रविदास ने कर्म की महत्ता स्थापित की, मन चंगा तो कठौती में गंगा की बात कही, गुरु ग्रंथ साहिब में लिए गए हैं उनके पद

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Pratibha Rana
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रविदास ने कर्म की महत्ता स्थापित की, मन चंगा तो कठौती में गंगा की बात कही, गुरु ग्रंथ साहिब में लिए गए हैं उनके पद

BHOPAL. संत शिरोमणि कवि रविदास की आज ( 5 फरवरी) को 647वीं बर्थ एनिवर्सरी है। रविदास जी एक महान संत थे। इनका जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) और पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। कहा जाता है कि रविदास चर्मकार कुल से होने की वजह से जूते बनाते थे। ऐसा करने में उन्हें बहुत खुशी मिलती थी। कहते हैं कि माघ मास की पूर्णिमा को जब रविदास का जन्म हुआ था, उस दिन रविवार था। इस वजह से उनका नाम रविदास रखा गया।



बचपन में ही भक्ति में लीन रहते थे रविदासजी



रविदासजी जब बहुत छोटे थे तभी से ही वह बहुत ज्यादा पूजा-पाठ करते थे। उनकी आस्था को देखकर स्वामी रानानंद ने उन्हें अपना शिष्य बनाया। रविदास का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब उत्तर भारत के कुछ शहरों में मुगलों का शासन था। उस वक्त चारों ओर अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार और अशिक्षा का बोलबाला था। उस समय मुस्लिम शासक की कोशिश थी कि वह ज्यादातर हिन्दुओं को मुस्लिम बनाएं। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री मीराबाई की रविदास से मुलाकात हुई थी। मीरा के गुरु रविदासजी ही थे। रविदास ने कई बार मीराबाई की जान बचाई थी। रविदासजी बहुत ही दयालु और दानवीर थे। वह हर किसी की मदद करते थे। कई बार वह बिना पैसा लिए लोगों को जूते दान में दे देते थे। 



रविदाजी के हर जगह अलग-अलग नाम से बुलाया जाता था



रविदाजी को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था। पंजाब में उन्हें रविदास कहा जाता था। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र में रोहिदास, बंगाल में ‘रुइदास’ नाम से लोग उन्हें बुलाते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है। 




गुरु ग्रंथ साहिब में लिए गए हैं उनके पद



संत रविदास ने अपनी कविताओं के लिए जनसाधारण की ब्रजभाषा का इस्तेमाल किया है। इसके अलावा इसमें उन्होंने अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेख्ता यानी उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदासजी के लगभग चालीस पद सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित किए गए है।



मन चंगा तो कठौती में गंगा



एक बार रविदास अपने जूते बनाने में तल्लीन थे। उसी वक्त उनके पास एक ब्राह्मण आए और कहने लगे- मेरी जूती थोड़ी टूट गई है इसे ठीक कर दो। इसके बाद रविदास जी ब्राह्मण की जूती ठीक करने लगे। रविदास जी ने उनसे पूछा- श्रीमान! कहां जा रहे हैं।  ब्राह्मण ने बताया कि वह गंगा में नहाने के लिए जा रहे हैं, तुम चमड़े का काम करने वाले क्या जानोगे कि गंगा में नहाने से कितना ज्यादा पुण्य मिलता है। रविदास जी ने कहा कि सही कहा श्रीमान! हम मलिन और नीच लोगों के गंगा स्नान करने से गंगा भी अपवित्र हो जाएगी।



ब्राह्मण ने रविदास की भेंट मां गंगा को अर्पित की 



इस पर उस ब्राह्मण ने कहा- ये लो अपनी मेहनत के एक कौड़ी और और मुझे मेरी जूती दो। फिर रविदास जी ने ब्राह्मण से कहा कि ये कौड़ी आप मां गंगा को गरीब रविदास की भेंट कहकर अर्पित कर देना। इसके बाद ब्राह्मण अपनी जूती लेकर चला गया। रविदास जी फिर से अपने काम में तल्लीन हो गए। गंगा स्नान के बाद जब ब्राह्मण घर वापस जाने लगा तो उसे याद आया कि उस शूद्र की कौड़ी तो गंगा जी को अर्पण की ही नहीं। उसने कौड़ी निकली और गंगा के तट पर खड़े होकर कहा- हे मां गंगे! रविदास की ये भेंट स्वीकार करो। उसी वक्त गंगा जी से एक हाथ प्रकट हुआ और आवाज आई- लाओ रविदास जी के ये भेंट मेरे हाथ पर रख दो। इसके बाद ब्राह्मण ने उस कौड़ी को हाथ पर रख दिया। जब ब्राह्मण हैरान होकर वहां से लौटने लगा तो फिर उसे वही आवाज सुनाई दी- ब्राह्मण! 



गंगा जी से प्रकट हुआ एक हाथ



ये भेंट मेरे ओर से रविदास जी को देना। दरअसल गंगा जी के हाथ में एक रत्न जड़ित कंगन था। ब्राह्मण हैरान होकर उस रत्न जड़ित कंगन को लेकर चल पड़ा। जाते-जाते रास्ते में उसने सोचा कि रविदास को क्या मालूम कि मां गंगा ने उसके लिए कोई भेंट दी है। ब्राह्मण सोचने लगा- अगर ये रत्न जड़ित कंगन मैं रानी को भेंट दूं तो राजा मुझे मालामाल कर देगा। वह राज दरबार पहुंचा और रानी को भेंट स्वरूप वह कंगन दे दिया। रानी वह कंगन देखकर बहुत खुश हुई। इधर ब्राह्मण अपने मिलने वाले इनाम के बारे में सोच ही रहा था कि रानी ने अपने दूसरे हाथ के लिए भी वैसा ही कंगन लाने की फर्माइस राजा से कर दी। राजा ने ब्राह्मण से कहा मुझे इसी तरह का दूसरा कंगन चाहिए। इस पर उस ब्राह्मण ने कहा कि आप अपने राज जौहरी से इसी तरह का दूसरा कंगन बनवा लें। तभी जौहरी ने राज को बताया कि इसमें जड़े रत्न बहुत कीमती हैं, वह राजकोष में भी नहीं है। इस पर राजा को क्रोध आ गया। उसने ब्राह्मण से कहा कि यदि तुम दूसरा कंगन लाकर नहीं दे सके तो तुम्हें मृत्युदंड मिलेगा। यह सुनकर ब्राह्मण की आंखों से आंसू बहने लगे। फिर उसने सारी सच्चाई राजा को बताई। फिर कहा कि केवल रविदास जी हैं जो दूसरा कंगन मां गंगा से लाकर दे सकते हैं। राजा को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ।



ब्राह्मण ने पकड़े रविदास के पैर



वह ब्राह्मण के साथ संत रविदास के पास पहुंचा। वहां रविदास जी अपने काम में हमेशा की तरह तल्लीन थे। ब्राह्मण ने दौड़कर उनके पैर पकड़ लिया। साथ ही वे अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना की। रविदास जी ने जब ब्राह्मण के जीवनदान की प्रार्थना राजा से की। तब राजा ने उनसे उस ब्राह्मण के जीवनदान के बदले दूसरा कंगन मांग लिया। तब संत रविदास जी ने वहीं एक बर्तन से जल लिया और मां गंगा से प्रार्थना करने लगे। तभी उसी बर्तन में एक दूसरा कंगन प्रकट हुआ। राज यह देखकर बहुत हैरान हुआ। इसके बाद संत रविदास ने कहा- मन चंगा तो कठोती में गंगा।

 


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