वैसे तो प्रकाश पर्व के उत्सव का रंग हर ओर बिखर रहा है, लेकिन दिवाली के त्योहार का उत्सव मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के स्मरण के बिना अधूरा ही रहता है। अब जबकि दीपोत्सव का प्रकाश सबको ज्योतिर्मय कर रहा है तो हम भी सनातन संस्कृति और जनआस्था के केंद्र श्रीराम को याद करते हैं। दिवाली के इस महापर्व को देशभर में अलग-अलग अंदाज में मनाया जाता है और अलग-अलग संस्कृति, रीति-रिवाज और लोकरंग के उत्सव दिखते हैं। मर्यादापुरुषोत्तम राम की अयोध्या वापसी के इस उत्सव को आज भी लोग उतने ही उल्लास से मनाते आ रहे हैं।
दीपोत्सव का यह उल्लास अवध की अयोध्या के साथ ही बुंदेलखंड के ओरछा और विंध्य की चित्रकूट नगरी में अलग ही नजर आता है। प्रभु श्रीराम के इन तीन धामों में दिवाली का अहसास ही कुछ खास होता है। अवध से लेकर विंध्य-बुंदेलखंड में श्रीराम के चरित्र की कथाएं और जनश्रुतियां अनूठे अंदाज में सुनाई जाती हैं। श्रीराम के तीन प्रमुख स्थान और वहां पूजे जाने वाले स्वरूपों की क्या कहानियां हैं, पढ़िए द सूत्र की यह खास रिपोर्ट।
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अवध के कण-कण में समाए हैं रामलला
अवध के रामलला यानी सनातन संस्कृति का केंद्र बिंदु। पूरे देश की संस्कृति ही राम चरित्र पर आधारित है। अयोध्या में श्रीराम को बालरूप में पूजा जाता है। शायद ही अवध का कोई कोना हो जहां उन्हें रामलला न कहा जाता हो। रामलला शब्द की ध्वनि कान में पहुंचते ही लोग श्रद्धावनत हो जाते हैं। सरयू की कल-कल तरंगें हो या सर-सर बहती हवां पूरे अवध के लिए राम वही 'लला' हैं जिनके हाथ से काग यानी कौआ माखन-रोटी ले उड़ा था। रामलला को याद करते हुए आज भी महिलाएं-युवतियां ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां गीत गुनगुना उठती हैं। ये गीत श्रीराम की बाल्यावस्था का दृश्य साकार कर दते हैं जिसमें वे ठुमक-ठुमक चलते हैं और पांव में पायल छम-छम करती है।
अवध में लोग राम को ईश्वर, महापुरुष, राजा-महाराजा से कहीं ज्यादा बालरूप में ही देखते-पूजते हैं। उनके प्रति वैसी ही आस्था भी रखते हैं। अयोध्या में राममंदिर में विराजित विग्रह में भी बालरूप राम की सौम्य, सुकोमल, सुघर छबि मनमोह लेती है। भले ही प्रभुराम का अयोध्या में राजतिलक हुआ हो लेकिन जनआस्था उनके बालरूप में ही है।
वनवासी राम की तपोस्थली बन गया चित्रकूट
वनवास के बाद रामजी, माता सीता और लक्ष्मणजी के साथ अवध छोड़कर जंगल की ओर निकल गए थे। राजकुमार का वैभव छोड़कर राम विंध्य अंचल के चित्रकूट में ठहरे थे। यहां पहली बार राजकुमार राम को वनवासी राम के रूप में लोगों ने देखा था। चित्रकूट में कामतानाथ से लेकर गुप्त गोदावरी और हनुमानधारा की पहाड़ी तक जहां भी श्रद्धालु नजर आते हैं वे राम के वनवास, उनके सहज-सरल चरित्र की गाथा में डूबे नजर आते हैं। यहीं मंदाकनी नदी के घाट पर श्रीराम ने पितृपक्ष में तर्पण किया था।
अब इसी रामघाट पर पितृपक्ष में वैसे ही भीड़ होती है जैसी भीड़ गया में होती है। केवल वेशभूषा और स्वरूप से ही नहीं बल्कि राम-सीता और लक्ष्मण ने वनवासी जीवन को आत्मसात भी किया था। वे वनवास के साढ़े 11 साल श्रीराम चित्रकूट में रुके थे। चित्रकूट में राम को वनवासी के स्वरूप में पूजा जाता है। न केवल श्रद्धालुओं बल्कि स्थानीयजनों के मन में धनुर्धारी राम की वनवासी छवि ही समाई है।
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राजसी वैभव से सजता है रामराजा का दरबार
प्रभु राम ओरछा में राजसी वैभव के बीच विराजते हैं। रामराजा सरकार का दरबार वैसा ही है जैसे महाराजाओं का होता था। सुबह पट खुलने और बंद होने के समय रामराजा को सशस्त्र जवान बंदूकों से सलामी देते हैं। विवाह पंचमी में ठाठ-बाट के साथ वैसी ही बारात निकाली जाती है जैसे किसी राजकुंवर की निकलती है। भले ही राज्याभिषेक अयोध्या में हुआ हो लेकिन ओरछा जैसा राजसी वैभव शायद ही कहीं दिखे। ओरछा में प्रभु राम की छबि राजाराम सरकार की है। इसके पीछे भी आस्था से भरी कहानी है।
ओरछा के बुंदेला राजा की पत्नी गणेश कुंवर रामभक्त थीं। आस्था से प्रसन्न होकर प्रभु राम का विग्रह सरयू नदी में स्नान के दौरान उनके आंचल में आ गया था। जनश्रुति के अनुसार रानी गणेश कुंवर यहां से श्री राम के विग्रह को पैदल लेकर ओरछा आई थीं। मंदिर अधूरा था इसलिए विग्रह रसोई घर में रखा तो फिर वहीं स्थापित हो गया। तब से राम ही ओरछा के राजा हो गए। ओरछा के परकोटे के अंदर पीएम हों, सीएम हों या डीएम किसी को सलामी देने का चलन नहीं हैं, क्योंकि ओरछा में राजा एक ही है, रामराजा सरकार, जो दर्शन भी देते हैं और दरबार लगाकर जन सुनवाई भी करते हैं।
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