राजेश बादल, BHOPAL. दो महीने पहले जो पार्टी मध्यप्रदेश में कर्नाटक जैसी जीत का ख्वाब देख रही थी, आज वह मामूली सी बढ़त पर आकर खड़ी हो गई है। इसके पीछे भारतीय जनता पार्टी के प्रचार अभियान को श्रेय कतई नहीं दिया जा सकता। जिम्मेदार खुद कांग्रेस है, जिसने पहले कुछ सीटों पर गलत उम्मीदवारों का चुनाव किया, असंतुष्टों को बागी हो जाने दिया, अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से समझौता किया और बूढ़े नेता बच्चों की तरह लड़ने लगे। हालांकि, अभी भी पार्टी के लिए सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के डबल इंजिन की सरकार के नकारात्मक वोटों का आकार बहुत विकराल है। भितरघात और असंतोष तो उसके भीतर भी कम नहीं है।
दिग्गजों का बच्चों की तरह लड़ना-रूठना भी पराजय का कारण
दरअसल हर बार की तरह इस बार भी कांग्रेस के भीतर अनेक छोटी-छोटी कांग्रेस अपने-अपने द्वंद्व और होड़ के साथ उपस्थित हैं। टिकट देने का अवसर आता है तो पार्टी के दिग्गज बच्चों की तरह लड़ने, रूठने और आलाकमान को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। बीस वर्षों के दरम्यान लगातार पराजय का यह भी एक कारण है। एक जमाने में राज्य के मुख्यमंत्री रहे एक नेता ने दिल्ली में एक शाम मुझसे कहा था कि सचाई तो यह है कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व जब कमजोर हाथों में होता है तो हम लोग प्रसन्न रहते हैं। हमारी पूछ परख होती है, लेकिन जब आलाकमान ताकतवर होता है तो वह चक्रवर्ती अर्जुनसिंह को एक झटके में पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज देता है और हरिदेव जोशी जैसे कद्दावर नेता को हटाने में पल भर भी नहीं लगाता।
सोनिया ने क्षत्रपों के जरिए ही पार्टी को एकजुट रखा
इस वजह से प्रदेशों के क्षत्रप मनाया करते हैं कि आलाकमान इतना मजबूत नहीं हो जाए कि उनकी अपनी सियासत निपट जाए। जब सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहीं तो इन क्षत्रपों के जरिए ही पार्टी को एकजुट रखा।अब अगली पीढ़ी उनके स्थान पर आ चुकी है तो वह अपने ढंग से पार्टी को मजबूत बनाने में जुटी है। राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और उनके सम वयस्क अनेक युवा नेता इस समय पार्टी को नया आकार देना चाहते हैं तो पुरानी पीढ़ी को यह नागवार है। वह आखिरी सांस तक अपनी वही अहमियत चाहती है, जैसे चालीस बरस पहले पाती थी, लेकिन अब यह संभव नहीं है। मौजूदा कांग्रेस में कलह का कारण यही है।
छोटे दलों थोड़ी बहुत मुश्किल खड़ी कर सकते हैं
मध्यप्रदेश का मतदाता साफ-साफ दो धाराओं में विभाजित है। वह भारतीय जनता पार्टी के साथ रहता है या फिर कांग्रेस के साथ। उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे इलाके में सिर्फ आठ-दस फीसदी मतदाता बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी पार्टी के साथ जाता है। इस बार इसी पट्टी पर विंध्य जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी ने दस्तक दी है। हो सकता है कि उनका खाता इस चुनाव में खुल जाए, लेकिन उनकी हाजिरी से बड़ी पार्टियों पर कोई खास फर्क पड़ेगा- मैं नहीं सोचता। अलबत्ता, दोनों बड़ी पार्टियों के जिन बागी उम्मीदवारों पर इन छोटे दलों ने दांव लगाया है, वे थोड़ी बहुत मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। लेकिन अब तक की चुनावी राजनीति से स्पष्ट है कि बीते दिनों सार्वजनिक मंच से दो पूर्व मुख्यमंत्रियों दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के बीच संवाद के बाद मतदाताओं के मन में इन बुजुर्ग नेताओं के प्रति सम्मान कम हुआ है। वह सोच रहा है कि इन नेताओं ने अपने निकटवर्ती लोगों और सजातीयों को तो टिकट दिला दिए, पर अनेक काबिल और जीतने वाले उम्मीदवारों के टिकट कटवा दिए।
राजनीति एक उद्योग बन चुकी है
अपनी सैंतालीस साल की पत्रकारिता में टिकटार्थियों की इतनी गंभीर बगावत और विद्रोह का मुखर अंदाज मैंने पहले नहीं देखा। दोनों दलों में ही ऐसे नजारे आम हो चले हैं। अगर इनकी पड़ताल करूं तो तीन कारण खास दिखाई देते हैं। पहली बात तो यह कि यह दौर वैचारिक आधारों पर चलने वाली सियासत का नहीं है। राजनीति एक उद्योग बन चुकी है। इसलिए हर छोटा बड़ा नेता बहती नदी में हाथ धो लेना चाहता है। वह चुनाव में पूंजी निवेश करता है। जीतने के बाद अपना मुनाफा जोड़कर, अगले चुनाव का खर्च जोड़कर और पार्टी के चढ़ावे को जोड़कर वह अपना इतना पैसा निकाल लेना चाहता है, जिससे अगली कई पीढ़ियां सुरक्षित रहें। दूसरी बात भारतीय जनता पार्टी का चाल चेहरे और चरित्र की राजनीति से भटक जाना है। दो हजार चौदह के बाद बीजेपी एकदम बदल चुकी है। वह ऐन केन प्रकारेण सत्ता में बनी रहना चाहती है। पार्टी आलाकमान और दशकों से निष्ठा के साथ जुड़े कार्यकर्ताओं का रिश्ता टूट चुका है।
पुराने लोगों की भी चाहतें और महत्वाकांक्षाएं हैं
अटल-आडवाणी युग के नेता और कार्यकर्ता का स्थान अब डस्टबिन में ही है। व्यक्तिगत वफादारों के लिए ही पार्टी में स्थान है। चाहे वे किसी भी दल से लाए गए हों। कांग्रेस से नेताओं को लालच देकर या कार्रवाई का चाबुक चलाकर अपनी पार्टी में लाना बीजेपी का शगल बन चुका है। जो लोग पार्टी में आते हैं, वे भी कुछ चाह लेकर आते हैं। जो पुराने लोग हैं, उनकी भी चाहतें और महत्वाकांक्षाएं हैं। जब ये चाहतें पूरी नहीं होती तो उनमें टकराव होता है। आप कह सकते हैं कि यह चाहतों का टकराव है। पिछले चुनाव तक कांग्रेस दल बदल को बहुत प्राथमिकता से नहीं लेती थी, लेकिन इस बार कांग्रेस एक बदली हुई आक्रामक कांग्रेस है। इस बार वह भी बीजेपी के नेताओं का शिकार करने से परहेज नहीं कर रही है। अब वह बीजेपी के तीरों को ही उसी पर चला रही है। इससे बीजेपी बिलबिलाई हुई है। अंतिम कारण भ्रष्टाचार है।
वोटर इस बार शिवराज को सबक सिखाने के मूड में
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को पहले कार्यकाल में अत्यंत कम समय मिला। दूसरे कार्यकाल में उन्होंने कुछ बेहतर काम किया। मगर, तीसरे और चौथे कार्यकाल में सारे नैतिक और वैचारिक धरातल को छोड़कर वे ब्यूरोक्रेसी और धन के आधार पर सरकार चलाते नजर आए हैं। आज भी मतदाता भारतीय जनता पार्टी के विरोध में नहीं हैं। वे शिवराज के बारे में खुलकर कहते हैं, " बस ! अब बहुत हो गया। भ्रष्टाचार के ऐसे आरोप तो कभी दिग्विजय सिंह पर भी नहीं लगे थे। इन कारणों से वह शिवराज को इस बार सबक सिखाने के मूड में दिखाई देता है।
विपक्ष तब मजबूत होता है, जब उस पर अवाम भी भरोसा करे
एक गंभीर बात और है। इस राज्य का मतदाता अभी भी लोकतंत्र के सरोकारों के साथ खड़ा हुआ है। यह लोकतंत्र पक्ष के साथ प्रतिपक्ष को भी बेहद मजबूत बनाने की मांग करता है। प्रतिपक्ष तब मजबूत होता है, जब उस पर अवाम भी भरोसा करे। अफसोस! मध्यप्रदेश का मतदाता बीस बरस से एक ही पार्टी के पक्ष में जनादेश दे रहा है। राजस्थान में पिछले पच्चीस साल से मतदाता पक्ष और विपक्ष को पांच-पांच साल का अवसर दे रहा है। यही लोकतांत्रिक परंपरा है। हर दल को हुकूमत का मौका मिलना चाहिए, जिससे वह अपने वैचारिक आधार पर विकास की रफ्तार को तेज कर सके। ठहरी हुई पार्टी का शासन एक पोखरे का पानी है और प्रत्येक पांच साल में दल को बदलना बहते हुए पानी की मानिंद जम्हूरियत को ताजा रखता है। एक ही पार्टी लगातार सत्ता में रहती है तो उसमें शासक भाव पनपने लगता है। वह सामंती व्यवहार करती है और भ्रष्टाचार भी बढ़ता है। मध्यप्रदेश इन दिनों इसका उम्दा उदाहरण है।