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दीपावली हिन्दू धर्म का वह महान पर्व है जो कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह रात साल की सबसे काली रात होती है, लेकिन करोड़ों दीयों की रोशनी से यह रात ज्ञान और उल्लास के प्रकाश में बदल जाती है। इस पर्व का मूल उद्देश्य ही है- अज्ञान पर ज्ञान की विजय और अंधकार पर प्रकाश की जीत।
हम सब घर के अंदर और बाहर दीये जलाते हैं लेकिन एक खास परंपरा है जिसे आकाशदीप कहा जाता है। इसे घर के बाहर किसी ऊंचे बांस के खंभे पर या किसी ऊंची जगह पर लटकाया जाता है।
क्या आप जानते हैं कि यह ऊंचाई पर जलता हुआ दीये के पीछे एक प्राचीन विज्ञान भी है? आइए, धर्म-शास्त्रों और भारतीय परंपरा के आधार पर इस रिवाज का महत्व समझते हैं।
कैसा होता है आकाशदीपक
आकाशदीपक, जिसे आकाश कंदील भी कहते हैं, दिवाली पर घरों के बाहर, ऊंचे खंभों या छतों पर लटकाया जाने वाला एक विशेष दीपक या लालटेन है। बोलचाल की भाषा में, यह एक तरह से आसमान को दी गई रोशनी है।
यह इसलिए जरूरी माना जाता है क्योंकि पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक दिवाली पर हमारे पूर्वज धरती पर आते हैं।
आकाशदीप जलाकर उन्हें सही रास्ता दिखाया जाता है ताकि वे अपने लोक शांति से लौट सकें। साथ ही, यह प्रकाश का प्रतीक है, जो जीवन से अंधकार और नकारात्मकता को दूर करता है।
पितरों को मार्ग और देवताओं को आह्वान
आकाशदीप जलाने की परंपरा हमारे सनातन धर्म में हजारों सालों से चली आ रही है। इसका जिक्र कई पुराणों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। मान्यता है कि कार्तिक मास में हमारे पितर पृथ्वी लोक पर आते हैं और दिवाली के समय उनका स्वर्गलोक में जाने का समय होता है।
इस आकाशदीप की रोशनी उन दिवंगत आत्माओं को स्वर्ग तक जाने का सीधा और प्रकाशित मार्ग दिखाती है। जब हम अपने पितरों के लिए मार्ग रोशन करते हैं, तो वे प्रसन्न होकर हमें धन, समृद्धि और आरोग्य का आशीर्वाद देते हैं। यह परंपरा हमें यह भी याद दिलाती है कि हम अपनी पुरानी पीढ़ियों को नहीं भूले हैं और उनका सम्मान करते हैं।
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देवताओं का स्वागत
पौराणिक कथाओं के मुताबिक, जब भगवान राम 14 वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने उनके स्वागत में घर-घर में दीये जलाए थे।
ऊंचाई पर ज्योति कलश यानी आकाशदीप भी स्थापित किए थे। यह दीया देवताओं को पृथ्वी पर हमारे उत्सव की सूचना देता है और उनसे शुभता और कल्याण का आशीर्वाद मांगता है।
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तेज तत्त्व से वातावरण की शुद्धि
आकाशदीप सिर्फ एक धार्मिक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे भारतीय वास्तु शास्त्र और आयुर्वेद से जुड़ा एक सूक्ष्म विज्ञान भी है।
मौसम और जीवाणु का नाश
दिवाली का समय वह होता है जब गर्मी का मौसम जाकर सर्दियां शुरू होती हैं। इस संक्रमण काल में वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा और रोग फैलाने वाले सूक्ष्म जीवाणु बढ़ जाते हैं।
आकाशदीप में घी या तेल का दीया जलाया जाता है। घी और दीये की लौ से उत्पन्न होने वाला 'तेज तत्त्व' अपने आस-पास के पूरे वायुमंडल को शुद्ध करता है। यह लौ जीवाणु और रोगकारक तत्वों को जलाकर नष्ट करती है। ऊंचाई पर जलने के कारण इसका प्रभाव दूर-दूर तक जाता है।
नकारात्मक तरंगों पर नियंत्रण
वास्तु शास्त्र के मुताबिक, आकाशदीप को घर के बाहर ऊंचाई पर स्थापित करने से यह वायुमंडल की ऊपर और नीचे की ऊर्जा तरंगों को संतुलित करता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अमावस्या की रात और कार्तिक मास के दौरान पाताल लोक से आने वाली आपमय (जल-तत्त्व से जुड़ी) नकारात्मक तरंगें सक्रिय हो जाती हैं, जो घर में प्रवेश कर सकती हैं।
आकाशदीप में मौजूद तेज तत्त्व इन नकारात्मक तरंगों को नियंत्रित करता है और घर के चारों ओर एक सकारात्मक रक्षा कवच बनाता है। इस तरह यह केवल एक दीया नहीं, बल्कि पूरे घर की ऊर्जा को शुद्ध करने वाला प्राचीन यंत्र बन जाता है। पौराणिक कथाएं
लक्ष्मी और समृद्धि का संकेत
आकाशदीप का प्रकाश दूर तक जाता है। यह मां लक्ष्मी (मां लक्ष्मी की कृपा) को यह संदेश देता है कि यह घर प्रकाशित और शुद्ध है और देवी के स्वागत के लिए तैयार है।
जहां प्रकाश और सकारात्मकता होती है, वहीं धन और ऐश्वर्य का वास होता है। इस तरह आकाशदीप जलाना हमारे धर्म, विज्ञान और स्वास्थ्य के बीच का एक सुंदर और प्राचीन सेतु है जो हमें अंधकार से निकालकर वास्तविक प्रकाश की ओर ले जाता है।
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