आदिवासी नायकों का बलिदान, अंग्रेजों से लोहा लेने वालों की ये दास्तां हर किसी को पढ़ना चाहिए

हमारे देश पर विदेशी आततायियों के खिलाफ जनजातियों ने सबसे पहले शस्त्र उठाए थे। मध्यप्रदेश में जनजाति क्रांति का लंबा इतिहास है। अपनी माटी के प्रति समर्पित इन जनजातियों के इसी स्वाधीनता संघर्ष के प्रति समूचा राष्ट्र कृतज्ञता व्यक्त करता है...

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Ravi Kant Dixit
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BHOPAL. सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...
वाकई अद्भुत है हमारा देश। भारत की संस्कृति, स्वाभिमान और स्वायत्तता के लिए जितना बलिदान और संघर्ष जनजातियों का है, वैसा उदाहरण कहीं और नहीं मिलता। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि हमारे देश पर विदेशी आततायियों के खिलाफ जनजातियों ने सबसे पहले शस्त्र उठाए थे। यदि देशी सत्तायें पराभूत हुईं हैं तो उन्हें संरक्षण देने का काम भी जनजातियों ने किया।  इतिहास के पन्ने पलटें तो एक भी ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिलता, जहां किसी आक्रमणकारी के डर या लालच में आकर जनजातियों ने घात किया हो। अंग्रेजी राज में सबसे पहले जनजातियों ने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए मजरों, टोलों से तीर-कमान उठाए और अंग्रेजों से संघर्ष किया। मध्यप्रदेश में जनजाति क्रांति का लंबा इतिहास है। अपनी माटी के प्रति समर्पित इन जनजातियों के इसी स्वाधीनता संघर्ष के प्रति समूचा राष्ट्र कृतज्ञता व्यक्त करता है। 

भील समुदाय ने की क्रांति

उत्तर में विंध्याचल से लेकर दक्षिण-पश्चिम में सहयाद्रि के पश्चिमी घाट तक का अंचल भीलों का था। अंग्रेजी राज के चलते भीलों पर दमन, शोषण का लंबा सिलसिला चला। अन्तत: भीलों ने शस्त्र उठाए और अंग्रेजों के लिए आतंक बन गए।1817 में खानदेश के भीलों का विद्रोह हुआ। अंग्रेजों ने इस विद्रोह के पीछे पेशवा के मंत्री त्रियंबक के होने की बात कही। बम्बई प्रेसीडेन्सी के एलफिंस्टन ने लिखा है- त्रियंबक और उनके दो भतीजे गोंडा जी दंगल और महीपा दंगल खानदेश के विद्रोही नेता हैं। 

हरे-भरे वनों में क्रांति की ज्वाला

खानदेश पर अंग्रेजों का कब्जा 1818 में होते ही भीलों ने पराधीनता को सिरे से नकार दिया। फिर संघर्ष शुरू हुआ। अंग्रेजों ने भील नायकों को कैद कर लिया। रसद की सप्लाई रोक दी। पहाड़ियों के दर्रों पर सेना तैनात कर दी गई। इसके बाद भील फिर खड़े हुए। सन 1819 में भीलों की टोलियों ने अंग्रेजी शासन की हालत खराब कर दी। यह सिलसिला लंबे समय चला। भीलों के नेता शहीद हो जाने पर नए नेता नेतृत्व संभालते और चौकियों की रक्षा करते। इस तरह पहाड़ियों और जंगलों में भील अजेय रहे। जब वे नहीं झुके तो अंग्रेजों ने दमन चक्र तेज कर दिया। सतमाला पहाड़ी के भील सरदार चील नायक को फांसी दे दी गई। भील नायक दशरथ ने सन 1820 में मोर्चा संभाला तो हिरिया नायक के नेतृत्व में भीलों ने 1822 में अंग्रेजी राज को चुनौती दी। कर्नल रॉबिन्स सन 1823 में बड़ी सेना लेकर भीलों के क्षेत्र में दाखिल हुआ। दो वर्षों तक भीलों का कत्ले आम किया गया। उनकी बस्तियों में आग लगा दी गई। इस पर भी वे भीलों को तोड़ नहीं पाए। सन् 1824 में त्रियंबक के भतीजे गोंडा जी दंगलिया ने भीलों को एक साथ किया। वहीं सन 1826 में दांग सरदारों और लोहारा के भीलों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सन 1827 में लेफ्टिनेंट आउटरम ने भील सेना की स्थापना की और भील क्रांति को दबाने के लिए उनका उपयोग किया। इसके बाद भी कई साल तक भील आक्रोश सुलगता रहा।

जनजातियों का सामूहिक संघर्ष 

धार राज्य के भीलों ने सन 1831 में संघर्ष शुरू किया तो 1846 में मालवा के भीलों ने मोर्चा लिया। खानदेश के भीलों ने सन 1852 में प्रबल संघर्ष किया और फिर 1857 में भगोजी नायक और काजर सिंह के अलावा कई भील-भिलाला नायक और असंख्य भीलों ने युद्ध में अपना योगदान दिया। भारत के पहले मुक्ति संग्राम सन 1857 में लगभग 7 लाख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जिन्हें अंग्रेज विद्रोही कहते थे। जब सन् 1857 की क्रांति असफल हुई तो इन क्रांतिकारियों ने जंगल को ही अपना घर बनाया। इनकी तलाश में अंग्रेजों की सेना ने जंगलों में आग लगाई, जनजातियों के गांव जलाए, लेकिन फिर भी किसी जनजाति बंधु ने समर्पण नहीं किया। यदि हम सन् 1857 के विवरण में जाएं तो पूरे देश में नेतृत्व भले ही देशी सत्ताओं या सैनिकों ने किया हो, लेकिन उनके पीछे सामूहिक संघर्ष जनजातियों का ही रहा है।

स्वाधीनता संग्राम का युगान्तकारी मोड़

सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम इतिहास का युगान्तरकारी मोड़ है। इसमें भूतकाल, वर्तमान और भविष्य समाहित नजर आता है। इस मुक्ति संग्राम के बीज सन 1857 से ठीक 100 वर्ष पहले तभी पड़ गए थे, जब अंग्रेजों ने छल-बल से सन 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय के बाद अपना शासन शुरू किया था। चेतना के स्तर पर लगे इसी अंकुर ने सन 1857 में महासंग्राम का रूप लिया। बाद में भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की प्रेरणा ने श्रंखलाबद्ध आंदोलनों की पृष्ठभूमि बनाई। अंग्रेजों की लूट-खसोट और अत्याचार से भारतीयों का सब्र टूट गया। स्वधर्म और स्वराज की गूंज के साथ भारतवासी उठ खड़े हुए, जिसमें पूरे भारत के स्वर समाए थे।

इन नायकों ने किया अनूठा संघर्ष

महासमर में 10 मई 1857 को भारतीयों ने बलिदानी पहल कर यह साबित कर दिया कि अपनी धरती, अपना देश और अपनी स्वतंत्रता के लिए भारतीय जन किसी भी सीमा तक बलिदान दे सकता है। 1857 में मुक्ति संग्राम की चिंगारी जब उत्तर भारत होती हुई मध्यभारत पहुंची तो मालवा-निमाड़ के जनजाति भील-भिलाला नायकों ने मोर्चा संभाला। इन नायकों में टंट्या भील, भीमा नायक, खाज्या नायक, सीतराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई ने संघर्ष का गौरवपूर्ण इतिहास रचा। क्रांतिनायकों के साथ बरूद के श्यामसिंह, अकबरपुर के रेउला नायक, मकरोनी परगना के कल्लू बाबा, नाना जगताप, दौलत सिंह, टिक्का सिंह, परगना सिकन्दर खेरा के निहाल सिंह के अतिरिक्त फौजी टीकाराम जमादार और जवाहर सिंह ने मिलकर अनूठा संघर्ष किया।

क्रांतिवीर टंट्या मामा ने फूंका बिगुल

सन् 1857 क्रांति के दिनों में मालवा, निमाड़ में क्रांतिकारियों की सेना थी। खरगोन और उसके आसपास का क्षेत्र क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र था। भील जननायकों में टंट्या भील तो अपने शौर्य और पराक्रम से अलौकिक किवंदंती बन गए। उनका जन्म सन् 1842 के आसपास हुआ। मात्र 16 वर्ष की आयु में वह क्रांतिवीर हो गए। संकट में लोग टंट्या मामा को पुकारते। वह हवा की तरह आते और लोगों को शोषण से मुक्त करवाते। उन्होंने अंग्रेजों के चाटूकार सेठ-साहूकारों के चंगुल से गरीबों को मुक्ति दिलाई, अंग्रेजों से संघर्ष किया और जनयोद्धा बन गए।  

...और मामा को फांसी दे दी गई 

15 सितम्बर 1857 को वे क्रांति के महानायक तात्या टोपे से मिले। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अंग्रेजों को पछाड़ना था। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ उस आग को और प्रज्ज्वलित किया जो पहले नादिर सिंह, चीलनायक, सरदार दशरथ, हिरिया, गौंडाजी, दंगलिया, शिवराम पेंडिया, सुतवा, उचेत सिंह और करजर सिंह नायकों ने सुलगाई थी। टंट्या मामा के आक्रामक मोर्चों से अंग्रेज बौखला गए। उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस बिग्रेड की स्थापना कर दी गई, पर अंग्रेजी फौज उन तक पहुंच नहीं सकी। नर्मदा किनारे मध्यप्रदेश और गुजरात की पट्टी के इस शेर और झाबुआ वेस्ट के भीलों के आदर्श टंट्या मामा को पकड़ना आसान नहीं था। अंतत: अंग्रेजों ने छल, बल का सहारा लिया, मानसिंह ने गद्दारी का इतिहास रचा। इसके चलते 4 दिसम्बर सन् 1889 को टंट्या मामा को फांसी दे दी गई। 

जब भीमा नायक ने अंग्रेजों से की भिड़ंत

स्वाधीनता संघर्ष और जनजातीय चेतना का एक ऐसे ही भील नायक हुए भीमा नायक। निमाड़ क्षेत्र के इस नायक ने सन् 1840 से सन् 1864 तक अंग्रेजों के खिलाफ भीलों की क्रांति का नेतृत्व किया। तात्या टोपे से प्रेरित और उन्हें नर्मदा पार करवाने वाले इस नायक ने 1857 के समर में निमाड़ में अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। पश्चिम मध्यभारत की भील जनजातियों का नेतृत्व करने वाले भीमा नायक बड़वानी रियासत के पंचमोहली गांव के रहने वाले थे। 1857 के समर में अंग्रेजों से सीधी भिड़ंत के बाद अंग्रेजों ने खानदेश भील कोर को उसके पीछे लगा दिया था, लेकिन वह उन्हें पकड़ नहीं सके। भीमा नायक अपने साथियों मोवासिया, रेवलिया नायक और दस हजार क्रांतिकारियों के साथ डंटे रहे।  

खरगोन छोड़कर इंदौर भागे अंग्रेज

क्रांति अभियानों से भयभीत अंग्रेज परिवार सहित खरगोन छोड़कर इंदौर भाग गए। क्रांति को दबाने के लिए महेश्वर और मंडलेश्वर में फोर्स तैनात की गई। अंग्रेजों के दमन चक्र की परवाह किए बिना स्वाभिमानी भीलों ने हथियार नहीं डाले। 1857 की क्रांति को दबाने के बाद जहां सारे भारत में अंग्रेजों ने सत्ता हासिल कर ली थी। वहीं भील योद्धा अपने मोर्चे पर डटे रहे। निमाड़ में सभी नायकों ने मिलकर 16 दिसम्बर 1866 को हमला किया। अंग्रेजों को बड़ा नुकसान हुआ। इसमें धर-पकड़ का सघन अभियान चला। कई नायक पकड़े गए, पर अंग्रेज भीमा नायक को पकड़ न सके, इसलिए अंग्रेजों ने षड्यंत्र रचा। गद्दार की सूचना पर 2 अप्रैल 1867 को घने जंगल में सोते हुए कैद किया। भीमा ने भयंकर यातनाएं सहीं, पर अंग्रेजों से समझौता नहीं किया।

बड़वानी के खाज्या नायक

नायकों की कड़ी में अलग नाम है खाज्या नायक का। वे निमाड़ के सेंधवा घाट के रहने वाले थे। उन्होंने अंग्रेजी राज को नकारते हुए अंग्रेजों की नौकरी छोड़ दी और बड़वानी क्षेत्र में भीलों के स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। लगातार संघर्ष किया और बगैर किसी समझौते के फांसी पर चढ़ गए। दरअसल, तात्या टोपे खाज्या नायक के संपर्क में थे। ग्वालियर के महादेव शास्त्री और पुनासा के नारायण सूर्यवंशी से निमाड़ में होने वाले पत्रों के आदान-प्रदान में खाज्या नायक की अहम भूमिका थी। खाज्या नायक की क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल 800 क्रांतिकारियों में भीलों के अतिरिक्त मकरानी और अरब योद्धा भी शामिल थे। खाज्या नायक ने विपन्न गरीबों के लिए 20 जनवरी, 1858 को ले. एटिकन्स और लें. पोरबिन ने नेवली के दक्षिण पश्चिम में खाज्या के दल पर हमला कर किया। इसमें खाज्या नायक की पराजय हुई। सिरपुर के आसपास के सभी क्रांतिकारी भील और भीमा नायक का दल भी खाज्या नायक के साथ हो लिया।

अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को गोली मारी

खाज्या ने सन् 1857 महासंग्राम के तत्कालीन विराम के बाद भी अपना युद्ध जारी रखा। लगातार युद्धों की श्रंखला में 1 जुलाई, 1860 में अंग्रेजों से प्रत्यक्ष युद्ध हुआ। इसमें खाज्या नायक के 1500 क्रांतिकारी शहीद हुए और सैकड़ों गिरफ्तार किए गए। 150 क्रांतिकारियों को पेड़ से बांधकर गोली से उड़ा दिया गया। शेष साथियों को पलायन करना पड़ा। खाज्या नायक को पकड़ने में असमर्थ होने पर अंग्रेजों ने साजिश रची इसमें रोहिद्दीन नामक मकरानी जमादार को शामिल किया गया। 3 अक्टूबर, 1860 को स्नान उपरांत सूर्य उपासन करते समय खाज्या नायक पर गद्दार रोहिद्दीन ने पीछे से गोली चला दी। अपनों की गद्दारी से निमाड़ के भील महायोध्दा के संघर्ष को नियति ने विराम लगा दिया।

निमाड़ के सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह भिलाला

सीताराम कंवर और रघुनाथ सिंह मंडलोई, भिलाला जनजाति नायक थे। उन्होंने सन् 1857 के युद्ध में अंग्रेजों के खिलाफ निमाड़ क्षेत्र में आवाज उठाई। शोषण के खिलाफ मोर्चा लिया और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। 1857 की क्रांति के समय बड़वानी रियासत के आरंभ में खाज्या नायक और भीमा नायक ने मोर्चा संभाल लिया। अंग्रेजों द्वारा इन भील नायकों के दमन के बाद सीताराम कंवर और रघुनाथसिंह मंडलोई ने भिलाला क्रांति की कमान संभाली। इन क्रांति नायकों ने भील-भिलाला के तीन हजार क्रांतिकारियों का संगठित दल बनाया और होल्कर दरबार के सवारों, सिपाहियों आदि को भी क्रांति के लिए प्रेरित किया।

तब 500 रुपए के ईनाम की घोषणा

क्रांति दल खरगोन की ओर बढ़ा। फिर 30 सितम्बर 1858 को क्रांतिकारियों ने बालसमुन्द चौकी पर अधिकार जमा लिया। जामुनी चौकी को लूटकर जला दिया। दल प्रमुख सीताराम कंवर को पकड़ने के लिए अंग्रेज सरकार ने 500 रुपए के ईनाम की घोषणा की, तभी अकबरपुर क्षेत्र में सीताराम कंवर ने तीव्र हमले किये। क्रांतिकारियों ने पहाड़ी से नीचे आकर दो चौकियों और डाकघर पर कब्जा किया और डाक के घोड़ों को छीन लिया। 8 अक्टूबर, 1858 को वीर सीताराम कंवर और उनके साथी बरूद गांव की ओर बढ़े। ब्रिटिश फोर्स का उनके दल से बंड नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस मुठभेड़ में क्रांतिकारियों की हार हुई। 20 क्रांतिकारी शहीद हुए जिनमें नायक सीताराम कंवर और हवालदार ज्वाला भी थे। दल के 78 क्रांतिकारियों को कैद कर फांसी दे दी गई। नायक सीताराम कंवर के शहीद होते ही अक्टूबर 1858 के आसपास टांडा बरूद के भिलाला नायक रघुनाथसिंह मंडलोई ने क्रांति की कमान थामी।

रघुनाथ सिंह को बंदी बनाया

नायक रघुनाथ सिंह मंडलोई अपने अभियान के बाद अक्सर बीजागढ़ में ठहरते थे। उन्हें पकड़ने के लिए कीटिंग बीजागढ़ किले पर धावा बोलने के लिए एक फोर्स लेकर बीजागढ़ की ओर बढ़ा। बड़वानी में 8 अक्टूबर की शाम को होल्कर राज्य की फोर्स भी कीटिंग से आ मिली। मेजर कीटिंग ने बीजागढ़ किले में रघुनाथ सिंह मंडलोई और अन्य एकत्रित क्रांतिकारियों के पास संदेश भेजा कि वे बातचीत के लिए आएं। रघुनाथ सिंह मंडलोई कीटिंग के पास आये लेकिन बातचीत के स्थान पर मेजर कीटिंग ने छल से रघुनाथ सिंह को बन्दी बना लिया।

शंकर शाह-रघुनाथ शाह

स्वाधीनता संग्राम के बलिदानियों की इस कड़ी में विश्व इतिहास में बलिदान का अनूठा उदाहरण है जबलपुर अंचल के राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह का। गोंडवाना के गोंड राजवंश के प्रतापी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह ने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में जबलपुर क्षेत्र का नेतृत्व किया था। राष्ट्रभक्ति भावपूर्ण कविता लिखने पर राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा दिया गया था।
वर्तमान में जबलपुर नगर का हिस्सा बना पुरवा ग्राम जो जबलपुर से चार मील दूर स्थित था, इसी गांव में राजा शंकरशाह और रघुनाथ शाह का निवास था। यहीं रहकर उन्होंने गुप्त रूप से सन् 1857 के महासंग्राम में सैनिकों को क्रांति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था। क्रांति योजना राजा शंकरशाह के निवास पर ही बनी थी। जबलपुर की 52वीं रेजीमेंट के सिपाही इस सिलसिले में अक्सर राजा शंकरशाह के घर जाया करते थे। अपने क्रांतिकारी साथियों और 52वीं रेजीमेंट के सैनिकों के साथ मिलकर पिता-पुत्र ने क्रांति योजना बनाई। मुहर्रम के दिन छावनी पर आक्रमण करना सुनिश्चित किया गया। लेकिन भारतीय इतिहास का नकारात्मक पक्ष पुन: प्रभावी हुआ। देश के गद्दार ने यह सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी।
खुशहाल चन्द के अलावा अन्य दो जमींदारों ने भी गद्दारी की। योजना में सेंध लगी और डिप्टी कमिश्नर ने षडयंत्र रचा। उसने एक तरफ सुरक्षा बढ़ाई, दूसरी ओर सैनिकों के असंतोष के स्त्रोत का पता लगाने के लिए गुप्तचरों का जाल बिछाया, तीसरा राजा शंकरशाह के विरुद्ध प्रमाण तलाशना शुरू किया।
सुनियोजित योजना बनाकर फकीर के वेश में एक गुप्तचर राजा के पास भेजा गया। चूंकि सन् 1857 के महासंग्राम में संन्यासी फकीरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी अत: राजा ने उस फकीर को क्रांति मार्ग का पथिक माना और अपनी संपूर्ण योजना बता दी। गुप्तचर से सूचना मिलते ही 14 सितम्बर, 1857 को डिप्टी कमिश्नर अपने लाव-लश्कर के साथ राजा शंकरशाह के गांव पुरवा पहुंचा। राजा के घर की तलाशी ली गई। इसमें क्रांति संगठन के दस्तावेजों के साथ राजा शंकरशाह द्वारा लिखित एक कविता मिली।

यह कविता अपनी आराध्य देवी को संबोधित कर लिखी गयी थी। कविता थी...

मूंद मुख डंडिन को चुगलौं को चबाई खाई

खूंद डार दुष्टन को शत्रु संहारिका

मार अंगरेज, रेज कर देई मात चंडी

बचै नाहिं बैरी-बाल-बच्चे संहारिका॥

संकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर

दीन की पुकार सुन आय मात कालका

खाइले मलेछन को, झेल नाहि करौ मात

भच्छन तच्छन कर बैरिन कौ कालिका॥

इसी तरह की प्रार्थना उनके बेटे रघुनाथशाह की हस्तलिपि में भी थी। दोनों क्रांतिवीर पिता-पुत्र को बन्दी बनाकर सैनिक जेल में रखा गया।

तुरंत डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारियों की एक औपचारिक सैनिक अदालत बैठायी गयी। अदालत में देशद्रोह रूपी कविता लिखने के जुर्म में राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गयी। दुनिया में साहित्य सृजन को लेकर दी जाने वाली यह अमानवीय, अनोखी सजा थी। क्रांतिकारी राजा और उनके पुत्र को मृत्युदण्ड और फांसी पर न चढ़ाकर तोप से उड़ाना सुनिश्चित किया गया।
जबलपुर में 18 सितम्बर, 1857 को एजेंसी हाउस के सामने फाँसी परेड हुई। राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को जेल से लाया गया और तोप के मुंह से बांध दिया गया। दोनों के चेहरे आत्म-विश्वास से परिपूर्ण थे। राजा को देखने अपार जन-सैलाब उमड़ पड़ा। भीड़ उत्तेजित थी। राजा शंकरशाह ने आराध्य देवी से प्रार्थना की कि वे उनके बच्चों की रक्षा करें ताकि वे अंग्रेजों का देश निकाला कर सके। शीघ्र ही तोपचियों को तोप दागने की आज्ञा दी गयी। तोप चलते ही दोनों के अंग क्षत-विक्षत होकर चारों ओर बिखर गए। 
रानी ने अधजले अवशेष को एकत्र कर उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया। अंग्रेज राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह को तोप से उड़ा क्रांति की आग बुझाना चाहते थे, लेकिन वह आग बुझी नहीं बल्कि दावानल बन गई। 52वीं रेजीमेंट के सैनिक उसी रात क्रांति की राह पर चल दिए।
क्रांति संघर्ष और बलिदान के बीच अंग्रेजों ने दमन चक्र चलाया और क्रांति की ज्वाला को दबाने का सघन अभियान शुरू किया। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को कुचल देने के बाद भी जनजातियों ने सन् 1866 तक युद्ध किया। वीर जनजातियों ने जहां प्रत्यक्ष युद्ध किया वहीं क्रांतिकारियों को पनाह देकर परोक्ष संघर्ष भी किया। नगरों में असफलता के बाद भी वनों में क्रांति की आग सुलगती रही। अंग्रेजों ने जनजातियों के दमन का अलग ही मार्ग निकाला, उन्हें विभिन्न जातियों में विभाजित कर चोर, लूटेरा घोषित करना शुरू किया। इतिहास साक्षी है अंग्रेजों ने जितनी भी जनजातियों को चोर, लुटेरा घोषित किया, वे सभी घोषणाएं सन् 1857 के बाद की हैं।

बिरसा मुंडा से कांपते थे अंग्रेज

भारत पर ब्रिटिशों ने  200 साल राज किया पर उनके लिए यह समय इतना आसान नहीं था। भारत में ऐसे कई क्रांतिकारी जननायक रहे जिन्होंने इन ब्रिटिशों की नाक में दम कर रखा था। उन्हीं में से एक थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने 25 साल की कम उम्र में ही अंग्रेजों को पसीना ला दिया थे। वह स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी नेता थे। आदिवासी समुदाय के लोग तो उन्हें भगवान की तरह मानते थे। बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। अंग्रेज भी उनसे खौफ खाने लगे थे। बिरसा ने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे। उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था। उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था। वह पढ़ाई में भी होशियार थे।

छिंदवाड़ा के जनजातीय नायकों की हुंकार

स्वत्व, स्वाभिमान और स्वराज के लिए जनजातीय वीरों के बलिदान का एक ओर अध्याय है छिंदवाड़ा जिले के भोई जनजाति के अमर वीरों का। जब देश में सन् 1923 में राष्ट्रव्यापी स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था, तब छिंदवाड़ा के जनजातीय नायक बादल भोई अपने साथियों के साथ स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए। बादल भोई ने सन् 1923 में तामिया तहसील में सभा का आयोजन किया। उनके जोशीले भाषण और आह्वान से कोयतोर (गोंड) जनजाति के लोग स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गए। उनके नेतृत्व में हजारों जनजाति वीरों ने मोर्चा थाम लिया। इन क्रांतिकारियों में बादल भोई के साथ सहरा भोई, अमरू भोई, इमरत भोई, लोटिया भोई, टापरू भोई और झंका भोई जैसे जनजाति नायकों ने स्वाधीनता संघर्ष करते हुए अमर बलिदान दिया।

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