समीर शर्मा, इंदौर. मुझे अच्छे से याद है ये पीला लिफाफा, जिनका बचपन बिना मोबाइल के युग का है वे जानते हैं इसकी महक, रंग और अहमियत !... ये आता था तो घर वाले इसे मेहमान की तरह ट्रीट करते थे, इसे मोड़ना नहीं, ऊँची जगह पर रख दो, गीला ना हो जाए, महंगा हो गया है आदि- आदि!
इसमें पहले प्यारी सी चिट्ठी लिखकर धर दी जाती थी जिसने मामा के लिए प्यार, दुलार, साल भर ना आने की शिकायत , उनकी चिंता , ढेर सारा आशीर्वाद होता, आने का निमंत्रण होता , मामी के लिए सीख और अपने भाई को सेहत की हिदायत, मामा के बच्चों को खूब प्यार, फिर हम बच्चे भी एक या दो लाइन लिखते, मामा को बुलाने और मिठाई लेकर आने साथ ही अपने कजिन को भेज देने की गुहार और फिर इतनी भावनाओं का बड़ा समुद्र लेकर यह मेहमान ''लिफाफे जी'' निकलते थे लाल वाले पोस्ट बॉक्स की तरफ....
इसमें राखी होती थी, चावल, कुमकुम, हल्दी, राखी के फुंदे महिलाओं और बच्चों के लिए, बड़ों के लिए, लेकिन इसमें पैसे रखना मना था... पर बच्चों की मिठाई के लिए मां मोड़कर इसमें पैसे तो रख ही देती थी।
फिर इसकी पैकिंग ताकि कोई इसको खोल ना लें... इसके समोसे जैसे तिकोने किनारों पर लगा होता था बढ़िया क्वालिटी का गोंद जिसपर अपने मुंह से गीला करके चिपकाना किसी किसी की विशेष जिम्मेदारी होती थी और हां दबाना नहीं लिफाफे को नहीं तो राखी खराब हो सकती है। ... फिर घर के सबसे होनहार बच्चे जिनमें ज्यादातर लड़कियाँ /दीदी जिनके सुलेख ही पता लिखते थे आगे आते थे, पहले पता भी लंबा चौड़ा, घर तक पहुंचाने के लिए पेड़, चौराहा, पिन कोड (अपना और मामा का) जिसे डायरी में। स्व ढूंढ कर लिखना होता था, मकान मालिक, पड़ोसी सभी की डीटेल्स और फिर कोने के हिस्से में डिजाइनर तरीके से रक्षा बंधन लिखा होता था। लिफाफा तैयार करना ही हमारा उत्सव बना देता था।
इसको फिर लाल डब्बे यानी पोस्ट बॉक्स में डालना जो चौराहे पर या शहर/ कस्बों में 2 या 4 जगहों पीटी पता होता, टाइम के हिसाब से डाक कब निकलेगी तभी डालने की नसीहत होती थी, भूल गए तो डांट पक्की थी!... कुछ लोग डाकिये से सेटिंग करते थे जल्दी वाली डाक से जाने की, डाकिया (Postman) उन दिनों यूँ कहिए VIP से कम नहीं था !....
जितनी दूर मामा का घर उतने दिन पहले भेजनी पड़ती थी राखी, कैसे भी करके राखी से 2 दिन पहले मिल जाए उन्हें बस... फिर पीपी फोन पर रोज के तकादे राखी मिली या नहीं, राखी ना भेजना रिश्तों की समाप्ति का मासूम सा अहिंसक ऐलान था !
मौसी, मामा के यहां से हमारे लिए भी लिफाफे आते थे, बचपन में यही सबसे बड़े पार्सल थे.. जिनका इंतजार 1 साल का होता था। लिफाफे को खोलना भी हुनर था, बिना कटर के स्केल और चाकू से खोलने वाले भैया और दीदी लोग हो खोलते थे इन्हें।
खैर वो जमाना चला गया, वो लिफाफा, वो लाल डब्बा, वो राखी का बंधन सबसे बड़ी बात वो प्रेम ही अब दुर्लभ हो गया !
आपने भी भेजी या पाई होंगीं राखियाँ इस लिफाफे में !
बहुत याद आता है वो लेटर लिफाफा, पीला वाला...