रविकांत दीक्षित @. रामायणनामा: भाग 7 उत्तरकाण्ड: रावण वध के बाद पुष्पक विमान से अयोध्या पहुंचे भगवान श्रीराम, हुआ राज्याभिषेक। अयोध्या पहुंचने पर लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान, अंगद और हनुमान जी ने मनुष्य रूप धारण कर लिया था।
श्री रामचरित मानस का उत्तरकाण्ड श्रीराम जी 'मस्तक' स्वरूप है। इस काण्ड में सभी शास्त्रों का सार तत्त्व है। इसमें हम आपको बताने जा रहे हैं अयोध्या में राम जी का स्वागत। भरत मिलाप और राम जी के राज्याभिषेक से लेकर गरुड़ जी के सवाल तथा काकभुशुण्डि जी के उत्तर देने तक की दास्तां।
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं।
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥
यानी मोर के कण्ठ की आभा के समान नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमल नेत्र, हाथों में बाण और धनुष लिए जानकी जी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्री रामचंद्रजी को मैं नमन करता हूं।
अब उत्तरकाण्ड...
राम जी पुष्पक विमान में सवार होकर अयोध्या के लिए निकल पड़े थे। उनके पहुंचने में एक दिन बाकी रह गया था। इतने में सब सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हो गए। अयोध्या चारों ओर से रमणीक हो गई। अंतत: विमान अयोध्या पहुंच गया। भरत जी के साथ सब लोग आए। राम जी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें नमस्कार किया। फिर भरत जी ने प्रभु का आशीर्वाद लिया। राम जी सब माताओं से मिले। इधर, लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान, अंगद और हनुमान जी ने मनुष्य रूप धारण कर लिया था। राम जी ने सबको गुरु वशिष्ठ से मिलाया। अब राम जी के राज्याभिषेक की तैयारियां शुरू की गईं।
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥
भावार्थ: अयोध्या की सौंदर्य देखते ही बन रहा था। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्री रामचंद्र जी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ। फिर राम जी ने अपनी जटाएं खोलीं और गुरुजी की आज्ञा मांगकर स्नान किया। प्रभु ने आभूषण धारण किए। उन्हें देखकर असंख्य कामदेव लजा गए। अब राम जी सिंहासन पर विराजमान हुए। वशिष्ठ जी ने उन्हें पहला तिलक लगाया। इसके बाद सब माताओं ने बारी—बारी से उनका तिलक किया। शिव जी भगवान श्रीराम से मिलने पहुंचे और उनकी स्तुति की। अंत में सभी देवता अपने धाम को गए। अब राम जी ने सभी वानरों की विदाई की। तब हनुमान जी ने वानरराज सुग्रीव से कहा कि मैं कुछ दिन प्रभु श्रीराम की सेवा करना चाहता हूं। सुग्रीव ने कहा- हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो। भगवान की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर चल पड़े। फिर राम जी ने निषादराज को बुलाया और उन्हें भूषण, वस्त्र प्रसाद में देते हुए उन्हें भी विदा किया।
अयोध्या में राम राज
अब अयोध्या में राम राज लौट आया था। उनके राज्य में चंद्रमा ने अपनी अमृतमयी किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर दिया। सूर्य उतना ही तपते, जितनी जरूरत होती। बादल भी उतने ही बरसते, जितनी आवश्यकता होती थी। रोज सभा लगती। एक दिन राम जी ने सभी अयोध्यावासियों को नीतिगत उपदेश दिया। नारद जी ने भी आकर राम जी का आशीर्वाद लिया और ब्रह्मलोक को चले गए।
यह पूरी कथा शिवजी मां गिरिजा से कहते हैं।
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा।
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा॥
शिवजी कहते हैं- हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्री रामजी के चरित्र सौ करोड़ हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते। भगवान श्रीराम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, जन्म, कर्म और नाम भी अनंत हैं। जल की बूंदें और पृथ्वी के रजकण चाहे गिने जा सकते हों, पर श्री रघुनाथ जी के चरित्र का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके बाद शिव जी ने काकभुशुण्डि जी द्वारा गरुड़ जी को सुनाई गई कथा का वर्णन किया।
अब हम आपको बताते हैं गरुड़ जी के प्रश्न और काकभुशुण्डि जी के उत्तर...
गुरुड़ जी बोले—
सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है?
सबसे बड़ा दुःख क्या है?
सबसे बड़ा सुख कौन सा है?
सबसे महान पुण्य कौन सा है,
सबसे भयंकर पाप कौन सा है?
मानस रोग क्या है?
—काकभुशुण्डिजी ने कहा- हे तात! मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है।
— जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है और संतों के मिलने के समान कोई सुख नहीं है। शंकर जी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य अगले जन्म में मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है।
— ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है। जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं।
— संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है। जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं।
हे तात! अब मानस रोग सुनिए।
— सब रोगों की जड़ अज्ञान है। काम वात है, लोभ कफ है और क्रोध पित्त है, जो हमेशाा छाती जलाता रहता है। ममता दाद है,ईर्ष्या खुजली है। पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।
— अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला कुष्ठ रोग है। कपट, मद और मान नसों का रोग है। तृष्णा उदर वृद्धि रोग है। मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। श्री रघुनाथ जी की भक्ति संजीवनी जड़ी है।
हे पक्षीराज! राम जी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि रघुनाथ जी की भक्ति के बिना सुख नहीं है। वे उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि...
— कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आएं, बांझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही फूल खिल उठें, लेकिन श्रीहरि से दूर होकर कोई सुख नहीं प्राप्त कर सकता।
— मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आएं, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, बर्फ से भले ही आग प्रकट हो जाए, लेकिन राम जी की भक्ति के बिना कोई सुख नहीं पा सकता।
— जल को मथने से भले ही घी निकल आए और बालू को पेरने से भले ही तेल निकल आए, पर श्रीहरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥
आपको बता दें कि भगवान शंकर जी ने पहले जिस मानस-रामायण की रचना की थी, उस मानस रामायण को तुलसीदास जी ने इस मानस के रूप में भाषाबद्ध किया है।
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।
यानी...यह श्री रामचरित मानस पुण्य रूप, पापों का हरण करने वाली, सदा कल्याणकारी, विज्ञान और भक्ति को देने वाली, माया मोह और मल का नाश करने वाली, परम निर्मल प्रेम रूपी जल से परिपूर्ण तथा मंगलमय है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसाररूपी सूर्य की अति प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते।
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।
श्री रामचरित मानस का यह सातवां सोपान समाप्त हुआ।