नेहरू-एडविना प्रेम-कथा: वह बातें जो आप नहीं जानते होंगे

नेहरू व एडविना की ‘लव-स्टोरी’ को समझने के लिए अनेक पुराने प्रसंगों का सहारा लिया गया है। कई देसी-विदेशी पुस्तकों का निहारा गया है और नेहरू व एडविना से जुड़े विशेष लोगों के कथनों को भी परखा है। फोकस यह रहा है कि आखिर उनके संबंध किस तरह परवान चढ़े।

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Dr Rameshwar Dayal
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NEW DELHI: भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जीवन खुली किताब की तरह है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर देश-विदेश में बहुत कुछ देखा-सुना-लिखा गया, जिससे पता चलता है कि देश को आजाद कराने के आंदोलन में उनकी भूमिका कितनी कारगर थी। नेहरू के जीवन का एक और पक्ष है, वह है एडविना माउंटबेटन के साथ उनके प्रेम संबंध। भारत के अंतिम ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के पत्नी एडविना के प्रेम को लेकर कई ‘कथाएं’ मशहूर हैं, जिनको लेकर उनके मुरीदों और आलोचकों ने अलग-अलग अर्थ निकाले हैं। यह अलग बात है कि नेहरू से बेहद प्रभावित पामेला (एडविना की बेटी) ने इस प्रेम को ‘स्प्रिचुअल रिलेशन’ माना था। हम इस ‘परिकथा जैसी प्रेमकथा’ की आपको फुलप्रूफ जानकारी देंगे। हम आपको यह बताएंगे कि नेहरू का पारिवारिक जीवन कैसा था, उनकी प्रेमकथा कैसे उपजी और वह कहां तक पहुंची।

नेहरू व एडविना माउंटबेटन की ‘लव-स्टोरी’ की असलियत समझने के लिए हमने खासी मेहनत की है। अनेक पुराने प्रसंगों का सहारा लिया गया है। कई देसी-विदेशी पुस्तकों का निहारा गया है और नेहरू व एडविना से जुड़े विशेष लोगों के कथनों को भी परखा है। इस कहानी में नेहरू के राजनैतिक जीवन को छूकर हम आगे निकल गए हैं। फोकस यह रहा है कि आखिर नेहरू व भारत के आखिरी वायसराय की पत्नी से उनके संबंध किस तरह परवान चढ़े। हम इस बात की भी जांच करेंगे कि बचपन से ही बेहद पश्चिमी रंग-ढंग में रचे-बसे नेहरू क्या अपने पारंपरिक विवाह से उपजी त्रासदी को ‘फिरंगी प्रेम’ के जरिए कम करना चाहते थे। वैसे तथ्य यह है कि एडविना के प्रेम ने नेहरू को गति व ऊर्जा दी, दुनिया को अलग तरीके से समझने की प्रेरणा दी, साथ ही उन्हें यह साहस भी दिया कि भव-बाधाओं को किस तरह कूल बनाए रखना है।

नेहरू का अंग्रेजी परिवेश और कमला के संस्कारी भाव

पंडित नेहरू का 8 फरवरी 1916 को कमला नेहरू से विवाह हुआ था, तब वह (कमला कौल) मात्र 17 साल की थीं। नेहरू उनसे दस साल बड़े थे। कमला का कश्मीरी ब्राह्मण परिवार पुरानी दिल्ली में रहता था। इंग्लैड में रहने वाली जानी-मानी अमेरिकी जीवनी लेखिका कैथरिन फ्रेंक ने अपनी पुस्तक 'Indira: The Life of Indira Nehru Gandhi’ में लिखा है कि दिल्ली के परंपरावादी हिंदू ब्राह्मण परिवार से सम्बंध रखने के कारण हिंदू संस्कार कमला नेहरू के चरित्र का एक प्रमुख हिस्सा थे लेकिन पश्चिमी परिवेश वाले नेहरू खानदान में उन्हें एकदम विपरीत माहौल मिला, जिसमें वह खुद को अलग थलग महसूस करती रहीं। यह पुस्तक खासी विवादास्पद रही है। वैसे कई अन्य लेखकों ने भी इस बात की तस्दीक की है कि कमला नेहरू की धार्मिक भावनाओं को नेहरू खानदान में समझा नहीं गया और वह सदैव उस परिवार में खुद को अजनबी महसूस करती रहीं। लेकिन तथ्य यह भी बताते हैं कि इतना सब होने के बावजूद कमला नेहरू ने आजादी की लड़ाई में पंडित नेहरू का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया। माना जाता है कि आजादी की लड़ाई ने कमला को अपनी क्षमता दिखाने का अवसर दिया। 

कमला की मृत्यु और नेहरू की श्रद्धांजलि

आजादी के आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने कमला को दो बार गिरफ़्तार भी किया। उन्होंने महात्मा गांधी की ऐतिहासिक दांडी यात्रा में भी भाग लिया। 28 फरवरी 1936 को स्विटजरलैंड में कमला नेहरू की बेहद कम उम्र (37 वर्ष) में टीबी से मृत्यु हो गयी। टीबी उस समय बेहद गंभीर बीमारी मानी जाती थी। पंडित नेहरू की सबसे छोटी बहन कृष्णा नेहरू हुथीसिंग (Krishna Hutheesing) ने अपनी पुस्तक Dear to Behold: An Intimate Portrait of Indira Gandhi में लिखा है कि जवाहर के लिए कमला सांत्वना का स्रोत थी और उन्होंने नेहरू को कभी पता नहीं चलने दिया कि वह कितनी बीमार हो गई थी और उन्हें उनकी कितनी जरूरत थी। वह हमेशा आशावादी थीं और जब भी वह जवाहर के करीब होती थीं, तो उन्हें शांत करती थीं और चिंता और मोहभंग के क्षण में उनमें नया साहस भरती थीं। कमला की असामयिक मौत पर नेहरू अवसाद, अपराधबोध व निराशा से भर गए थे, जिससे उबरने में उन्हें सालों लगे। अपनी आत्मकथा (An Autobiography) में नेहरू ने कमला का जिक्र करते हुए कहा, मैंने उसे लगभग नजरअंदाज कर दिया था। उन्होंने यह भी लिखा कि मैंने ऐसा महसूस किया कि मुझमें कुछ नहीं रह गया है और मैं बिना किसी मकसद का हो गया हूं। नेहरू के करीबी अनुमान लगाते हैं कि उनका यह निराशावाद सालों बाद एडविना से मिलकर आशावाद व उमंग से भर गया। 

एडविना से नेहरू की पहली मुलाकात

नेहरू और एडविना की मुलाकात भारत आने से पहले दूसरे देश में हो चुकी थी और यह मुलाकात एक ‘दुर्घटनावश’ थी। ब्रिटिश लेखक, इतिहासकार व पत्रकार एंड्रयू लोनी (Andrew Lownie) ने अपनी पुस्तक The Mountbattens: Their Lives and Loves में जानकारी दी है कि वर्ष 1946 में नेहरू सिंगापुर में वहां के नामी भारतीयों से मिलने गए, तब वहां लॉर्ड माउंटबेटन दक्षिण पूर्व एशिया कमांड से जुड़े थे। अंग्रेज अधिकारी नेहरू की भारतीयों से मुलाकात के इच्छुक नहीं थे, लेकिन माउंटबेटन को यह भान हो चुका था कि नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं, इसलिए वह खुद उन्हें एयरपोर्ट पहुंचे और उन्हें मुलाकात सेंटर पर लेकर आए। वहां एडविना माउंटबेटन भी मौजूद थी। नेहरू के पहुंचते ही वहां भगदड़ मच गई, जिससे एडविना गिर गई। नेहरू ने उन्हें देखा और किसी तरह भीड़ से बचाया। उस रात उन सबने एक-साथ डिनर किया और एक-दूसरे से खुलकर बातचीत की। लेखक के अनुसार यह यह एक असामान्य मुलाकात थी, जो बाद में एक खास रिश्ते में बदल गई।  

भारत कब और किसके लिए आई एडविना

ब्रिटेन की महारानी ने लॉर्ड माउंटबेटन को फरवरी 1947 में भारत का वायसराय और गवर्नर-जनरल नियुक्त किया। अगले माह मार्च (वसंत) में वह पत्नी एडविना माउंटबेटन के साथ भारत आ गए। उस वक्त के दस्तावेज बताते हैं कि युवा ‘वाइसराइन’ को पहले ही भारत से ‘प्यार’ हो गया था। असल में वह समाज सेवा के रूप में भी काम कर रही थीं और इसके लिए भारत उन्हें आकर्षित कर रहा था। इसी दौरान माउंटबेटन परिवार की नेहरू समेत अन्य भारतीय नेताओं से लगातार मुलाकात चलती रहीं। इसी दौरान लेडी माउंटबेटन और नेहरू में विचारों का आदान-प्रदान हुआ और वह उनकी ओर आकर्षित हो गई। माउंटबेटन की बेटी पामेला हिक्स ने अपनी किताब  Daughter of Empire: Life as a Mountbatten मे जानकारी दी है कि मेरी मां अकेलेपन की शिकार थीं। तभी उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जो संवेदनशील, आकर्षक, सुसंस्कृत और बेहद मनमोहक था। शायद यही वजह थी कि वो उनके प्यार में डूब गई। नेहरू भी एडविना से बेहद गहराई से जुड़े।

ऐसे डूबे प्यार में: पामेला

बताते हैं कि मई 1947 में माउंटबेटन परिवार ने नेहरू को ‘अनौपचारिक वीकेंड’ के लिए शिमला के मशोबरा हिल में आमंत्रित किया। इस दौरान उनके बीच खुलकर बातचीत हुई जो लगातार ‘अपनेपन’ में प्रगाढ़ होती रही। पामेला हिक्स कहती हैं  कि नेहरू की पत्नी की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थीं। उनकी बेटी इंदिरा शादी-शुदा थीं। उनके दो बच्चे थे और वो उन दिनों दिल्ली से बाहर रहती थीं। नेहरू ने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को राजदूत के रूप में मॉस्को भेज दिया था। तभी उनकी मुलाकात एक बहुत ही आकर्षक महिला (उनकी मां) से होती है। दोनों के बीच एक तरह की चिंगारी पैदा होती है और दोनों एक दूसरे के प्यार में डूब जाते हैं। वैसे नेहरू और एडविना का यह अपनापन खास लोगों से नहीं छुप पाया। भारतीय ब्रिटिश उपन्यासकार सलमान रुश्दी के चाचा सैयद शाहिद हमीद ने 31 मार्च, 1947 को अपनी डायरी में लिखा था, कि ‘माउंटबेटन दंपत्ति के भारत पहुंचने के 10 दिनों के भीतर ही एडविना और नेहरू की नज़दीकियों पर भौंहें उठना शुरू हो गई हैं।’ हमीद ने कई किताबें भी लिखी थी। भारत विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे और वहां की आर्मी में आला अफसर रहे।

यह प्रेम था या क्या था?

भारत के आमजन को उस दौर में नेहरू-एडविना के अपनत्व की विशेष जानकारी न हो, लेकिन सत्ता और राजनीति के गलियारे में उनके चर्चे-आम थे। उनके इस संबंध को समझने के लिए हमें एक बार फिर से बेटी पामेला हिक्स की किताब की ओर जाना होगा। उन्होंने लिखा कि नेहरू और एडविना के बीच आध्यात्मिक और बौद्धिक रिश्ता था। नेहरू के रूप में उनकी मां एडविना को ऐसा साथी मिला, जिससे उन्हें शांति मिलती थी। उनकी मां ने नेहरू में भावनात्मक लगाव पाया। दोनों एक दूसरे के अकेलेपन को दूर करने में मदद करते थे। पामेला का यह भी कहना था कि एडविना और नेहरू प्यार में थे लेकिन उनके बीच शारीरिक संबंध नहीं थे। उनके बीच जो भावनात्मक और गहरा रिश्ता था, वह आम आदमी की समझ से परे था। उनके बीच ‘स्प्रिचुअल रिलेशन’ थे। दोनों दो शरीर एक आत्मा की तरह थे। पामेला खुद नेहरू से प्रभावित थी। उन्होंने लिखा जब नेहरू ने पहली बार मुझसे हाथ मिलाया था मैं तभी से उनकी आवाज, कपड़े पहनने के तरीके, सफेद शेरवानी और उसके बटनहोल में लगे लाल गुलाब और उनकी गर्मजोशी की मुरीद हो गई थी।

इस प्रेम को देसी-विदेशी लेखकों ने कैसे देखा

अमेरिकी लेखक स्टैनली ए वॉलपर्ट ने नेहरू की जीवनी पर लिखी पुस्तक Nehru- A Tryst with Destiny में लिखते हैं कि उन्होंने एक बार नेहरू और एडविना को ललित कला अकादमी के उद्घाटन समारोह में देखा था। मुझे ये देख कर आश्चर्य हुआ था कि नेहरू को सबके सामने एडविना को छूने, उनका हाथ पकड़ने और उनके कान में फुसफुसाने से कोई परहेज़ नहीं था। माउंटबेटन के नाती लॉर्ड रेम्सी ने एक बार मुझसे कहा था कि उन दोनों के बीच महज अच्छी दोस्ती थी, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। लेकिन खुद लॉर्ड माउंटबेटन एडविना को लिखी नेहरू की चिट्ठियों को 'प्रेम पत्र' कहा करते थे। उनसे ज्यादा किसी को ये अंदाज़ा नहीं था कि एडविना किस हद तक अपने 'जवाहा' को चाहती थीं। दूसरी ओर भारतीय लेखक व राजनीतिज्ञ एमजे अकबर ने नेहरू की जीवनी पर लिखी पुस्तक Nehru-The Making of India में जानकारी दी है कि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल सर होमी मोदी (वर्ष 1949 से 1952, टाटा ग्रुप के बड़े कारोबारी भी) थे। सर मोदी के बेटे रूसी मोदी ने उन्हें बताया था कि उस दौरान नेहरू नैनीताल आए हुए थे और राज्यपाल मोदी के साथ ठहरे थे। जब रात के 8 बजे तो सर मोदी ने अपने बेटे (रूसी मोदी) से कहा कि वो नेहरू के शयन कक्ष में जा कर उन्हें बताएं कि मेज पर खाना लग चुका है और सबको आपका इंतज़ार है। जब रूसी मोदी ने नेहरू के शयनकक्ष का दरवाज़ा खोला तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एडविना को अपनी बाहों में भरा हुआ था। नेहरू की आंखें मोदी से मिलीं और उन्होंने अजीब सा मुंह बनाया। मोदी ने झटपट दरवाज़ा बंद किया और बाहर आ गए। थोड़ी देर बाद पहले नेहरू खाने की मेज पर पहुंचे और उनके पीछे-पीछे एडविना भी वहां पहुंच गईं।

लगातार चर्चा में रहे नेहरू-एडविना

जब तक एडविना भारत में रही, सत्ता के गलियारों में नेहरू और उनके प्रेम-प्रसंग दबी जुबान में उभरते रहे। ऊचें पद पर बैठे लोगों को इन रिश्तों की पूरी जानकारी थी। इस मसले पर उस वक्त क्या माहौल था, उसकी जानकारी मुस्लिम स्कॉलर व आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद की किताब India Wins Freedom में झलकती है। किताब में कहा गया है कि नेहरू माउंटबेटन से तो मुतासिर हैं ही, लेकिन उससे कहीं ज्यादा वो लेडी माउंटबेटन से मुतासिर हैं। विशेष बात यह है कि नेटफ्लिक्स (OTT) पर पिछले साल प्रसारित ब्रिटेन राजघराने पर बनी लोकप्रिय सीरीज ‘द क्राउन’ में भी इन संबंधों को कुरेदा गया है। इस ऐतिहासिक सीरीज में महारानी एलिजाबेथ के जीवन से लेकर उनके शासनकाल तक के जीवन का वर्णन है और राजघरानों के निजी जीवन को भी दिखाया गया है। सीरीज के दूसरे सीजन में लॉर्ड माउंटबेटन अपनी पत्नी के जवाहर लाल नेहरू के साथ संबंध को महारानी एलिजाबेथ के सामने स्वीकार करते दिखाए गए हैं। दूसरी ओर ब्रिटिश इतिहासकार व लेखक एलेक्स वॉन ट्यून्ज़ेलमैन ने अपनी किताब Indian Summer: The Secret History of the End of an Empire ने भी विस्तार से इस रिश्ते और भारत पर उसके असर की जानकारी दी है। उनका कहना है कि जो तस्वीर उभरती है वह गहरे प्रेम और सम्मान के रिश्ते की है और जिसने इस बात पर अमिट छाप छोड़ी कि स्वतंत्र भारत ने कैसे आकार लिया। इस पुस्तक में भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत और विभाजन के परिणामों की गहनता से जानकारी दी गई है, साथ ही प्रेम, इतिहास, धर्म और राजनीतिक साजिश का भी बखूबी वर्णन किया गया है।

एडविना की विदाई और वह मार्मिक क्षण

जून 1948 में गवर्नर-जनरल के रूप में माउंटबेटन का कार्यकाल समाप्त हुआ। उनके लिए नेहरू ने विदाई भोज आयोजित किया। इस अवसर पर उन्होंने माउंटबेटन की प्रशंसा तो की ही, साथ ही एडविना को परी, आकर्षक व महान महिला बताया। नेहरू व एडविना की विदाई को मशहूर फ्रांसीसी लेखिका कैथरीन क्लैमां ने अपनी उपन्यास शैली में लिखी किताब 'Edwina and Nehru' में गजब उकेरा है। गवर्नर जनरल के महल की गुलाब वाटिका। विदाई के दिन करीब आ गए। एडविना ने चुपके से अपनी घड़ी पर नजर डाली। आंखों में उमड़ते आंसुओं को वो जबरन पी गईं। अचानक नेहरू पर नजर गई तो वे आंखें पोछ रहे थे। एडविना ने उनकी आंखों में आंखें डाल दीं। नेहरू ने पूछा, 'तुम लौटोगी मेरी डी' (नेहरू एडविना को डी कहकर संबोधित करते थे) 'बरसात के बाद', जवाब मिला। एडविना इतनी सुंदर कभी नहीं लगी थीं। नेहरू मंत्रमुग्ध से उन्हें देखे जा रहे थे। एक घंटे बाद पालम हवाई अड्डे से एडविना और लार्ड लुई का विमान उन्हें लेकर उड़ चला। एडविना उदास थीं।

खतों का आदान-प्रदान

दस्तावेज बताते हैं कि ब्रिटेन लौटने के बाद एडविना और नेहरू में खतों जरिए संपर्क बना रहा। पंडित नेहरू रोज एडविना को खत लिखते थे और वहां से भी पत्र लिखकर नेहरू तक पहुंचाए जाते थे। भारत के जाने-माने पत्रकार व ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर रहे कुलदीप नैयर के अनुसार जब वह ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे तब उनको पता चला कि एयर इंडिया की फ्लाइट से नेहरू रोजाना एडविना को पत्र भेजा करते थे। एडविना उसका जवाब देती थीं और उच्चायोग का आदमी उन पत्रों को एयर इंडिया के विमान तक पहुंचाया करता था। नेहरू हमेशा देर रात एडविना को पत्र लिखते थे। उनके पत्र चाहे कितने ही संयम से क्यों न लिखे गए हों हमेशा एडविना को मुग्ध कर देते थे। लेकिन जब कभी पत्र नहीं आते तो दिन फीका लगने लगता। पंडित नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई को भी ब्रिटेन से आने वाली खतों की जानकारी थी। अपनी पुस्तक Reminiscences of the Nehru Age में उन्होंने जानकारी दी है कि लेडी माउंटबेटन के जो भी पत्र आते थे, उसमें लिफाफे पर पर्सनल, सीक्रेट, कांफिडेंशियल लिखा होता था। इन पत्रों को नेहरू ही खोलते थे। एक बार गलती से किसी असिस्टेंट ने उसे खोल लिया। इस पर नेहरू नाराज भी हुए लेकिन उन्हें विश्वास दिलाया गया कि ऐसा दोबारा नहीं होगा। एडविना की बेटी पामेला हिक्स के अनुसार नेहरू द्वारा अपनी मां को लिखे पत्र पढ़ने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि वे दोनों किस कदर एक-दूसरे से प्रेम और सम्मान करते थे।

मुलाकातें भी लगातार चलती रहीं

एडविना ‘सात समुद्रपार’ जा चुकी थी और पंडित नेहरू भारत को संवारने में जुटे हुए थे। इसके बावजूद जब अवसर मिला, दोनों में मुलाकात भी हो जाती थीं। इसके लिए नेहरू ने लंदन की यात्रा की तो एडविना अपनी बेटी पामेला के साथ भारत आईं। इस मसले पर लंबे समय तक नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय, नई दिल्ली से जुड़े लेखक ओपी रल्हन ने अपनी किताब Jawaharlal Nehru Abroad: A Chronological Study में जानकारी दी है कि 21 मार्च 1949 को जब जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन में भाग लेने लंदन गए तो हीथ्रो हवाई अड्डे पर उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने उनका स्वागत किया और अपनी रॉल्स रॉयस में बैठाकर एडविना माउंटबेटन के घर ले गए।  रल्हन आगे लिखते हैं कि अगले दिन नेहरू ने जार्ज पंचम के साथ दिन का भोजन किया और दोपहर बाद प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली से मिले। फिर एडविना उन्हें अपनी कार में बैठाकर अपने घर 'ब्रॉडलैंड्स' ले गईं जहां उन्होंने सप्ताहांत बिताया। इस बीच एडविना अपनी बेटी पामेला के साथ भारत आईं। गुलाम भारत में एडविना आज के राष्ट्रपति भवन में ठहरती थीं। लेकिन इस बार उन्हें वहां नहीं ठहराया गया। पंडित नेहरू की रजामंदी थी कि दोनों को उनके सरकारी आवास तीन मूर्ति भवन में ठहराया जाए। पहली बार एडविना नेहरू आवास में रुकीं। नेहरू उन्हें अपने बचपन का शहर इलाहाबाद दिखाने भी ले गए थे। दस्तावेज बताते हैं कि भारत छोड़ने के बाद भी वो दोनों साल-भर में एक-दो बार मिल लेते थे।

एडविना की मृत्यु और संसद में शोक प्रस्ताव

बीमारी के चलते करीब 58 साल की उम्र में 21 फरवरी 1960 को एडविना की मौत हो गई। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी (इंग्लैंड) में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर रही जेनेट मॉर्गन ने एडविना की जीवनी Edwina Mountbatten: A Life of Her Own में लिखा है कि एडविना का बोर्नियो में गहरी नींद में ही निधन हो गया। सोने से पहले वो नेहरू के पत्रों को दोबारा पढ़ रही थीं, जो उनके हाथ से छिटक कर ज़मीन पर गिरे पाए गए थे। विशेष बात यह है कि संसद में पंडित नेहरू की अगुवाई में एडविना की मौत पर श्रद्धांजलि दी गई, जिसे उसे वक्त अभूतपूर्व माना गया। संसद शुरू होने से पहले एडविना की याद में दो मिनट का मौन रखा गया। उनकी मौत पर भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने लॉर्ड माउंटबेटन को शोक संदेश भेजा था, जिसमें कहा गया था कि एडविना भारत की एक महान मित्र थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता को गति देने में अग्रणी भूमिका निभाई। बताते हैं कि एडविना की मौत के बाद नेहरू काफी ‘शांत’ हो गए थे। इसी दौरान चीन से युद्ध में हार पंडित नेहरू को बुरी तरह तोड़ा दिया था। उनका स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ने लगा। 27 मई 1964 को बेहोशी की हालत में नेहरू ने प्राण त्याग दिए। ये दोनों प्रतिष्ठित आत्माएं काल के गाल में तो समा गईं लेकिन इनकी यादें आज भी कायम हैं।

 

जवाहर लाल नेहरू संसद खत शोक प्रस्ताव शिमला कमला नेहरू द क्राउन लॉर्ड माउंटबेटन वायसराय एडविना