रविकांत दीक्षित @. अरण्यकाण्ड: इंद्र का पुत्र कौआ बना तो उसकी आंख फोड़ी, राम ने खाए शबरी के बेर, जटायु को मार रावण ने किया सीता हरण
श्री रामचरितमानस प्रभु श्रीराम का वांग्मय स्वरूप है। श्रीराम भारत की आत्मा हैं। वे हमारी रक्षा के प्रतीक हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रमाण हैं। श्रीराम के जीवन में संपूर्ण विचारधाराओं का समावेश हैं। उनका चरित्र स्वयं महाकाव्य है। राम केवल नाम भर नहीं, बल्कि वे जनमानस के जनजीवन की सार्थकता हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी कृत श्री रामचरित मानस के तृतीय सौपान 'अरण्यकाण्ड' में हम आपको बताने जा रहे हैं शूर्पणखा वध से सीता हरण तक की दास्तां...।
अरण्यकाण्ड हमें सिखाता है कि तप और संयम से ही जीवन में दिव्यता आती है। श्रीराम ने वन में अन्न ग्रहण नहीं किया, केवल कंद-मूल और फल खाए। श्रीफल से बने पात्र में जल पान किया। इस तरह राम जी निर्विकारी रहे। अरण्यकाण्ड में सूपर्णखा और शबरी की दास्तां है। शूर्पणखा मोह का प्रतीक है, जबकि शबरी भक्ति की प्रतीक हैं।
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरं,
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे।।
यानी, जिनका शरीर पानी से भरे मेघ की तरह सुंदर (श्यामवर्ण) है। जो पीले वस्त्र धारण किए हैं, जिनके हाथों में धनुष- बाण हैं। कमल की तरह विशाल नेत्र हैं। जो मस्तक पर जटाजूट धारण किए हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी को हम नमन करते हैं।
अब अरण्यकाण्ड...
राम ने इंद्र के पुत्र की आंख फोड़ी
भगवान श्रीराम वन में सीता जी एवं भाई लक्ष्मण के साथ अपना वनवास बिता रहे हैं।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए, निज कर भूषन राम बनाए।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर, बैठे फटिक सिला पर सुंदर।।
यानी एक बार फूलों से रामजी ने कुछ गहने बनाकर सीताजी को पहनाए। इसी बीच देवराज इंद्र का पुत्र जयंत कौए का रूप धरकर रघुनाथजी का बल देखने पहुंचा। वह सीताजी के चरणों में चोंच मारकर उड़ गया। रामजी ने धनुष ताना तो कौआ डर गया। वह अपने असली रूप में पिता इंद्र के पास पहुंचा, लेकिन रामजी का विरोधी जानकर इंद्र ने उसे आश्रय नहीं दिया। इससे निराश होकर वह भटकता रहा। नारद जी ने जयंत को व्याकुल देखकर उसे राम जी के पास ही भेज दिया। जयंत राम जी के आश्रम पहुंचा और बोला, हे शरणागत! मेरी रक्षा कीजिए। यूं तो उसने राम जी के साथ छल किया था, इसलिए उसे मरना ही था, लेकिन दयालु भगवान ने उसकी एक आंख फोड़ दी।
राक्षसों कई मुनियों को मार डाला
इसके बाद यहां अपने आश्रम में सब मुनियों से विदा लेकर राम जी आगे अत्रि जी के आश्रम में गए। मुनि ने हाथ जोड़कर कहा...
नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदांबुजं, अकामिनां स्वधामदं॥
यानी हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! आपको नमस्कार। यहीं सीता जी की अनसूया जी (अत्रि जी की पत्नी) से भेंट हुई। अत्रि जी का आशीर्वाद लेकर राम जी वन को चले। जहां-जहां रघुनाथ जी जाते, वहां-वहां बादल आकाश में छाया करते जाते। रास्ते में उन्हें राक्षस विराध मिला। सामने आते ही रघुनाथ जी ने उसे मार डाला। प्राण त्यागते हुए उसने सुंदर रूप प्राप्त किया। उसे दुःखी देखकर रामजी ने उसे परम धाम भेज दिया। आगे चलकर राम जी मुनि शरभंग जी के आश्रम पहुंचे। मुनि बोले, आज प्रभु को देखकर मैं तर गया। इस तरह चिता रचकर मुनि शरभंग जी ने शरीर को जला डाला। राम जी यहां से फिर आगे चल पड़े। कई मुनि भी उनके साथ थे। रास्ते में हड्डियों का ढेर देखकर रामजी चिंतित हो गए। उन्हें बताया गया कि यह मुनियों की हड्डियां हैं, जिन्हें राक्षसों ने खा लिया है। यह सुनते ही राम जी दुखी हो गए। उन्होंने प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूंगा।
देवता डरे तो राम जी ने रची माया
इसके बाद राम जी एक- एककर कई मुनियों के आश्रमों में पहुंचे। अगस्त्य ऋषि से मिलकर राम जी ने कहा, आपसे कुछ छिपा नहीं है। इसलिए आप मुझे वह मंत्र दीजिए, जिससे राक्षसों को मार सकूं। अगस्त्य जी ने कहा, प्रभु! दण्डक वन में रहें। यह सुनकर राम जी वहां चले गए। यहां गिद्धराज जटायु से उनकी भेंट हुई। राम जी अब गोदावरी नदी के पास कुटी बनाकर रहने लगे थे। अब एक दिन रावण की बहन शूर्पणखा पंचवटी पहुंची। वह नागिन की तरह भयानक थी। राम, लक्ष्मण को देखकर वह उन पर मोहित हो गई। उसने सुंदर रूप बनाया और भगवान के पास पहुंची। मुस्कुराकर बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे जैसी कोई स्त्री। वह राम जी के पास पहुंची तो उन्होंने उसे लक्ष्मण जी के पास भेज दिया। लक्ष्मण जी ने फिर राम के पास भेज दिया। कई बार ये क्रम चला। यह देखकर वह गुस्से से भर गई। सीता जी को डरा हुआ देखकर रघुनाथ जी ने लक्ष्मण को इशारा दिया। इशारा मिलते ही लक्ष्मण जी ने उसकी नाक और कान काट दिए। भागकर वह अपने भाई खर-दूषण के पास पहुंची और पूरी बात बताई। बहन की बात सुनकर खर-दूषण और त्रिशिरा तीनों भाइयों ने राक्षसों की सेना तैयार की। सेना को आते देखकर राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा कि सीता को लेकर पर्वत पर चले जाओ। इसके बाद राम जी ने धनुष की टंकार की और राक्षसों को काट डाला। भयंकर युद्ध देखकर देवता भी डर जाते हैं। वे कहते हैं, प्रेत (राक्षस) 14 हजार हैं और राम जी अकेले हैं। देवता और मुनियों को डरा हुआ देखकर राम जी ने माया रची, जिससे राक्षसों की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी। सब एक दूसरे को देखकर कहते कि यही राम है, इसे मारो। इस तरह राम जी ने क्षण भर में खर-दूषण सहित सभी राक्षसों को मार डाला।
रावण की सभा में पहुंची शूर्पणखा
खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने रावण को भड़काया। उसने कहा, रावण, तूने देश और खजाने की सुधि भुला दी। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? रावण की सभा में शूर्पणखा रोते हुए बोली, अरे दशग्रीव! तेरे जीते जी मेरी क्या दशा हो गई। लंकापति रावण ने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए? शूर्पणखा बोली, अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे लग रहा है कि वे पृथ्वी से राक्षसों का नाश कर देंगे। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काटे हैं। उनके साथ एक सुंदर स्त्री (सीता जी) है। मैं तेरी (रावण) बहन हूं, यह सुनकर वे मेरी हंसी उड़ाने लगे। मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण आए, लेकिन उन्होंने पूरी सेना को मार डाला। खर-दूषण और त्रिशिरा की मौत की खबर सुनकर रावण जल उठा। रावण ने शूर्पणखा को समझाया, पर उसे रात भर नींद नहीं आई। वह सोचने लगा कि खर-दूषण तो मेरे जैसे बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवाय और कौन मार सकता है? भगवान ने यदि अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊंगा। यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार हुए तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूंगा।
मारीच ने हिरण का रूप धरा
इधर, पंचवटी में भगवान निवास कर रहे थे। एक दिन लक्ष्मण जी जब कंद-मूल-फल लेने वन में गए तो राम जी ने जानकी जी से कहा कि मैं मनुष्य लीला करूंगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूं, तब तक तुम अग्नि में निवास करो। उसी वक्त सीता अग्नि में समा गईं। सीता जी ने अपनी छाया मूर्ति वहां रख दी, जो उनके जैसे ही थी। इस तरह भगवान ने जो लीला रची, वह रहस्य लक्ष्मण जी को भी नहीं पता था। इस बीच स्वार्थ से भरा रावण मारीच के पास पहुंचा। रावण ने उसे शूर्पणखा का किस्सा बताया। बोला, तुम कपटमृग बनो, ताकि मैं उस स्त्री का हरण कर सकूं। मारीच ने रावण को समझाया कि वे मनुष्य रूप में भगवान हैं। उनसे वैर मत करो। यह सुनकर रावण क्रोधित हो गया। आखिरकार मारीच ने तय किया कि वह भगवान के बाण से ही मरना चाहता है। रावण कुटी के पास पहुंचा। यहीं मारीच कपटमृग बन गया। सीता जी ने उस सुंदर हिरण (मारीच) को देखा, तो उन्होंने राम जी से कहा कि मुझे यह हिरण चाहिए। रघुनाथ जी (मारीच के कपटमृग बनने का) सब कारण जानते हुए भी हर्षित हो गए। उन्होंने लक्ष्मण जी को सीता जी की रक्षा करने का आदेश दिया और स्वयं हिरण के पीछे दौड़ पड़े। हिरण छल करता हुआ राम जी को दूर ले गया। तब राम ने बाण मारा, जिससे हिरण मर गया। प्राण त्याग करते समय उसने राक्षसी शरीर प्रकट किया। मारीच को मारकर राम जी तुरंत लौटे। इधर, जब सीता जी ने आवाज (मरते समय मारीच की 'हा लक्ष्मण' की आवाज) सुनी तो वे लक्ष्मण जी से कहने लगीं कि शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं। लक्ष्मण जी ने सीता जी को बहुत समझाया पर वे नहीं मानीं। तब लक्ष्मण जी सीता जी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंपकर राम जी की ओर चल दिए।
रावण ने पक्षी राज जटायु के पंख काटे
रावण मौका देखकर पंचवटी में संन्यासी के वेष में सीता जी के पास पहुंचा। रावण ने कई कहानियां बनाईं और अपने असली रूप में आ गया। सीता जी डर गईं। रावण ने उन्हें रथ पर बैठा लिया और आकाश मार्ग से चल पड़ा। सीता जी का विलाप सुनकर सभी जीव दुःखी हो गए। पक्षीराज जटायु ने रावण का पीछा किया। उन्होंने रावण के बाल पकड़कर उसे रथ से नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। जटायु सीता जी को एक ओर बैठाकर फिर लौटे और चोंच मार-मारकर रावण के शरीर को जख्मी कर दिया। इससे क्रोधित रावण ने भयानक कटार निकाली और जटायु के पंख काट डाले। यहां से सीता जी को फिर रथ पर चढ़ाकर रावण निकल गया। पर्वत पर बैठे बंदरों को देखकर सीता जी ने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिए। लंका पहुंचकर रावण ने सीता जी को अशोक वन में रखा।
जटायु का किया दाह संस्कार - शबरी
इधर, जब राम जी ने भाई लक्ष्मण जी को आते देखा तो वे चिंता में डूब गए। बोले, भाई! तुमने जानकी को अकेला छोड़ दिया और मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर यहां आ गए। मुझे ऐसा लग रहा है कि सीता आश्रम में नहीं है। लक्ष्मण जी बोले, मेरा दोष नहीं है प्रभु। दोनों जल्दी आश्रम पहुंचे, लेकिन वहां सीता जी नहीं थीं। दोनों उन्हें खोजने के लिए निकल पड़े। आगे उन्हें जटायु मिले। घायल जटायु ने पूरी बात बताई और राम जी की गोद में प्राण त्याग दिए। राम ने उनका दाह संस्कार किया। आगे चलकर राम जी शबरी जी के आश्रम पहुंचे। उन्होंने रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर राम जी को दिए। प्रभु ने प्रशंसा करते हुए फल खाए। यहीं राम जी ने शबरी को नवधा भक्ति बताई।
फिर राम बोले, यदि आप जानकी के बारे में कुछ जानती हों तो बताइए। शबरी ने कहा, आप आगे पंपा नामक सरोवर की ओर जाइए। वहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। पूरी कथा कहकर शबरी ने भी प्राण त्याग दिए। अब यहां से राम जी और लक्ष्मण जी आगे चले। रास्ते में उनका देवर्षि नारद से संवाद हुआ।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाले श्री रामचरितमानस का यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
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