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Jitendra Shrivastava
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प्रशांत पोल 

राष्ट्रीय चिंतक 

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने वर्तमान मुख्यमंत्री मोहन यादव को एक पत्र लिखा। इस पत्र के द्वारा उन्होंने मांग की है कि 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर मध्यप्रदेश में छुट्टी घोषित की जाए। ये पत्र इस बात का सबूत है कि कमलनाथ, देश तोड़ने वाली शक्तियों के हाथों में खेल रहे हैं। पहले तो विश्व में 9 अगस्त का दिन 'विश्व आदिवासी दिवस' के रूप में नहीं मनाया जाता। वह 'विश्व मूल निवासी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। दोनों में अंतर है, बहुत ज्यादा अंतर है। भारत का 'विश्व मूल निवासी दिवस' से कोई लेना-देना नहीं है। भारत में कोई भी बाहर से नहीं आया है, सिवाय इस्लामी आक्रांताओं के। भारत को तोड़ने वाली शक्तियां यह दिखाना चाहती हैं कि भारत भी अप्रवासियों का देश है। बाहर से आए हुए लोगों का देश है। कमलनाथ जैसे लोग इन देशद्रोही ताकतों के हाथों खेल रहे हैं।

बड़ा प्रश्न है कि मूल निवासी कौन हैं?

1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'विश्व मूल निवासी दिवस' (World Indigenous Day) की घोषणा की थी। इस कल्पना को लेकर 1982 में Working Group on Indigenous People समूह की पहली बैठक 9 अगस्त को हुई थी, इसलिए 9 अगस्त को विश्व मूल निवासी दिवस मनाया जाता है। इसके पीछे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका बड़ी स्पष्ट है। उनके अनुसार विश्व के लगभग 90 देशों में 47.6 करोड़ मूल निवासी रहते हैं, जो विश्व की जनसंख्या के 5% के बराबर है, किन्तु दुनियाभर के गरीबों में मूल निवासियों की संख्या 15% है। ऐसे मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए उनका जीवन स्तर बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ यह दिवस मनाता है। प्रश्न है, मूल निवासी कौन हैं? हम सभी जानते हैं कि 1492 में भारत जाने के प्रयास में कोलंबस अमेरिका पहुंच गया। पहुंचने के बाद उसे लगा, यही इंडिया है इसलिए वहां पहले से जो लोग रहते थे उन्हें 'इंडियन' नाम दिया गया। बाद में कोलंबस की गलतफहमी दूर हुई और उसे पता चला कि यह इंडिया (भारत) नहीं है, लेकिन वहां के मूल रहवासियों को दिया गया नाम 'इंडियन्स' वैसे ही चलता रहा। पहले उन्हें 'रेड इंडियन्स' कहा जाता था। आज 'अमेरिकन इंडियन्स  (या नेटिव अमेरिकन्स) कहा जाता है। 

ये हैं मूल निवासी

1492 में जब सबसे पहले कोलंबस के साथ यूरोपियंस वहां पहुंचे, तब वहां के मूल निवासी यानी अमेरिकन इंडियंस की संख्या हेनरी डोबीन्स (Henry F Dobyns) के अनुसार 1 करोड़ 80 लाख थी। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात के अनुसार आज यह संख्या 15 करोड़ के लगभग होना चाहिए थी, लेकिन पिछले चार सौ-पांच सौ वर्षों में अमेरिका में बसने आए अंग्रेज, फ्रेंच, स्पेनिश आदि यूरोपियंस ने इन मूल निवासियों पर जबरदस्त अत्याचार किए। उनका वंशच्छेद किया। कई फैलने वाली बीमारियां इन 'इंडियंस' के बीच लाई गई इनके कारण बड़ी संख्या में ये अमेरिकी इंडियंस चल बसे। इन सबके कारण 2010 की अमेरिकी जनगणना के अनुसार इन मूल निवासियों की संख्या अब 55 लाख है, जो अमेरिकी जनसंख्या की 1.67 प्रतिशत मात्र है। 

ये हैं अमेरिका के मूल निवासी

ऑस्ट्रेलिया में सर्वप्रथम 1770 में ब्रिटिश सेना का लेफ्टिनेंट जेम्स कुक पहुंचा। तब ब्रिटिश सरकार अपने कैदियों को रखने के लिए एक बड़ा सा द्वीप खोज रही थी। जेम्स कुक और उसके साथी जोसेफ बैंक्स के कहने पर ब्रिटिश सरकार ने ऑस्ट्रेलिया को चुना। 13 मई 1787 को 11 जहाजों में भरकर डेढ़ हजार से ज्यादा अंग्रेज इस द्वीप पर पहुंचे। इनमें 737 कैदी थे। यही ऑस्ट्रेलिया में उपनिवेशवाद की यह शुरुआत थी। उस समय ऑस्ट्रेलिया में जो मूल निवासी रहते थे वे दो प्रमुख समूहों में थे। उनके नाम भी इन अंग्रेजों ने ही रखे। वे थे Torres Strait Islanders और Aboriginal. दोनों को मिलकर उन दिनों उनकी कुल संख्या दस लाख से ज्यादा थी। जनसंख्या वृ​द्धि के अनुपात के अनुसार आज वह साठ लाख से ज्यादा होने चाहिए थे, लेकिन 2016 की जनगणना के अनुसार यह मात्र 7 लाख 90 हजार हैं, जो ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या का 3.3 प्रतिशत है।

जबरदस्ती 'सिविलियन' बनाने की नीति

ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों की संख्या इतनी कम कैसे हुई...? मतलब, वही जो अमेरिका में हुआ। इन मूल निवासियों का बर्बरता से किया गया नरसंहार और बाहर के देशों से आए हुए अनेक रोगों के कारण मूल निवासियों की स्वाभाविक दिखने वाली मृत्यु। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों में मूल निवासियों की हालत खराब थी। इन यूरोपियंस ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा था। अमेरिका ने उन्हें 'सिविलियन' बनाने की ठानी। पहले राष्ट्राध्यक्ष जॉर्ज वॉशिंगटन के जमाने से इन मूल निवासियों यानी 'अमेरिकन इंडियन्स' को जबरदस्ती 'सिविलियन' बनाने की नीति आज तक जारी है। इन सारे मूल निवासियों को इन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने जड़ों से तोड़ा है। वे कहीं के नहीं बचे हैं। अनेक अमेरिकी मूल निवासी आज गरीबी रेखा के अंदर आते हैं। 

ऐसे ही उपेक्षित लोगों के लिए है 'मूल निवासी दिवस'...

  • भला भारत में इस दिवस का क्या औचित्य? यहां तो हम सभी मूल निवासी हैं। हां, मुस्लिम आक्रांता जरूर आए थे बाहर से। ईरान (पर्शिया), इराक, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, किर्गिस्तान, उजबेकिस्तान... आदि देशों से। तो संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार चलें तो इन आक्रांताओं को छोड़कर भारत में सभी मूल निवासी हैं। 
  • बाहर से आए तो अंग्रेज भी थे, लेकिन 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद वे भारत छोड़कर चले गए। 
  • तो फिर भारत में इस 'विश्व मूल निवासी दिवस' का औचित्य नहीं होना चाहिए। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के मूल निवासियों के हक के प्रति सहानुभूति और समर्थन इतनी सीमित भूमिका हमारी होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 
  • आज कल अपने देश में भी यह दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ है। अनेक राज्य इसे 'आदिवासी दिवस' के रूप में मनाते हैं। 
  • छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे राज्य भी 9 अगस्त को ऐच्छिक अवकाश घोषित करते थे। 

यह सब कैसे हो गया...?

इसका उत्तर है वामपंथियों की एक सोची समझी रणनीति। अब इसमें वामपंथ कहां से आया? दरअसल, वामपंथ की मूल सोच है कि समाज में वर्ग संघर्ष खड़ा हो। प्रस्थापित व्यवस्था के विरोध में संघर्ष निर्माण किया जाए। इस संघर्ष से अराजकता फैलेगी और अराजकता में ही क्रांति के बीज होते हैं इसलिए इसमें से सर्वहारा क्रांति होगी। यानी वर्ग संघर्ष के लिए 'मूल निवासी दिवस' एक अच्छा साधन है। इसका पूरा फायदा वामपंथी विचारकों ने उठाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 'मूल निवासी दिवस' की घोषणा होने के बाद अपने देश में 'आदिवासी ही इस देश के असली (मूल) नागरिक हैं और बाकी सारे बाहर से आए हैं.. यह विमर्श चल पड़ा। आर्य बाहर से आए...यह सिद्धांत तो प्रस्थापित था ही, जो शालाओं में भी पढ़ाया जाता था। यह सिद्धांत अंग्रेजों ने बनाया था। उन्होंने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों में जाकर वहां के मूल निवासियों को भगाकर या मारकर अपना साम्राज्य प्रस्थापित किया था, इसलिए 'भारत में भी सारे बाहर से ही आएं हैं तो अंग्रेजों के आने से कोई फर्क नहीं पड़ता' यह उस सिद्धांत का आधार था, लेकिन स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हमारे वामपंथी विचारकों द्वारा इस प्रकार का विमर्श खड़ा करना, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था। आज से नौ वर्ष पहले यानी 12 जनवरी 2011 को 'द हिन्दू' अंग्रेजी समाचार पत्र में एक आलेख छपा, 'India, largely a country of immigrants'. इसमें कहा गया कि 'If North America is predominantly made up of new immigrants, India is largely a country of old immigrants'. इसमें जोर देकर प्रतिपादित किया गया कि इस देश के मूल निवासी तो केवल आदिवासी ही हैं, जो 8% हैं, बाकी सारे 92 प्रतिशत लोग बाहर से आए हुए हैं। These facts lend support to the view that about 92 percent of the people living in India are descendants of immigrants.'

इस बात का आधार क्या है...? 

अंग्रेजों की लिखी हुई The Cambridge History of India (Volume 1) का उद्धरण इस आलेख के लिए लिया गया है... इससे बड़ा व्यंग क्या हो सकता है? ऐसे अनेक आलेख पिछले कुछ वर्षों में सामने आए हैं। 'आर्य बाहर से आए' यह विमर्श अब गलत साबित हुआ है। सारे तथ्य, प्रमाण और DNA जांच से यह सिद्ध हुआ है कि हम सब इसी भारत देश के मूल निवासी हैं। इसके ठीक विपरीत, OIT (Out ऑफ India Theory) की मान्यता बढ़ रही है। इस सिद्धांत के अनुसार भारत जैसे संपन्न देश से कुछ समुदाय भारत से बाहर स्थानांतरित हुए हैं। केल्टिक समुदाय, येजीदी समुदाय इनके उदाहरण हैं। कोनराड ईस्ट जैसे विचारकों ने इसे प्रतिपादित किया है। संयुक्त राष्ट्र लगभग पांच सौ से एक हजार वर्षों में जिन देशों में बाहर से आए लोगों ने सत्ता और शासन प्राप्त किया है, उन्हीं देशों के मूल निवासियों को यह 'मूल निवासी' का दर्जा दे रहा है, लेकिन अपने देश में तो वेद/उपनिषद/पुराण कई हजार वर्ष पहले के हैं। सारे उदाहरण, सारे प्रमाण, सारे तथ्य कम से कम सात/आठ हजार वर्षों तक के इतिहास तक हमें पहुंचाते हैं। यानी मुस्लिम आक्रांताओं का अपवाद छोड़ा तो हम सभी मूल निवासी हैं। 

ऐसा समाज वंचित, शोषित कैसे ?

जिन्हें 'आदिवासी' कहा जाता है वे 'आदिम युग' में जीने वाले आदिवासी नहीं हैं, अपितु वनों में, ग्रामों में रहने वाले 'वनवासी' हैं। ये अत्यंत प्रगत और प्रगल्भ समाज है। इनका जल व्यवस्थापन, इनका समाज जीवन, इनका पर्यावरण के साथ जीना...सभी अद्भुत है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले हमारे गोंडवाना की वनवासी रानी दुर्गावती, बंदूक चलाने में माहिर थीं। ऐसा समाज वंचित, शोषित कैसे हो सकता है? इसलिए मूल निवासियों के मामले में हमारी तुलना अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ करना गलत और अन्यायपूर्ण है। 

एक गहरी साजिश के तहत भारत में 'मूल निवासी दिवस' को 'आदिवासी दिवस' बनाया गया है। यह देश की एकता तोड़ने वाला कृत्य है। इसे पूरी ताकत लगाकर रोकना चाहिए। भारत में हम सभी मूल निवासी हैं, यही सत्य है और यही भाव होना चाहिए।  

(लेखक राष्ट्रीय चिंतक हैं।)

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