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Sant Gadge महाराष्ट्र की मिट्टी ने कई संतों को जन्म दिया है, जिन्होंने सामाजिक बदलाव में अपना योगदान दिया। संत गाडगे का नाम एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनके उपदेशों ने महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में जागरूकता फैलाई। वे न केवल समाज सुधारक थे, बल्कि एक क्रांतिकारी संत थे, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
उनका जीवन पूरी तरह से समाज सुधार के लिए समर्पित रहा। उन्होंने अपना पूरा जीवन शिक्षा, स्वच्छता और समाज सेवा के लिए समर्पित किया। वे खुद भले ही पढ़े-लिखे न थे, लेकिन उन्होंने ग्रामीण समाज को शिक्षा और स्वच्छता का महत्व समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 23 फरवरी 2025 को उनका 149वीं जयंती मनाई जाएगी। तो ऐसे मे, चलिए जानते हैं उनके कुछ उपदेशों के बारे में, जो आज भी संवेदनशील हैं।
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प्रारंभिक जीवन
संत गाडगे का जन्म 23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के अंजनगांव में हुआ था। वे एक धोबी (धनगर) परिवार से थे। उनके माता-पिता का नाम सखुबाई और झिंगराजी था। उनका मूल नाम देवीदास डेबूजी झिंगराजी जाणोकर था। उनके नाना-नानी ने उनकी परवरिश की और उन्हें बचपन से ही नैतिक मूल्यों की सीख दी। क्योंकि, उनका परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था, इसलिए उन्हें नियमित शिक्षा नहीं मिल पाई।
हालांकि, ज्ञान के लिए उन्होंने कभी भी स्कूल की चारदीवारी को बाधा नहीं बनने दिया। वे बचपन से ही मेहनती और समाज के प्रति संवेदनशील थे। उनके अंदर दया, करुणा और परोपकार की भावना बचपन से ही थी। सन 1892 में, मात्र 16 वर्ष की आयु में, उनका विवाह कुंताबाई नाम की लड़की से हुआ था। उनके चार संतानें थीं, लेकिन समाज सेवा के लिए उन्होंने अपना घर-बार त्याग दिया।
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घर त्यागकर समाज सेवा में लीन
साल 1905 में उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय लिया। उन्होंने अपने परिवार और सांसारिक जीवन को छोड़ दिया और समाज सेवा की राह पकड़ ली। वे गांव-गांव घूमकर भीख मांगते और उसी भीख से जरूरतमंदों की मदद करते। उन्होंने खुद को हमेशा जनता का सेवक माना और हमेशा उन्हीं की सेवा में लगे रहे।
उनका एक ही उद्देश्य था – गांवों को स्वच्छ बनाना, लोगों को शिक्षित करना, अंधविश्वास मिटाना और समाज में बुराइयों को समाप्त करना। वे जहां भी जाते, वहां की सफाई करना शुरू कर देते थे। धीरे-धीरे लोग उनकी इस पहल से प्रभावित होने लगे और उनके साथ मिलकर सफाई अभियान में भाग लेने लगे। इस तरह उन्होंने समाज में स्वच्छता का एक मजबूत संदेश दिया।
सामाजिक सुधार
संत गाडगे ने अपने उपदेशों में अज्ञानता, अंधविश्वास और कुरीतियों को समाप्त करने का संदेश दिया। वे कीर्तन और अभंग के माध्यम से आम लोगों तक सरल भाषा में नैतिक और सामाजिक मूल्यों का प्रसार करते थे। उनके संदेश में चोरी न करने, कर्ज से बचने, नशे की लत से दूर रहने तथा जातिगत भेदभाव न करने की बात प्रमुख रूप से रही। उन्होंने संत तुकाराम को अपना गुरु मानते हुए लोगों में आत्म-विश्वास और जागरूकता जगाने का प्रयास किया।
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उनके उपदेशों के कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार थे:
- चोरी मत करो – वे हमेशा लोगों को ईमानदारी की सीख देते थे और कहते थे कि चोरी करना सबसे बड़ा पाप है।
- साहूकारों से कर्ज मत लो – वे मानते थे कि साहूकारों का कर्ज गरीब लोगों को और गरीब बना देता है।
- नशे से दूर रहो – वे शराब और अन्य नशीले पदार्थों के खिलाफ थे और इसे समाज के पतन का मुख्य कारण मानते थे।
- जानवरों की बलि मत दो – वे हमेशा पशु प्रेमी थे और पशु बलि के खिलाफ आवाज उठाते थे।
- जातिगत भेदभाव मत करो – वे सभी जातियों को समान मानते थे और हमेशा भाईचारे की भावना को बढ़ावा देते थे।
- वे हमेशा कहते थे कि "भगवान पत्थर की मूर्तियों में नहीं, बल्कि इंसानों के भीतर है।" इसलिए उन्होंने मंदिरों में पूजा-पाठ की जगह समाज सेवा को असली भक्ति माना।
सामाजिक सेवा में बड़ा योगदान
संत गाडगे का समाज सेवा में बहुत बड़ा योगदान रहा। वे कभी भी दान के रूप में मिली धनराशि का व्यक्तिगत उपयोग नहीं करते थे, बल्कि उसे गरीबों, जरूरतमंदों और समाज सेवा कार्यों में लगा देते थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए:
- धर्मशालाओं और अस्पतालों की स्थापना – उन्होंने विभिन्न स्थानों पर धर्मशालाओं और अस्पतालों की स्थापना की ताकि गरीबों को चिकित्सा सुविधाएं मिल सकें।
- बावड़ियों और कुओं का निर्माण – उन्होंने ग्रामीण इलाकों में पानी की समस्या को हल करने के लिए बावड़ियां और कुएं खुदवाए।
- गौशालाओं की स्थापना – उन्होंने गौ माता की सेवा के लिए कई गौशालाएं बनवाईं।
- भोजन वितरण केंद्र (अन्नदान केंद्र) – उन्होंने भूख से पीड़ित लोगों के लिए अन्नदान केंद्र शुरू किए।
- कुष्ठ रोगियों की सेवा – वे कुष्ठ रोगियों की सेवा में भी लगे रहे और उनके लिए विशेष केंद्र बनवाए।
उपदेश की शैली
संत गाडगे आम आदमी की भाषा में कीर्तन किया करते थे। वे संत तुकाराम के अभंग (भक्ति गीत) को गाकर लोगों को समाज सेवा की प्रेरणा देते थे। उनके कीर्तन में ज्ञान और नैतिकता का संदेश छिपा होता था। वे खुद को किसी का गुरु नहीं मानते थे और हमेशा कहते थे कि "मैं किसी का गुरु नहीं हूं और न ही मेरा कोई शिष्य है।"
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निधन
अपने जीवनकाल में उन्होंने धर्मशालाओं, बावड़ियों, वृद्धाश्रमों और गौ संरक्षण केंद्रों की स्थापना की। गरीबों और बीमारों की सहायता के लिए अन्नदान केंद्र भी खोले गए। 20 दिसंबर 1956 को जब वे अमरावती की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तब पेढ़ी नदी के तट पर उनका निधन हो गया। उनका जीवन समाज सुधार और सेवा के लिए समर्पित था। आज भी उनके विचार और कार्य समाज में प्रेरणा देते हैं।
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