मदर्स डे स्पेशल : मां के लिए बेटी और बहू... संघर्ष के बीच झूलते बेटे, पढ़िए घर-घर की यह कहानी

भारत में कई घरों में मां और बहू के बीच बढ़ता तनाव रिश्तों को जटिल बना रहा है। इंदौर के पावक शर्मा और रायपुर के किशोर सिंह जैसे लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं, जहां हर फैसला अपराधबोध से भरा होता है और दोनों के बीच संवाद की कमी हो जाती है।

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Ravi Kant Dixit
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इंदौर के पावक शर्मा की उम्र 32 साल है। चार साल पहले उन्होंने धूमधाम से शादी की थी। रिश्तों के रंगों से भरे उस नए सफर में उम्मीद थी, अब घर और भी संवर जाएगा। हुआ इसके उलट।

मां और पत्नी के बीच बढ़ते तनाव ने पावक को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया, जहां हर फैसला उसे अपराधबोध से भर देता है। मां की सुनता है तो पत्नी नाराज... पत्नी की तरफदारी करता है तो मां खामोश होकर तकलीफ छुपा लेती है। 

कुछ ऐसा ही हाल रायपुर के किशोर सिंह का भी है। छोटे कस्बे से आए किशोर जब नौकरी के लिए शहर में बस गए तो अपनी पत्नी को भी साथ ले आए। अब जब भी वे अपने गांव लौटते हैं, मां और पत्नी के बीच संवाद की गुंजाइश नहीं बचती।

मां शिकायत करती हैं कि बहू कभी फोन नहीं करती, तो बहू ताना सुनने के डर से फोन ही नहीं लगाती। मां को बहू के पहनावे से दिक्कत है, बहू को मां की भाषा से।
यही है आज के लाखों भारतीय घरों की कहानी।

हर घर की एक सी पीड़ा

ये दोनों उदाहरण सिर्फ दो घरों के नहीं हैं। यह उस सामूहिक पीड़ा का चेहरा हैं, जो हमारे समाज में घर-घर मौजूद है। इस पर कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता, क्योंकि विवादास्पद विषय है।

 ये कोई आज की बात नहीं, सदियों से चला आ रहा 'मूक संघर्ष' है, जो अक्सर परिवार के भीतर 'स्त्री बनाम स्त्री' का रूप ले लेता है।
मदर्स डे के अवसर पर 'द सूत्र' ने इस सामाजिक ताने-बाने को समझने के लिए विशेषज्ञों से बात की।

पढ़िए ये खास रिपोर्ट...

दरअसल, भारतीय समाज में बहू को अब भी बाहरी सदस्य माना जाता है। भले ही कानून, शिक्षा और आधुनिकता ने काफी कुछ बदला हो, पर घरेलू व्यवहार में बदलाव धीमा है। मां को बेटी से लगाव स्वाभाविक है, लेकिन जब वही सास बनती है तो बहू के लिए वही स्नेह कम होकर झलकता है। यह पीढ़ियों से चला आ रहा अनकहा व्यवहार मॉडल है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि सास और बहू के रिश्ते में तुलना, अपेक्षाएं और अधिकार का टकराव सबसे बड़ी बाधाएं हैं। सास को लगता है कि बहू बेटे को उनसे दूर कर रही है। बहू को लगता है कि सास बेटे पर अब भी अधिकार जमाने की कोशिश कर रही हैं। ये असुरक्षा दोनों तरफ है। 

रिसर्च क्या कहती है?

सास, बहू के रिश्ते पर हुए एक शोध के नतीजे चौंकाने वाले हैं। इसमें 68 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्हें अपनी सास के साथ शुरूआती वर्षों में तालमेल बैठाने में मुश्किल हुई।

42 फीसदी बहुओं ने माना कि उन्होंने कभी सास को मां जैसा नहीं महसूस किया। वहीं 57 प्रतिशत सास ने माना कि वे बहू से वही अपेक्षाएं रखती हैं, जो उन्होंने अपने समय में निभाईं।

लकीरें अलग-अलग हैं...! 

सास और बहू के बीच टकराव की सबसे बड़ी वजह पुराने, नए संस्कारों की टकराहट और बेटे को लेकर स्वामित्व की भावना होती है। देखने में आता है कि एक मां चाहती है कि उसकी बेटी अपने मायके में महीने भर रुके, जबकि जब बहू अपने मायके जाना चाहती है तो समय की सीमा तय हो जाती है, यानी ज्यादा दिन क्या करना वहां?

बेटी जब ऑफिस से थकी आए तो उसे आराम की सलाह मिलती है, लेकिन बहू से उम्मीद की जाती है कि वह घर का काम संभाले। इन दो मापदंडों के बीच एक बात साफ है कि समाज ने आज भी बेटी और बहू के लिए अलग-अलग लकीरें खींच रखी हैं। यह हर समाज और हर वर्ग की दास्तां है। 

सास भी कभी बहू थी...

विशेषज्ञ कहते हैं, आज की हर सास कभी न कभी किसी की बहू रही है। उन्होंने भी वह सब झेला, जो आज की बहुएं झेल रही हैं। लेकिन जब वे खुद उस भूमिका में आती हैं, तो वही चक्र दोहराया जाता है, क्योंकि उन्हें भी यही सिखाया गया कि बहू को कठोर अनुशासन में रहना चाहिए। इस अनुशासन की वजह से कई बार बहू और बेटे में तलाक की नौबत तक आ जाती है।

वरिष्ठ अध्येता व सामाजिक ताने-बाने को करीब से जानने वाले सुरेंद्र दांगी एक किस्सा साझा करते हैं। उन्होंने बताया कि पिछले दिनों एक नवदंपत्ति में सिर्फ इसलिए तलाक हो गया, क्योंकि सास को लगता था कि बहू का पहनावा ठीक नहीं है।

जब हम इसके मूल में जाते हैं तो पता चलता है कि बहू शहरी परिवेश में पढ़ी लिखी थी और उसकी शादी सामान्य कस्बे में कर दी गई। बहू के पहवाने को लेकर घर में लंबे अरसे तक झगड़े होते रहे और अंतत: तलाक हो गया। 

सिद्धांत और व्यवहार में अंतर

मध्यप्रदेश के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ.सत्यकांत ​त्रिवेदी कहते हैं, हमारे समाज में सिद्धांत और व्यवहार में दोहरापन है। मन, वचन और कर्म में असमानता है। लड़की और लड़के से इतर हमें इंसान का भाव सिखाया ही नहीं जाता। हमारे समाज में हमेशा से स्त्री को उपभोग की वस्तु समझा जाता है।

इसमें बहुओं की जो परम्परागत छवि है, वो कहीं न कहीं ऐसी है कि हम उनका दाना-पानी कर रहे हैं। हम उन्हें रख रहे हैं। इसमें समस्या केवल मां या सास की तरफ से नहीं होती, प्रॉब्लम यह है कि इस रिश्ते को ही सही ढंग से गढ़ा नहीं गया है। बच्चियां बड़ी होती हैं तो वे अपने घर में ही देखती और सुनती हैं कि मेरी मां के साथ अत्याचार हुआ, मेरी बुआ के साथ दुव्यर्वहार हुआ।

तो कहीं न कहीं इस रिश्ते के प्रति उनके मन में नकारात्मक भाव बन जाता है और वे अपनी सास के प्रति उन पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती हैं, जबकि हर बार गलत केवल सास नहीं होतीं।

 डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी (वरिष्ठ मनोचिकित्सक)

डॉ.त्रिवेदी कहते हैं कि बहुओं को लगता है कि अप्रत्याशित रूप से ससुराल में उनकी रैगिंग हो रही होती है, उन्हें कंट्रोल में रखा जाता है, जबकि ऐसा होता नहीं है। फिर जब आज की बहू, कल जब सास बनती है तो उसके मन में अपनी नई बहू के प्रति वही पुराना व्यवहार होता है और वह इस रिश्ते में झलकता है। 

 बहू, बहू होती है और बेटी-बेटी

मेरी बहू बेटी के समान है...इस बात पर डॉ.त्रिवेदी कहते हैं कि बहू, बहू होती है और बेटी-बेटी होती है। यही सच्चाई है। एक मां ये मानती है कि उसकी बेटी पर ससुराल में अत्याचार हो रहा होगा। लिहाजा, बहू को वे अपने कंट्रोल में रखना चाहती हैं।

यहां अहंकार भी बड़ा रोल प्ले करता है। इस तरह हम दोहरेपन में जी रहे होते हैं। इसका मतलब यह है कि एक महिला जो सोचती है, उसे दूसरा पक्ष भी ​वैसा ही नजर आता है। 

सास का मां बनना संभव ही नहीं 

भोपाल की वरिष्ठ समाजसेवी मीता वाधवा कहती हैं, ये बड़ा ही विवादास्पद विषय है। हम एक्सपेक्टेशन बढ़ा लेते हैं। हम चाहते हैं कि जो सास हैं, वो भी हमारी मां बन जाएं। ये बिलकुल भी संभव नहीं है। सास को सास ही रहने दो।

दूसरा, सास की सोच होती है कि जो मेरे साथ हुआ है, मैं ऐसा ही अपनी बहू के साथ करूं। ये बदलाव बहुत जरूरी है। बतौर मां आप अपनी बेटी का दर्द तो समझ सकती हैं, लेकिन अपनी बहू का दर्द नहीं दिखता।

मीता वाधवा (वरिष्ठ समाजसेवी)

मीता कहती हैं, अमूमन एक महिला अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित होती है। वो कहते ना कि सास भी कभी बहू थी... बस यहीं से उनके मन में बहुत कुछ चल रहा होता है। फिर जब बहू, सास बनती है तो वही सब कुछ अपनी बहू के साथ करती है। मैं हर सेशन में ये कहती हूंं, महिला ही महिला की दुश्मन होती है। बस यहीं से शुरुआत होती है।

युवाओं को, पुरुषों को सलाह देते हुए मीता कहती हैं, एक बेटे को अपनी मां और पत्नी के बीच संतुलन बनाना बहुत जरूरी है, क्योंकि सूत्रधार तो वही होता है। उसे स्टैंड लेना बहुत जरूरी होता है। उसे चाहिए कि वह न तो पत्नी के सामने मां की बेइज्जती करे और ना ही मां के सामने पत्नी से दुव्यर्वहार करे।

पुरुष को मां और पत्नी दोनों को यह बताना जरूरी है कि उसके जीवन में दोनों का अपना महत्व है। यदि पुरुष यह संतुलन बनाने में कामयाब हो जाता है तो चीजें काफी हद तक बेहतर हो जाती है।

बहू को बेटी क्यों बनाना ही बेमानी 

वरिष्ठ अध्येता सुरेंद्र दांगी कहते हैं, बहू को बेटी क्यों बनाना है? मेरी नजर में यह अपेक्षा करना ही बेमानी है। हां, लेकिन यह होना जरूर चाहिए कि बहू बेटी बन जाए, पर ये आज के समाज में तो असंभव है।

 यहां तो अच्छा यह होगा कि बहू सिर्फ अच्छी बहू बन जाए। सास वास्तव में अच्छी सास बन जाए...बस यहीं समस्या खत्म हो जाती है। बहू बेटी क्यों नहीं हो सकती... के सवाल पर वे कहते हैं कि हमारे खून के रिश्ते जो होते हैं, वे ही हमें प्यारे होते हैं।

बहू तो दूसरे के घर की बेटी होती है। हां, जब बहू के बच्चे हो जाते हैं तो सास ही उन्हें सबसे ज्यादा प्यार देती है, क्यों...क्योंकि वह खून का रिश्ता होता है। कहते भी हैं ना कि मूल से प्यारा ब्याज होता है। हर घर की यही कहानी है।

 सुरेंद्र दांगी (वरिष्ठ अध्येता)

दांगी कहते हैं, इस चक्रव्यूह या कहें संघर्ष में सबसे ज्यादा कोई पिसता है तो वह पुरुष होता है। वह न तो पत्नी का पक्ष ले पाता है और न ही मां के साथ हो पाता है। क्योंकि यदि वह पत्नी का पक्ष लेता है तो लगता है कि मां के साथ न्याय नहीं कर रहा और मां का साथ देता है तो पत्नी नाराज हो जाती है। 

द सूत्र व्यू 

इस मदर्स डे पर हमें सिर्फ अपनी मां के प्रति श्रद्धा ही नहीं, बल्कि अपने घर की सास को भी नई दृष्टि से देखने की जरूरत है। एक मां जो शायद कभी बहू होकर बहुत कुछ सह चुकी है।

और सास को भी यह समझना होगा कि नई पीढ़ी की बहू, पुराने ढर्रे को नहीं बल्कि सम्मान और संवाद की उम्मीद लेकर आई है। एक पुरुष को तब सबसे ज्यादा सुकून मिलता है, जब उसकी मां और पत्नी के बीच प्यार हो, स्नेह हो...रिश्ते की डोर मजबूत हो। हम उम्मीद करते हैं कि जल्द ही रिश्तों की यह डोर मजबूत होगी।

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