रामायणनामा : देवता नहीं चाहते थे राम राजा बनें, सरस्वती जी ने फेरी मंथरा की बुद्धि और फिर वनवास

राजा ने कहा, झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार वर मांग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएं, पर वचन नहीं जाता।

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Sandeep Kumar
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रविकांत दीक्षित @. अयोध्या काण्ड: जनकपुर से बारात अयोध्या पहुंच गई थी। पूरी अयोध्या राममय थी।  

गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरित मानस के द्वितीय सौपान अयोध्या काण्ड में हम आपको बताने जा रहे हैं श्रीराम वनगमन से लेकर भरत मिलाप तक की दास्तां...। 

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांग सीतासमारोपितवामभागम्‌।

पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्‌॥

नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, सीताजी जिनके वाम भाग में विराजमान हैं। जिनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष है, उन रघुवंश के स्वामी श्री रामचन्द्रजी को हम नमस्कार करते हैं। 

अब अयोध्याकाण्ड...

अवध में राज्याभिषेक की तैयारी 

दशरथ जी ने रामजी के राज्याभिषेक का मन बनाया। वशिष्ठ जी के मार्गदर्शन में जोर-शोर से तैयारियां होने लगीं। राम के राज्याभिषेक की खबर सुनकर मां सुमित्रा ने मणियों (रत्नों) के चौक पूरे। फिर वशिष्ठ जी ने राम जी को यह खबर दी…   

सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥

तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठइअ काज नाथ असि नीती।।

यानी राम ने कहा कि सेवक के घर स्वामी का आना मंगलों का मूल और अमंगलों का नाश करने वाला होता है। हे नाथ! सही तो यह होता कि आप मुझे बुलाते। वशिष्ठ जी बोले, हे राम! आप सूर्यवंश के भूषण हैं। वशिष्ठ जी ने राम जी को राज्याभिषेक की खबर दी। साथ कहा कि आज से आप उपवास शुरू कर दीजिए। 

अयोध्या में जब छाई खुशी, पर...

भरत जी और शत्रुघ्न जी अपने मामा यानी ननिहाल गए थे। इधर, अयोध्या में खुशी का वातावरण था। इधर देवताओं के आग्रह पर सरस्वती जी ने न चाहते हुए भी कैकेई की मंदबुद्धि दासी मंथरा की बुद्धि फेर दी। राम के राजतिलक की बात सुनते ही वह जल उठी। वह भरत की मां कैकेयी के पास पहुंची। मंथरा बोली, हे माई! तुम्हारा पुत्र परदेस में है। तुम्हें कुछ सोच नहीं। तुम्हें तो पलंग पर पड़े-पड़े नींद लेना अच्छा लगता है। दशरथ की कपटभरी चतुराई नहीं दिखती।  इस बात पर कैकई ने कहा, बस...अब चुप रह घरफोड़ी कहीं की!  बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की रीति है।  मंथरा ने तंज कसा। जब कैकई ने पूछा कि तू क्या चाहती है तो मंथरा बोली, आप तो सीधी- साधी हो, पर राजा दशरथ मन के मैले और मुंह के मीठे हैं। कौसल्या चतुर और गंभीर है। राजा ने भरत को ननिहाल भेज दिया, अब वे राम का राज्याभिषेक करने जा रहे हैं। राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। इसलिए कौसल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती, इसलिए उसने जाल बुनकर राजा को अपने वश में कर लिया। आखिरकार कैकेयी मंथरा की बातें सुनकर डर गईं और कहा, तेरी बात सही है। मंथरा ने कहा, राजा दशरथ के पास तुम्हारे दो वरदान धरोहर हैं। आज उन्हें राजा से मांग लो। एक वरदान में पुत्र (भरत) को राज्य और दूसरे वरदान में राम को वनवास। 

कैकेयी का कोपभवन में जाना

कैकई अब कोपभवन में थीं। शाम को राजा दशरथ वहां पहुंचे, लेकिन कैकई की हालत देखकर वे डर गए। राजा ने पूछा, हे गजगामिनी! क्या हुआ। कुछ तो बोलो, चाहे अपनी मनचाही बात मांग लो। यह सुनकर कैकेयी उठ गईं और बोलीं, हे प्रियतम! आप मांग- मांग तो कहते हैं, पर देते-लेते कुछ नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है। 

झूठेहुं हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।

रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुं परु बचनु न जाई।।

दो के बदले चार वर मांग लो

राजा ने कहा, झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार वर मांग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएं, पर वचन नहीं जाता। कैकई ने अपना पहला वर मांगा कि राम की जगह भरत को राजा बनाया जाए और राम को वनवास मिले। 

यह सुनकर  दशरथ सहम गए। उनका रंग उड़ गया। मगर कैकई जिद पर अड़ी रही।  आखिरकार, दशरथ ने कहा, मैं सबेरे दूत भेजूंगा। अच्छा दिन देखकर भरत को राज्य दे दूंगा। राम को राज्य का लोभ नहीं है, लेकिन दूसरा वचन कठिन है। कैकई ने कहा, सबेरा होते ही राम वन को नहीं गए तो मैं मर जाऊंगी। दशरथ बोले, तू मेरा मस्तक मांग ले, मैं दे दूंगा, पर राम की विरह में मत मार। यह कहते कहते दशरथ जी का शरीर शिथिल पड़ गया। वे गिर पड़े। राम- राम रटते सुबह हो गई। सुबह राम अपने पिता से मिलने पहुंचे, पर उनकी स्थिति देखकर वे सहम गए। राम ने कैकई से पिता की स्थिति का कारण पूछा। कैकई बोलीं, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है। इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा था। इधर पुत्र का स्नेह है और उधर वचन (प्रतिज्ञा)। राजा इसी धर्मसंकट में हैं। यदि तुम कर सकते हो तो राजा की आज्ञा मानो और दु:ख मिटा दो। इस तरह कैकई ने दो वरदान की पूरी बात बता दी। इस बीच दशरथ को होश आया तो राम ने कहा, पिताजी! आज्ञा दीजिए। आपकी आज्ञा का पालन करके मैं लौट आऊंगा। ऐसा कहकर राम मां कौसल्या का आशीर्वाद लेने महल में चले गए।  

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कौसल्या ने दिया आशीर्वाद 

राम मां कौसल्या के महल में पहुंचे। राम जी ने चरण स्पर्श कर मां को बात बताई। बोले, पिताजी ने मुझे वन का राज्य दिया है। मैं चौदह वर्ष वन में रहकर, पिताजी के वचन को पूरा करके लौट आऊंगा। थोड़ी देर मौन रहकर कौसल्या बोलीं, मैं बलिहारी जाती हूं, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन सबसे बड़ा है, तभी यह सुनकर सीताजी व्याकुल हो गईं। उन्होंने राम के साथ वन जाने की आज्ञा मांगी। राम ने, कौसल्या ने सीता को खूब समझाया, पर वे नहीं मानीं। और बोलीं..  

मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। 

पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥ 

यानी मैंने मन को बहुत समझाया, पर पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख नहीं है। सीता जी की दशा देखकर राम जी जान गए कि वे अकेली नहीं रह सकेंगी। 

लक्ष्मण भी साथ हो लिए

राम के वन गमन की खबर जब भाई लक्ष्मण को मिली तो वे टूट गए। वे भी साथ जाने की जिद करने लगे। तब राम ने कहा, भाई! पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न नहीं हैं। महाराज वृद्ध हैं। उन्हें मेरा दुःख है। लक्ष्मण ने राम के पैर पकड़ लिए। आखिरकार राम मान गए। लक्ष्मण तत्काल मां सुमित्रा के पास पहुंचे और उनसे आशीर्वाद लिया। बेटे की बात जानकर सुमित्रा बोलीं, मैं बलिहारी जाती हूं, तुम सौभाग्यशाली हो। इसके बाद राम, लक्ष्मण और सीता राजा दशरथ से विदा लेने पहुंचे। अंतत: तीनों राम-सीता-लक्ष्मण अयोध्यावासियों को सोए ( सोता हुआ ) छोड़कर आगे बढ़ गए। उनके साथ मंत्री सुमंत्र भी थे।  

केवट ने नहीं दी अपनी नाव 

नदी किनारे पहुंचने पर राम ने केवट निषाद राज से नाव मांगी, पर उन्होंने नाव नहीं दी। निषाद राज बोले, मैं इसी नाव से परिवार चलाता हूं। आप गंगा पार जाना चाहते हैं तो मुझे अपने चरण पखारने (धो लेने) के लिए कह दो। मैं आपको नाव पर चढ़ा लूंगा। राम केवट से बोले भाई! जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे। निषाद राज ने चरण धोऐ और जल (चरणोदक) को पीकर राम जी को गंगाजी के पार ले गए।  

दोहा...

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥

सीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएं।।

पुत्र वियोग में दशरथ ने प्राण त्याग दिए

राम के चरण चिह्नों के बीच-बीच में पैर रखती हुई सीता जी डरती हुईं चल रही हैं। लक्ष्मणजी सीता जी और राम जी दोनों के चरण चिह्नों को बचाते हुए दाहिने रखकर चलते जा रहे हैं। सीता को थका हुआ जानकर राम जी वृक्ष के नीचे रुक गए। यहीं रात बिताई। अगले दिन राम जी वाल्मीकि जी के आश्रम जा पहुंचे। वाल्मीकि ने उनका स्वागत, सत्कार किया। फिर उनसे कहा कि आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए। राम जी ने वहीं आशियाना बना लिया। इधर पुत्र वियोग में दशरथ ने प्राण त्याग दिए। ननिहाल से वापस लौटे भरत और शत्रुघ्न ने पिता का अंतिम संस्कार किया और राज्य वापस राम को सौंपने भरत उनसे मिलने वन की ओर चल पड़े। 

जब राम जी से मिले भरत

इधर, राम जी को कोल-किरातों ने भरत के आने की सूचना दी। राम सोच में पड़ गए कि भरत क्यों आ रहे हैं? इस खबर से लक्ष्मण क्रोधित हो गए। राम ने लक्ष्मण को खूब समझाया। भरत की महिमा बताई। इस बीच भरत चित्रकूट आ पहुंचे थे। आश्रम में प्रवेश करते ही भरत का दुःख मिट गया। उन्होंने देखा कि लक्ष्मण प्रभु राम के आगे खड़े हैं। यह देखकर राम जी प्रेम में अधीर हो गए। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण। 



बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।

भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।। 

यानी कृपा निधान राम ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। भरत जी और राम जी के मिलन की रीति को देखकर सब अपनी सुध भूल गए। फिर लक्ष्मण और भरत मिलाप हुआ। वशिष्ठ जी ने राजा दशरथ के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। यह सुनकर रघुनाथ दु:खी हो गए। वज्र के समान कठोर, कड़वी बात सुनकर लक्ष्मण जी, सीता जी और सब रानियां विलाप करने लगीं। दूसरे दिन सबेरा होने पर वशिष्ठ जी ने रघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य उन्होंने -भक्ति सहित आदर के साथ किया॥ वेद अनुसार उन्होंने क्रिया की एवं शुद्ध हुए। विदाई का समय आया तो राम ने भरत को संबोधित करते हुए कहा, हम दोनों भाई पिताजी की आज्ञा का पालन करें। भरत के प्रेमवश राम ने उन्हें अपनी खड़ाऊं दे दीं और भरत ने उन्हें आदरपूर्वक सिर पर धारण कर लिया। यहां से भरत ने प्रणाम करके विदा मांगी, तब राम ने उन्हें हृदय से लगा लिया।  

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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने द्वितीयः सोपानः समाप्तः। 

कलियुग के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरित मानस का यह दूसरा सोपान समाप्त हुआ॥

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निरंतर...

अगले भाग में पढ़िए अरण्यकाण्ड...

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गोस्वामी तुलसीदास अयोध्या काण्ड अयोध्या राममय