इस लेख को पढ़ें, ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ का भ्रम सुलझ जाएगा

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं, जो नागरिकों की समानता और राज्य की प्रगतिशीलता को सुनिश्चित करते हैं। विशेष बात यह है कि हर राजनैतिक दल, बुद्धिजीवी व संगठन इन शब्दों का अपने हिसाब से अर्थ निकालते हैं।

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Dr Rameshwar Dayal
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भारत देश में आजकल दो शब्द बेहद चर्चा में है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ नामक ये दो शब्द चुनाव व अन्य मौकों पर जब तब प्रयोग में जाए जाते रहे हैं। विशेष बात यह है कि हर राजनैतिक दल, बुद्धिजीवी व संगठन इन शब्दों का अपने हिसाब से अर्थ निकालते हैं और उन्हें लागू करने का प्रयास करते हैं। चूंकि यह दोनों महत्वपूर्ण शब्द (इन्हें शब्द न कहकर भारतीय संविधान की आत्मा) सुप्रीम कोर्ट में भी चर्चा के लिए आए थे और एक पक्ष ने संविधान की प्रस्तावना से इन्हें निकालने की मांग की थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी मांग खारिज कर दी। हम आपको बताते हैं कि असल में यह मसला और विवाद क्या है, जिसको लेकर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। 

सुप्रीम कोर्ट में क्या था मसला

सुप्रीम कोर्ट में चर्चित वकील व पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी व अन्य वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ हटाने की मांग की थी। उनका तर्क था कि वर्ष 1976 में संविधान संशोधन कर इन्हें जोड़ा गया था जबकि तब लोकसभा का नियमित कार्यकाल समाप्त हो चुका था। उनका यह भी कहना था कि संविधान निर्माता इन दो शब्दों को जोड़े जाने के प्रस्ताव पर विचार करने के बाद उसे नामंजूर कर चुके थे। इसलिए संविधान की प्रस्तावना से इन दोनों शब्दों को हटाया जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चाहे धर्मनिरपेक्ष हो या समाजवादी, ये शब्द हमारे संविधान की प्रगतिशीलता को बनाए रखने में सहायक हैं। जहां धर्मनिरपेक्षता नागरिकों की समानता और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मूल अधिकारों को सुनिश्चित करती है, वहीं समाजवाद के प्रति निष्ठा राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को बनाए रखने में मदद करती है। ये शब्द नीति निर्देशक तत्वों में दिए गए समान आचार संहिता जैसे लक्ष्यों की ओर बढ़ने में भी किसी तरह की बाधा खड़ी नहीं करते। इसलिए उनकी अर्जी खारिज की जाती है। 

कहां से आए धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’

भारतीय संविधान में इन शब्दों को लागू करने से पहले इन दोनों शब्दों का दुनिया में बहुत पहले से ही प्रयोग किया जा रहा था। लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि अधिकतर देशों ने अपने-अपने हितों के हिसाब से इन शब्दों, इनके अर्थ और परिभाषा का प्रयोग किया है। अगर धर्मनिरपेक्षता शब्द की बात करें तो ऐसा माना जाता है कि साल 1850 के दशक में ब्रिटिश समाज सुधारक जॉर्ज जैकब होलोएक (1817-1906) ने धर्मनिरपेक्षता शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिगत दर्शन, राजनीति और समाज पर अपने विचारों के लिए किया है। वैसे यह शब्द जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है वे बहुत पहले से मौजूद हैं। इस शब्द का प्रयोग खगोल विज्ञान में लंबे कालखंड में होने वाले ईसा मसीह का वर्णन करने के लिए भी किया जाता है। दूसरी ओर समाजवाद शब्द किसी भी राजनीतिक या आर्थिक सिद्धांत का वर्णन करता है जो कहता है कि व्यक्तियों के बजाय समुदाय को संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व और प्रबंधन करना चाहिए। माना जाता है कि ब्रिटेन में इस शब्द का पहली बार प्रयोग नवंबर 1827 में को-ऑपरेटिव मैगज़ीन में किया गया था। इसका प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में सहकारी सुधारवाद का वर्णन करने के लिए किया गया था।   

मूल संविधान में क्या कहा गया है

प्रत्येक संविधान का एक दर्शन होता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इसी दर्शन की जानकारी संक्षेप में दी गई है। संविधान को 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था और वर्ष 1950 में इसे लागू किया गया था। मूल प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।' ध्यान रहे कि इस मूल प्रस्तावना में कहीं भी धर्मनिरपेक्षता या समाजवाद शब्द नहीं है। 

इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के दौरान इन शब्दों को जोड़ा

यह सर्वविदित है कि भारत में नेहरू के राजीनैतिक काल में इन शब्दों को विशेष महत्व नहीं दिया गया और विभिन्न राजनैतिक पार्टियां ही अपने विचारों में इन शब्दों का प्रयोग करती रहीं। लेकिन अपने कार्यकाल में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक) लगाई, उसी दौरान संविधान में संशोधन कर धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद शब्द जोड़े गए। इसके लिए संविधान (42वें संशोधन) अधिनियम, 1976 किया गया। उस वक्त सरकार की ओर से कहा गया था कि समाजवादी शब्द को शामिल करने का उद्देश्य भारतीय राज्य द्वारा लक्ष्य और दर्शन के रूप में समाजवाद पर बल देना है, जिसमें गरीबी उन्मूलन तथा समाजवाद का एक अनूठा रूप अपनाने पर ध्यान केंद्रित हो। संविधान की मूल प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता को शामिल करने से एक ऐसे राज्य के विचार को बल मिनेगा, जिसमें सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार, तटस्थता बनाए रखने को प्रोत्साहित किया जाए और किसी विशेष धर्म को राज्य धर्म के रूप में समर्थन नहीं दिया जाए।

मूल प्रस्तावना में इसलिए शामिल नही किए गए

पूर्व आईएएस अधिकारी व ‘पॉलिटी सिंप्लीफाइड’ (‘Polity Simplified’) के लेखक रंगराजन आर. का कहना है कि साल 1949 को अपनाई गई मूल प्रस्तावना में भारत को एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था। संविधान सभा ने ‘समाजवादी’ शब्द का उपयोग नहीं किया था क्योंकि उनका मानना था कि किसी देश के आर्थिक आदर्श को प्रस्तावना में तय करना उचित नहीं है। लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने आदर्शों का चुनाव करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसी तरह, भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से भिन्न है। पश्चिम में, राज्य और धर्म को पूरी तरह से अलग रखा जाता है। जबकि भारत में, राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़े आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक और सामाजिक पहलुओं को नियंत्रित करने का अधिकार है। संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म के आधार पर भेदभाव न करने जैसे प्रावधान पहले से ही धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को दर्शाते हैं। इसलिए संविधान सभा ने प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

अपने हितों के लिए अर्थ गढ़ते हैं राजनैतिक दल

भारत में करीब आधी सदी से धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी शब्दों पर बहस चल रही है और विशेष बात यह है कि हर राजनैतिक दल अपने हितों को ध्यान में रखते हुए इन शब्दों का प्रयोग करता है। अजीब बात यह भी है कि वह दल केंद्र की किस सरकार में शामिल है, उसी हिसाब से इन दोनों शब्दों के अथे और उनके प्रयोग बदल जाते हैं। वैसे समाजवाद शब्द को लेकर ज्यादा बहस नहीं की हुई है, क्योंकि बढ़ते आधुनिकतावाद व पूंजीवाद ने इस शब्द का अर्थ फीका कर दिया है। लेकिन भारत में धर्मनिरपेक्षता हमेशा विवादास्पद रही है। कांग्रेस, उससे जुड़े राजनैतिक दल व वामपंथी विचारधारा के लोगों का मानना है कि इसका अर्थ यही है कि भारत में किसी धर्म विशेष को आश्रय नहीं दिया गया है। यहां सभी धर्मों को एकसमान मान्यता दी गई है। जबकि बीजेपी व दक्षिणपंथी संगठन मानते हैं कि इस शब्द का प्रयोग एक धर्म-विशेष को बढ़ावा देने व हिंदू धर्म को तिरस्कृत करने के लिए किया जा रहा है। चुनाव के दौरान तो शब्द सभी के ‘सिर चढ़कर’ बोलता है। 

विविधता में एकता को बनाए रखते हैं

लेखक लेखक रंगराजन आर का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता हमारे ‘विविधता में एकता’ की भावना को बनाए रखती है। इसलिए, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को बनाए रखना आवश्यक है ताकि समाज में समता और आर्थिक विकास दोनों सुनिश्चित किए जा सकें। आजादी के बाद के वर्षों में भारत में ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ की अवधारणा अपनाई गई थी। 1991 के बाद से, भारतीय अर्थव्यवस्था एक बाज़ार-आधारित मॉडल में बदल गई। इस बदलाव से गरीबी कम हुई, लेकिन असमानता बढ़ी है। कोर्ट ने कहा कि समाजवादी नीतियां जैसे मनरेगा, सस्ता अनाज, और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी योजनाएं गरीबों की जरूरतें पूरी करती हैं। लेखक ने यह भी जानकारी दी कि साल 1960 के ‘बेहरुबारी केस’ में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है। लेकिन 1973 के ‘केशवानंद भारती केस’ में कोर्ट ने इस राय को बदलते हुए कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है और इसे संविधान की मूल दृष्टि के अनुसार पढ़ा जाना चाहिए। 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े गए।

FAQ

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है?
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण और किसी विशेष धर्म का समर्थन न करना।
समाजवाद का भारतीय संविधान में क्या महत्व है?
समाजवाद का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करना है।
42वें संविधान संशोधन के तहत क्या बदलाव किए गए?
इस संशोधन के तहत धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अखंडता शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए।
सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता पर क्या निर्णय दिए हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान की प्रगतिशीलता बनाए रखने वाला महत्वपूर्ण तत्व माना है।
इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल का क्या प्रभाव पड़ा?
आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन द्वारा संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किए गए।

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