रामायणनामा : 10 हजार राजा एक साथ नहीं तोड़ पाए शिव का धनुष, राम ने टुकड़े- टुकड़े किया

इस चराचर संसार में श्रीराम से पहले था रावण। उसके अत्याचार से देवता कराह उठे। सब देवताओं ने बैठकर मंथन किया। तय हुआ कि भगवान से मिलना है। भगवान का पता कोई बैकुंठपुरी बताता तो कोई कोई कहता कि प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं।

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Sandeep Kumar
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बालकाण्ड

रविकांत दीक्षित 

कहते हैं रामचरित मानस का बालकाण्ड प्रभु श्रीराम के चरण समान है। तो आईए इसकी शुरुआत करते हैं। 

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।

मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥ 

यानी...अक्षरों, अर्थ समूह, रस, छन्द और मंगल करने वाली मां सरस्वती एवं गणेश जी की हम वंदना करते हैं। 

प्रभु के गुणगान से पहले हम देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबका आहृवान करते हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है महाकाव्य रामचरित मानस। 

मानस में सबसे पहला है बालकाण्ड। 

यूं तो बालकाण्ड में ढेरों सूत्र हैं, लेकिन हम आपको बताते हैं भगवान श्रीराम के जन्म से लेकर उनके विवाह तक के सूत्र...

जय श्रीराम!!!

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भगवान के आने की राह देखने लगे देवता वानर

इस चराचर संसार में श्रीराम से पहले था रावण। उसके अत्याचार से देवता कराह उठे। सब देवताओं ने बैठकर मंथन किया। तय हुआ कि भगवान से मिलना है। भगवान का पता कोई बैकुंठपुरी बताता तो कोई कोई कहता कि प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं। तब शिवजी बोले, भगवान सब जगह हैं। यह सुनकर ब्रह्माजी की आंखों से आंसू बहने लगे, उन्होंने भगवान की स्तुति की।  देवताओं और पृथ्वी को डरा हुआ जानकर आकाशवाणी हुई। आकाश से गूंजा कि हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। मैं मनुष्य का रूप धारण करूंगा और सूर्यवंश में मनुष्य अवतार लूंगा। कश्यप और अदिति ने भारी तप किया है। मैं पहले ही उन्हें वरदान दे चुका हूं। वे दशरथ और कौसल्या के रूप में अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं। उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के साथ अवतार लूंगा। आसमान में ब्रह्म ( भगवान ) के वचन सुनकर देवता प्रसन्न हो गए। इसके बाद ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी शांत हुई। ब्रह्मा जी ने देवताओं को समझाया कि आप सब वानरों (बंदर) का शरीर धारण कर पृथ्वी पर जाओ और भगवान की सेवा करो। देवता पृथ्वी पर आ पहुंचे और भगवान के आने की राह देखने लगे। 

राजा दशरथ ने किया पुत्रेष्टि यज्ञ

अब नियति ने जो तय कर रखा था, उसी के हिसाब से सब आगे बढ़ रहा था। अयोध्या (अवधपुरी) में रघुकुल में राजा दशरथ जन्मे। उनकी तीन पत्नियां हुईं। कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा। दशरथ को कोई संतान नहीं थी। दु:खी मन से वे गुरु वशिष्ठ के यहां पहुंचे। दशरथ ने अपना दुःख उन्हें बताया। वशिष्ठ ने उन्हें समझाया। बोले, धैर्य धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे। वशिष्ठ ने तुरंत श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे दशरथ के यहां पुत्रकामेष्टि यज्ञ करवाया। हवनकुण्ड से अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लेकर प्रकट हुए। दशरथ ने इस खीर के दो भाग किए। आधा भाग रानी कौसल्या को दिया, जबकि आधी खीर के दो भाग किए। इसमें एक भाग रानी कैकेयी और दूसरा सुमित्रा को दिया। इस तरह तीनों रानी गर्भवती हुईं। जिस दिन से भगवान गर्भ में आए, तीनों लोकों में सुख, सम्पत्ति छा गई। कुछ दिन बाद वह समय आ ही गया जब प्रभु को प्रकट होना था। 

भगवान का जन्म और उनकी लीलाएं 

योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। पवित्र चैत्र के महीने में नवमी तिथि के दिन भगवान का जन्म हुआ। 

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥

भगवान प्रकट हुए। उनका श्याम शरीर था। पूरा संसार भक्ति में लीन हो गया। गुरु वशिष्ठ के पास बुलावा भेजा गया। वे राजद्वार पहुंचे। दशरथ ने जातकर्म-संस्कार किए। ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया। इसके बाद कैकेयी और सुमित्रा ने सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। कुछ दिन बाद नामकरण संस्कार हुआ। राजा दशरथ के सबसे बड़े पुत्र का नाम राम रखा गया। दूसरे पुत्र का नाम भरत, तीसरे का लक्ष्मण और चौथे पुत्र का नाम शत्रुघ्न रखा गया। समय बीतता गया और भगवान बड़े होते गए। शिक्षा, शास्त्र और शस्त्र में पारंगत होते गए। 

ताड़का वध की कहानी 

अब आगे की कथा आपको सुनाते हैं। मुनि विश्वामित्र जंगल में अपने आश्रम में रहते थे। जप, यज्ञ और योग चलते थे, लेकिन मारीच और सुबाहु उन्हें बहुत परेशान करते। मुनि ने राक्षसों से मुक्ति पाने की ठान ली। वे अयोध्या पहुंचे। वहां राजा दशरथ से कहा कि मैं राम और लक्ष्मण को लेने आया हूं। यह सुनकर दशरथ घबरा गए। तब वशिष्ठ ने उन्हें समझाया। यहां से दशरथ ने राम और लक्ष्मण को ऋषि विश्वामित्र के साथ भेज दिया। जब भगवान रास्ते में जा रहे थे, तब ताड़का मिली। राम ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए, इसी के साथ ताड़का अपने मूल स्वरूप में लौटी। 

मारीच और सुबाहु का वध 

मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को आश्रम में ले आए। अगले दिन जैसे ही मुनियों ने यज्ञ शुरू किया तो राक्षस मारीच आ धमका। भगवान ने एक बाण से उसे मार डाला। फिर सुबाहु को अग्निबाण दे मारा। इधर, छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना को निपटा दिया। इस तरह राम, लक्ष्मण ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय किया। इसके बाद विश्वामित्र राम को धनुषयज्ञ दिखाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में पत्थर की शिला देखकर राम को संकोच हुआ। उन्होंने विश्वामित्र से उसके बारे में पूछा। जवाब में मुनि ने कहा कि यह ऋषि गौतम की पत्नी हैं और श्राप की वजह से पत्थर हो गईं। आपके चरणों की धूल चाहती हैं। राम ने शिला पर पैर रखा तो अहल्या प्रकट हो गईं, उनका उद्धार हो गया। 

राम-लक्ष्मण जनकपुर पहुंचे 

राम, लक्ष्मण मुनि के साथ जनकपुर पहुंचे। मिथिला नरेश जनक को जब पता चला कि विश्वामित्र आए हैं तो वे झूम उठे। जनक ने मुनि से राम और लक्ष्मण का परिचय पूछा। जैसे ही उन्हें पता चला कि ये दशरथ के पुत्र हैं तो उन्हें महल में ले गए। इस बीच एक पहर बीत गया। भोजन के बाद राम, लक्ष्मण जनकपुर देखने के लिए निकल पड़े। घूमते हुए वे बगीचे में पहुंचे, जहां उन्होंने पहली बार सीता को देखा। उनके साथ और भी सखियां थीं। राम ने लक्ष्मण से कहा कि यह वही कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियां इसे गौरी पूजन के लिए बगीचे के मंदिर में लाई हैं। पूजा के बाद सीता महल लौट गईं। 

क्यों वीरों से खाली हो गई पृथ्वी?

अगले दिन राम, लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ यज्ञशाला में पहुंचे। राम का रूप देखकर यज्ञ में आए सब राजा ऐसे हार गए जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे नजर नहीं आते। इसी बीच सीता का यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। जनक ने कहा कि शिवजी के कठोर धनुष को आज यहां जो भी तोड़ेगा, जानकी उससे ब्याह रचाएंगी। यह सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो अभिमानी थे, वे तमतमा गए। कमर कसकर उठे और धनुष की ओर बढ़ चले। एक—एक कर सभी राजा धनुष की ओर देखते और निगाह जमाकर उसे पकड़ते, लेकिन धनुष नहीं उठता। यह काफी देर तक चलता रहा। जब बात नहीं बनी तो 10 हजार राजा एक बार में धनुष को उठाने लगे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इस पर राजा जनक ने कहा कि पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। सब घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं। जनक की बात सुनकर लक्ष्मण तमतमा उठे। राम ने इशारे से उन्हें मना किया। इसके बाद विश्वामित्र ने कहा, हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो। गुरु की बात सुनकर राम आगे बढ़े और एक पल में धनुष के टुकड़े—टुकड़े कर दिए। नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करने लगे। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग में यश फैल गया कि राम ने धनुष तोड़कर सीता को वरण कर लिया। 

परशुराम और लक्ष्मण में विवाद 

शिव के धनुष टूटने की आवाज सुनकर परशुराम आ पहुंचे। यह देख सीता को लेकर राजा जनक उनके पास पहुंचे। परशुराम ने आशीर्वाद दिया। फिर विश्वामित्र परशुराम से मिले। उन्होंने राम—लक्ष्मण को आशीर्वाद दिलाया। धनुष टूटा देखकर परशुराम क्रोध से भर गए। बोले, मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? नहीं तो मैं जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। जनक उत्तर नहीं दे सके। परशुराम ने कहा, हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह मेरा दुश्मन है। यह बात सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराए। परशुराम का अपमान करते हुए बोले- हे गोसाईं! लड़कपन में हमने कई धनुहियां तोड़ डालीं, आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता क्यों है? यह सुनकर परशुराम का क्रोध और बढ़ गया। बोले, मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूं। मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूं। विश्वामित्र ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु नहीं गिनते। फिर राम ने कहा, बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुंहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। राम बोले, हे मुनिराज! मैं आपका दास हूं। गुस्सा छोड़कर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा। तब परशुराम ने कहा, अरे शठ! तू शिव का धनुष तोड़कर हमीं को ज्ञान सिखाता है। तेरा यह भाई तेरी ही सहमति से गलत बात कहता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे। राम ने कहा, स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! आपका वेष देखकर बालक ने कुछ कह दिया, असल में उसका भी दोष नहीं है। अंत में परशुराम का गुस्सा शांत हुआ। देवताओं ने नगाड़े बजाए। जनकपुर फिर झूम उठा। राजा जनक ने राजा दशरथ के पास दूत भेजा। चिट्ठी में धनुष यज्ञ की बात पढ़कर वे खुश हो गए। अयोध्या से जनकपुरी के लिए बारात रवाना हुई। लोगों ने अपने-अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। 

चारों भाईयों का हुआ विवाह 

मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर बात की। जनक के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी, तो वे कहने लगे कि यहां के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं। अवध से बारात रवाना हो गई थी। 

जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥

संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥ 

यानी बारात में जिस श्रेष्ठ घोड़े पर राम सवार थे, उसका वर्णन सरस्वती जी भी नहीं कर सकतीं। बारात द्वार पर पहुंची तो भव्य स्वागत हुआ। उधर, सखियां सीता का शृंगार कर उन्हें मंडप में ले आईं। राम और जानकी आसन पर बैठे। उन्हें देखकर दशरथ पुलकित हो गए। विधि विधान से विवाह हुआ। इसी बीच वशिष्ठ की आज्ञा से राजा जनक ने विवाह का सामान सजाकर राजकुमारी माण्डवी, श्रुतकीर्ति और उर्मिला को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी बेटी माण्डवी का विवाह भरत से हुआ। जानकी की छोटी बहन उर्मिला लक्ष्मण से ब्याही गईं। श्रुतकीर्ति की शादी शत्रुघ्न से हुई। चारों भाईयों के विवाह के बाद बारात जनकपुरी से वापस अयोध्या पहुंची। शुभ मुहूर्त देखकर कंकण खोले गए।

आए ब्याहि रामु घर जब तें। 

बसइ अनंद अवध सब तब तें।।

प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। 

सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥ 

यानी जब से राम विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनंद-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते।  

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।

कलियुग के सभी पापों को नष्ट करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ॥

निरंतर...

कल के भाग में पढ़िए अयोध्या काण्ड का सार...।

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श्रीराम रामायण नामा राम का जन्म ताड़का वध मारीच व सुबाहु