NEW DELHI. समलैंगिक विवाह यानी पुरुष से पुरुष और महिला से महिला की शादी को कानूनी मान्यता दी जाए या नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच सुनवाई कर रही है। 18 सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील ने मुकुल रोहतगी ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट को सुझाव दिया कि अड़चनों से बचने के लिए कानून में पति और पत्नी की जगह जीवनसाथी यानी स्पाउस शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 14 के मुताबिक समानता के अधिकार की भी रक्षा होती रहेगी। वहीं, केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिकाओं को खारिज करने की मांग की।
मामले की सुनवाई कर रही बेंच में कौन-कौन शामिल?
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस एसआर भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा।
कितनी याचिकाएं दायर हुई हैं और इसमें क्या कहा गया है?
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 15 याचिकाएं दायर हुई हैं। इनमें कहा गया है कि समलैंगिकों में एकजुटता के लिए शादी की जरूरत है।
18 अप्रैल को कोर्ट में किसने क्या कहा?
- सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने फिर सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र की बात कही। कहा कि जब तक राज्य इसमें सीधे न जुड़े तब तक इस पर सुनवाई करना उचित नहीं है। समलैंगिक विवाह पर संसद को फैसला लेने दीजिए।
कोर्ट ने कहा कि हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे हैं कि इस मामले में विधायिका का एंगल भी शामिल है। हमें इस मामले में कुछ तय करने के लिए सबकुछ तय करने की जरूरत नहीं है।
मुकुल रोहतगी ने अपनी दलील 377 के अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के मुद्दे से शुरू की। कहा- समलैंगिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार, निजता का सम्मान और अपनी इच्छा से जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए। घरेलू हिंसा और परिवार और विरासत को लेकर भी कोर्ट की गाइडलाइन स्पष्ट हैं। हमें ये घोषणा कर देनी चाहिए, ताकि समाज और सरकार इस तरह के विवाह को मान्यता दे।
मुकुल रोहतगी ने ये भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 के मुताबिक, समानता के अधिकार के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता मिलनी चाहिए, क्योंकि सेक्स ओरिएंटेशन सिर्फ महिला -पुरुष के बीच नहीं, बल्कि समान लिंग के बीच भी होता है।
2018 का ऐतिहासिक फैसला और इसके बाद
- सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि आपसी सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अब अपराध नहीं माना जाएगा।
सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने इस फैसले के बाद कहा था कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने भर से समानता नहीं आ जाएगी, इसे हर जगह ले जाना होगा।
उसी समय समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की कई याचिकाएं अदालतों में आईं। सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं को कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच को सौंप दिया।
इन याचिकाओं की सुनवाई करने वाली सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने समलैंगिक विवाह को 'मौलिक मुद्दा' बताते हुए इसे 5 जजों की संविधान पीठ को भेजने की सिफारिश की थी। फिलहाल 5 जजों की बेंच ही इसकी सुनवाई कर रही है।
देश के कई धार्मिक संगठनों ने इसका विरोध किया है। इन धार्मिक संगठनों का कहना है कि समलैंगिक विवाह अप्राकृतिक (अननेचुरल) है।
वहीं, समलैंगिक अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि उन्हें भी कुदरत ने ही बनाया है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ते रहेंगे।
समलैंगिक विवाह जायज है या नाजायज, इस पर 18 अप्रैल से सुप्रीम कोर्ट की कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच में सुनवाई शुरू हुई है।