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History of Ganeshotsav: गणेश चतुर्थी जिसे गणेशोत्सव के नाम से भी जाना जाता है, आज भारत का सबसे जीवंत और भव्य त्योहार बन चुका है। मुंबई की सड़कों से लेकर गोवा और पुणे के गलियारों तक हर जगह "गणपति बप्पा मोरया!" की गूंज सुनाई देती है।
यह 10 दिनों का उत्सव भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसकी शुरुआत और इसके राष्ट्रीय महत्व की कहानी बहुत दिलचस्प है। यह एक ऐसा त्योहार है जो धार्मिक आस्था के साथ-साथ सामाजिक एकता का प्रतीक भी बन गया।
गणेश जी को 'विघ्नहर्ता' यानी सभी बाधाओं को दूर करने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह विशाल सार्वजनिक उत्सव पहले केवल एक निजी पारिवारिक अनुष्ठान था?
इसकी कहानी सदियों पुरानी है और इसमें मराठा साम्राज्य, पेशवाओं का शासन और एक क्रांतिकारी नेता का दूरदर्शी दृष्टिकोण शामिल है। यह सिर्फ एक धार्मिक त्योहार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान और स्वतंत्रता संग्राम का एक शक्तिशाली प्रतीक है। आइए जानें...
गणपति उत्सव का इतिहास और प्रारंभिक जड़ें
शिवाजी महाराज और पेशवाओं का योगदान
गणेश चतुर्थी का उत्सव पहली बार सार्वजनिक रूप से छत्रपति शिवाजी महाराज ने 17वीं शताब्दी में शुरू किया था। वे मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे और उन्होंने पुणे में भगवान गणेश को अपने कुल देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया।
शिवाजी महाराज ने अपने साम्राज्य में एकता और राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत करने के लिए इस त्योहार को बढ़ावा दिया। यह उनके साम्राज्य में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठान बन गया।
शिवाजी के बाद, पेशवाओं ने भी गणेश चतुर्थी को अपनी प्रमुख परंपराओं में शामिल किया। पेशवा, जो मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्री थे, विशेष रूप से गणेश जी के उपासक थे।
पेशवाओं के शासनकाल में पुणे में यह उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा। जब पेशवाओं का शासन समाप्त हुआ तो इस उत्सव की भव्यता भी कम हो गई और यह अधिकतर परिवारों तक ही सीमित रह गया।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और उत्सव का पुनर्जागरण
भारत के इतिहास में एक ऐसा समय आया जब ब्रिटिश सरकार ने सार्वजनिक सभाओं और राजनीतिक गतिविधियों पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए थे।
19वीं सदी के अंत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपनी गति खो रहा था और लोगों के बीच एकता की भावना कमजोर पड़ रही थी। इसी चुनौती का सामना करने के लिए, महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने एक अनूठी रणनीति अपनाई।
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सामाजिक एकता का साधन
तिलक ने महसूस किया कि गणेश चतुर्थी का त्योहार लोगों को एकजुट करने और स्वतंत्रता संग्राम के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का एक आदर्श माध्यम हो सकता है।
1893 में उन्होंने पुणे में सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत की। उन्होंने तर्क दिया कि ब्रिटिश सरकार धार्मिक समारोहों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और इस तरह ये उत्सव राजनीतिक चर्चाओं, देशभक्ति के गीत गाने और राष्ट्रवाद की भावना फैलाने का एक सुरक्षित मंच बन गए।
तिलक ने 'केसरी' और 'मराठा' जैसे अपने समाचार पत्रों के माध्यम से इस उत्सव को सार्वजनिक रूप देने की अपील की। उन्होंने लोगों से आह्वान किया कि वे अपने घरों से गणेश प्रतिमाओं को लाकर सार्वजनिक पंडालों में स्थापित करें।
एक क्रांतिकारी कदम
- जन आंदोलन बना: यह उत्सव अब सिर्फ एक पारिवारिक अनुष्ठान नहीं रहा बल्कि एक सामूहिक और सार्वजनिक आंदोलन बन गया।
- सांस्कृतिक पुनर्जागरण: इसने भारतीय संस्कृति, परंपराओं और आध्यात्मिकता को पुनर्जीवित करने में मदद की।
- राष्ट्रवाद का प्रतीक: पंडालों में देशभक्ति के भाषण दिए जाते थे और स्वतंत्रता संग्राम के संदेश प्रसारित किए जाते थे।
तिलक की इस पहल का जबरदस्त असर हुआ। जल्द ही यह आंदोलन पूरे महाराष्ट्र में फैल गया और बाद में भारत के अन्य हिस्सों में भी लोकप्रिय हो गया।
इस तरह गणेश चतुर्थी एक साधारण धार्मिक पर्व से एक राष्ट्रीय पर्व में बदल गया जिसने लाखों भारतीयों को एक उद्देश्य के लिए एकजुट किया।
शायद ही कोई जानता होगा यह बात
गणेशोत्सव की शुरुआत लोकमान्य तिलक ने नहीं बल्कि उनके एक दोस्त श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी ने की थी। 1892 में, भाऊसाहेब ने पुणे में अपनी हवेली में गणेश जी की एक अनूठी मूर्ति स्थापित की जिसमें गणपति बप्पा को एक राक्षस को मारते हुए दिखाया गया था।
यह मूर्ति बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक थी और इसका उद्देश्य लोगों में देशभक्ति की भावना जगाना था। तिलक इस पहल से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपने अखबार 'केसरी' में इसकी सराहना की।
अगले ही साल 1893 में तिलक ने अपने अखबार के दफ्तर में गणपति की स्थापना की और इस उत्सव को जनता के बीच लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया।
तिलक ने पंडालों में ओजपूर्ण भाषण दिए, देशभक्ति के गीत गाए और गणेशोत्सव को एक सामाजिक और राजनीतिक मंच में बदल दिया।
उन्होंने गणेश जी को "विघ्नहर्ता" के रूप में प्रस्तुत किया, जो न केवल व्यक्तिगत बाधाओं को दूर करते हैं, बल्कि ब्रिटिश शासन की बाधाओं को भी दूर करने में मदद करेंगे। इस तरह, जो उत्सव पहले सिर्फ घरों में मनाया जाता था, वह एक राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन गया।
आजादी के बाद का सफर
आजादी के बाद भी गणपति उत्सव की प्रासंगिकता बनी रही। यह अब भी एकता, संस्कृति और समुदाय का प्रतीक है। महाराष्ट्र, विशेषकर मुंबई में यह उत्सव अपनी भव्यता और उत्साह के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
- गणेश स्थापना: गणेश चतुर्थी के दिन, भक्त अपने घरों और सार्वजनिक पंडालों में भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करते हैं।
- पूजा और आरती: पूरे 10 दिनों तक गणेश जी की विशेष पूजा, आरती और भजन-कीर्तन होते हैं।
- मोदक और प्रसाद: गणेश जी को उनके प्रिय व्यंजन, मोदक, का भोग लगाया जाता है।
- सांस्कृतिक कार्यक्रम: पंडालों में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, लोक नृत्य, नाटक और सामाजिक जागरूकता के कार्यक्रम आयोजित होते हैं।
- विसर्जन: उत्सव के अंत में, अनंत चतुर्दशी के दिन, गणेश प्रतिमाओं को ढोल, ताशे और धूमधाम के साथ जल में विसर्जित किया जाता है।
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आधुनिक युग में गणपति उत्सव
आज गणेश चतुर्थी का उत्सव भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में भारतीय समुदायों द्वारा मनाया जाता है। इस त्योहार में अब पर्यावरण और सामाजिक जिम्मेदारी का भी समावेश हो गया है।
- ईको-फ्रेंडली गणेश: पर्यावरण के प्रति बढ़ती जागरूकता के कारण, लोग अब मिट्टी और अन्य बायोडिग्रेडेबल सामग्रियों से बनी मूर्तियों को पसंद कर रहे हैं।
- सामाजिक संदेश: कई पंडाल सामाजिक मुद्दों जैसे कि स्वच्छता, शिक्षा, और महिला सशक्तिकरण पर आधारित थीम रखते हैं।
- ग्लोबल पहचान: इस उत्सव ने दुनिया भर में भारत की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया है।
तो गणपति उत्सव की कहानी एक धार्मिक अनुष्ठान से शुरू होकर एक राष्ट्रीय आंदोलन तक जाती है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि कैसे धर्म और संस्कृति का उपयोग सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है।
लोकमान्य तिलक ने इस त्योहार को एक नया आयाम दिया, जिसने भारत को आजादी की लड़ाई में एक मजबूत पहचान दिलाई। आज भी यह उत्सव लोगों को एक साथ लाता है और हमें अपनी समृद्ध विरासत और एकता की याद दिलाता है।
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