दल बदलू नेताओं की होगी जीत या पुरानी पार्टी को ही चुनेंगे मतदाता?

कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में मध्यप्रदेश के गुना से अप्रत्याशित तौर पर चुनाव हारने के पांच साल बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया फिर से चुनाव मैदान में हैं, लेकिन इस बार ईवीएम पर उनके नाम के आगे चुनाव चिन्ह कमल का निशान होगा...

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Jitendra Shrivastava
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BHOPAL. क्या देश का मतदाता इस बार दल बदलू नेताओं को वोट देगा। पहले चरण के मतदान के बाद वैसे बहुत सारे विश्लेषण हो रहे हैं। दावे और तर्क बहुत से हैं, लेकिन दल बदलुओं की सीट पर कोई खास चर्चा अब तक नहीं हुई। दल बदल वैसे तो आम बात है लेकिन इस बार इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। खासतौर से तब जब हर पार्टी ने दल बदल कर आए नेता को धड़ल्ले से टिकट दिया है। बीजेपी की बात करें तो 417 कैंडिडेट्स के नाम घोषित हो चुके हैं। उसमें से करीब 116 उम्मीदवार ऐसे हैं जो दूसरे दलों से पार्टी में शामिल हुए हैं। यानी 417 में करीब 28 प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे हैं जो दल बदलकर आए हैं और टिकट हासिल करने में कामयाब रहे हैं। अब मतदाताओं के नजरिए से देखें तो क्या ये बीजेपी के लिए फायदे का सौदा साबित होगा। क्या नेताओं के मन की तरह मतदाता का मन भी बदलेगा और वो सिर्फ फेस देखकर मतदान करेंगे।

वोटर के कितने प्रकार

इस मुद्दे को गहराई से समझने के लिए पहले आपको ये समझना होगा कि वोटर कितने तरह का होता है। एक होता है किसी भी पार्टी का कोर वोटर। जो हर साल मतदान करने घोड़ी की तरह आंख पर ब्लाइंडर्स लगाकर निकलता है। मतदान केंद्र जाता है और उसी पार्टी को वोट करके आता है। दूसरे शब्दों में आप इसे किसी भी पार्टी का निष्ठावान वोटर भी कह सकते हैं। जो चेहरा कोई भी हो उसी पार्टी को चुनते हैं जिसे वो कई सालों से टिकट देते आ रहे हैं। सिर्फ वही नहीं उसी सीट से आने वाले यंग वोटर्स भी बहुत मुश्किल से किसी और दल को चुनने का मन बनाते हैं। इसके बाद एक होता है फेस देखकर वोट देने वाला वोटर। ये ऐसे वोटर होते हैं जिन्हें पार्टी से कोई मतलब नहीं होता। ये किसी एक परिवार या एक फेस को देखकर वोट करते हैं। इन वोटर्स के बीच कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई लहर चलती है और वोटर उसमें बहता हुआ चला जाता है और वोट करके आता है। कभी धर्म का उबाल कभी सांत्वना की लहर तो कभी ऐसी आंधी जो वोटर्स को एकतरफा वोट करने पर मजबूर कर देती है, लेकिन ऐसे हालात कभी-कभी ही बनते हैं।

मतदाता का मूड या मतदाता की मुश्किल...

इस बार मतदाता का मूड क्या है ये समझना मुश्किल हो रहा है या, मतदाता को ये समझना मुश्किल हो रहा है कि वोट दें तो दें किसे। पार्टी को चुनते हैं तो वो उम्मीदवार दूसरे दल से खड़ा नजर आता है, जिसे हर बार चुनते आए हैं और कैंडिडेट चुनते हैं तो अपनी पुरानी निष्ठा को ही धोखा देते हैं। ये गणित थोड़ा उलझा हुआ है। इसे थोड़ा सीट के अनुसार आसान तरीके से समझने की कोशिश करते हैं। 

इस सीट का इतिहास, राजमहल से आए उम्मीदवार को ही चुना

सबसे पहले बात ज्योतिरादित्य सिंधिया से ही शुरू करते हैं। एक तो अपने एमपी के ही नेता हैं दूसरा दल बदल का सबसे बड़ा पहला चेहरा उन्हें ही कहा जाए तो कोई एतराज भी नहीं होना चाहिए। उनके बीजेपी में शामिल होते ही शायद ये दस्तूर बन गया कि असंतोष है तो दूसरी पार्टी जॉइन करो। अब पुराने वादे निभाते हुए बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को लोकसभा का टिकट भी दे दिया है। वो भी उनकी अपनी लोकसभा सीट गुना से। गुना शिवपुरी की सीट क्या किसी एक दल की है या एक घराने की। इस सीट का इतिहास है कि पार्टी कोई सी भी हो सिंधिया की प्रजा ने हमेशा राजमहल से आए उम्मीदवार को ही चुना है। इस मामले में 2019 का चुनाव जरूर अपवाद रहा। जब मोदी की आंधी में महल की दीवारें भी हिल गई और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी चुनाव हार गए। इस हार की नाराजगी समझे या सियासी हवा का रूख भांपने की समझ की सिंधिया खुद ही बीजेपी में चले गए। अब क्या ये कहा जा सकता है कि वोटर्स के लिए कंफ्यूजन ही खत्म। क्योंकि वो जिस चेहरे को पसंद करते हैं वो चेहरा और जिस पार्टी को पिछली बार जबरदस्त जीत दिलवा चुके हैं वो दल दोनों एक ही हो चुके हैं। तो क्या ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस का वोटर इस सीट पर अब बीजेपी का वोटर बन चुका है। 

सिंधिया परिवार ने अपना पहला और आखिरी चुनाव एक पार्टी से नहीं लड़ा

शायद नहीं, ये कहना गलत होगा कि गुना शिवपुरी सीट पर वोटर ने भी दल बदल लिया है। बल्कि ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि वोटर जिस फेस के साथ बरसों से टिका हुआ है उसी फेस को उसने फिर चुना है। अगर इस सीट का इतिहास देखें तो सिंधिया परिवार ने अपना पहला और आखिरी चुनाव कभी एक पार्टी से नहीं लड़ा है। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1957 में कांग्रेस के टिकट पर गुना लोकसभा सीट से लड़ा और जीता था। उन्होंने 1967 में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और जीता था। उसके बाद उन्होंने 1989 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने अपना पहला चुनाव 1971 में भारतीय जनसंघ के टिकट पर गुना से लड़ा था। उसके बाद उन्होंने अपना आखिरी चुनाव 1999 में कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था। साल 2001 में नई दिल्ली के पास एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत हो गई थी। उसके बाद हुए उप चुनाव में कांग्रेस ने माधवराव के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया को मैदान में उतारा था। 

इस बार सिंधिया के नाम के आगे चुनाव चिन्ह कमल होगा

ज्योतिरादित्य का सियासी सफर 2002 के उप चुनाव हुआ था। उसके बाद वे 2004, 2009 और 2014 का आम चुनाव भी गुना संसदीय सीट से जीता था। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सिंधिया अप्रत्याशित तौर पर चुनाव हार गए थे। तब मध्यप्रदेश में कमलनाथ की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार थी। उस हार के बाद सिंधिया 2020 में कांग्रेस के 22 विधायकों के साथ बीजेपी में चले गए। उनके पाला बदलने के कारण कमलनाथ सरकार गिर गई। उनके बीजेपी में जाने के बाद यह पहला चुनाव हो रहा है। फिलहाल संसद में सिंधिया की मौजूदगी राज्यसभा के जरिए है। कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में गुना से अप्रत्याशित तौर पर चुनाव हारने के पांच साल बाद सिंधिया फिर से चुनाव मैदान में हैं, लेकिन इस बार ईवीएम पर उनके नाम के आगे चुनाव चिन्ह कमल का निशान होगा। इस बार के चुनाव में सिंधिया का मुकाबला कांग्रेस के राव यादवेंद्र सिंह यादव से है। ऐसे में सिंधिया के सामने परिवार के सियासी वर्चस्व को कायम रखने की चुनौती है। अगर वो जीत जाते हैं तो एक बार फिर ये साबित हो जाएगा कि गुना शिवपुरी की जनता की आस्था सिंधिया घराने से है और हारते हैं तो ये मान लिया जाएगा कि कांग्रेस का कोर वोटर अपनी पार्टी में वापसी कर रहा है।

पीलीभीत से 1984 में आखिरी बार जीती थी कांग्रेस 

सिंधिया की तरह दल बदल कर आने वाले जितिन प्रसाद को भी बीजेपी से टिकट मिला है। वो वरूण गांधी की जगह पीलीभीत से बीजेपी उम्मीदवार हैं। पीलीभीत लोकसभा सीट की बात करें तो ये 1984 के चुनाव में आखिरी बार कांग्रेस जीती थी। उसके बाद से जनता दल या बीजेपी ही चुनाव जीतती रही। खासतौर से मेनका गांधी ने यहां से स्वतंत्र रहकर भी चुनाव जीता। उसके बाद उनके बेटे वरूण गांधी ने ये विरासत संभाली। इस आकलन के अनुसार देखा जाए तो जितिन प्रसाद को न सीट बदलने का नुकसान होता दिख रहा है और न पीलीभीत में कैंडिडेट बदलने का नुकसान बीजेपी को होता नजर आ रहा है।

चव्हाण की वजह से बीजेपी के लिए नांदेड़ का गढ़ मजबूत होगा

अब बात करते हैं अशोक चव्हाण की। अशोक चव्हाण कांग्रेस के बड़े नेता हैं और अब बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। वो नांदेड़ से सांसद रहे हैं और पिछला चुनाव हार गए थे। हालांकि, वो इस बार चुनावी मैदान में नहीं है। वो राज्यसभा में एंट्री ले चुके हैं। ये माना जा रहा है कि इस बार चव्हाण की वजह से बीजेपी के लिए नांदेड़ का गढ़ मजबूत होगा, लेकिन ये सीट लंबे समय से कांग्रेस की विरासत रही है। तो, क्या इस बार सिर्फ अशोक चव्हाण को देखकर मतदाता वोट करेंगे, जबकि चव्हाण खुद चुनावी मैदान में भी नहीं है।

महेंद्रजीत को बीजेपी ने राहुल को कांग्रेस ने टिकट दे दिया

राजस्थान की गहलोत सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे महेंद्रजीत सिंह मालवीय भाजपा में शामिल हो गए। इस बार वे कांग्रेस के टिकट पर बागीदौरा से कांग्रेस के विधायक थे, लेकिन बीजेपी में शामिल होते ही उन्होंने अपना इस्तीफा भेज दिया। 30 साल तक कांग्रेस में रहकर राजनीति करने वाले महेंद्रजीत सिंह मालवीय जब बीजेपी में शामिल हो गए तो उन्हें तुरंत लोकसभा चुनाव का टिकट दे दिया। मालवीय को बांसवाड़ा डूंगरपुर सीट से प्रत्याशी बनाया गया है। उधर चूरू से दो बार सांसद रहे राहुल कस्वां को बीजेपी ने इस बार टिकट नहीं दिया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए। दल बदलने के कुछ ही घंटे बाद कांग्रेस ने राहुल कस्वां को चूरू लोकसभा सीट से प्रत्याशी घोषित कर दिया है।

दल बदलुओं के अंजाम का अंदाजा लगाना फिलहाल मुश्किल...

एक मोटे आकलन के मुताबिक यूपी में 2017 में 14.6 प्रतिशत दल बदलने वाले ही चुनाव जीत पाए। 2012 में 8.4 फीसदी दल बदलू चुनाव जीत पाए थे। 2007 में 14.4 प्रतिशत दल बदलने वालों ने विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की थी। 2002 में भी इतने ही नेता दल बदलने के बावजूद जीत हासिल करने में कामयाब रहे थे। इसी आधार पर माना जा सकता है कि 100 दल बदलने वाले नेताओं में करीब 15 ही इलेक्शन जीत पाएंगे। हालांकि, इस बार सियासी दशा और दिशा समझ और बूझ से परे है और वोटर खामोश है। ऐसे में दल बदलुओं का क्या अंजाम होगा फिलहाल ये अंदाजा लगाना मुश्किल है।

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