आलमआरा बदलाव की बयार लेकर आई, 124 मिनट की फिल्म में गाने भी थे, हीरो मास्टर विट्ठल के लिए जिन्ना को केस लड़ना पड़ा था

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Atul Tiwari
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आलमआरा बदलाव की बयार लेकर आई, 124 मिनट की फिल्म में गाने भी थे, हीरो मास्टर विट्ठल के लिए जिन्ना को केस लड़ना पड़ा था

MUMBAI. इंडियन फिल्म इंडस्ट्री की आज दुनियाभर में धाक है। अरबों रुपए की इंडस्ट्री बन चुके भारतीय सिनेमा की नींव सही मायने में देश की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ ने रखी थी। 1931 में रिलीज हुई 124 मिनट लंबी इस हिंदी फिल्म को आर्देशिर ईरानी ने डायरेक्ट किया था। आलम आरा के बनने और रिलीज की कहानी काफी दिलचस्प रही। 



आर्देशिर ईरानी द्वारा निर्मित भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ हिंदी सिनेमा में बदलाव की बयार लेकर आई थी। भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा को बनाने की प्रेरणा ईरानी को 1929 में अमेरिकन फिल्म ‘शो बोट’ देखने से मिली थी। हालांकि, शो बोट भी पूरी तरह सवाक (बोलने वाली) फिल्म नहीं थी, लेकिन इसने ईरानी को भारतीय भाषा में बोलती फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। इसी फिल्म से हिंदी सिनेमा में म्यूजिक बनाने की परंपरा भी शुरू हुई। ‘शो बोट’ यूनिवर्सल पिक्चर्स ने बनाई थी।



पहली बोलती फिल्म आलमआरा लव स्टोरी थी 



1926 में स्थापित ईरानी की इंपीरियल फिल्म कंपनी इनोवेशन के मामले में सबसे आगे थी। अपने ऐतिहासिक कास्ट्यूम ड्रामा के लिए प्रसिद्ध इंपीरियल स्टूडियो भारत का पहला स्टूडियो था, जिसने फिल्म ‘ख्वाब-ए-हस्ती’ (1929) के सीन के लिए रात में शूटिंग की और बाद में पहली स्वदेशी रंगीन फिल्म किसान कन्या (1937) भी बनाई। आलम आरा बोलती फिल्म होने के साथ कई वजहों से आगे मानी जाती है। इस फिल्म की रिलीज से पहले भारत में मूक फिल्मों का निर्माण होता था, जो पौराणिक कहानियों के इर्द-गिर्द होती थीं। भारत में 1914 में पहली मूक फिल्म बनी, जो गोविंद धुंडीराज फाल्के यानी दादा साहब फाल्के लेकर आए।



ईरानी ने उस लीक से अलग एक लोकप्रिय नाटक को चुनकर बड़ा जोखिम उठाया था। उन्होंने आलम आरा में हिंदी और उर्दू का मिश्रण रखा। उन्हें भरोसा था कि ऐसा करने से यह फिल्म बड़े स्तर पर दर्शकों तक पहुंचेगी। यह फिल्म जोसेफ डेविड द्वारा लिखित पारसी नाटक का रूपांतरण थी। इसका मूल कथानक एक राजकुमार और एक बंजारा लड़की के बीच प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द घूमता है। फिल्म में अभिनेता मास्टर विट्ठल और जुबैदा ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी।



हीरो मास्टर विट्ठल के लिए कोर्ट तक गया मामला



बोलती फिल्मों में कलाकारों के लिए अपने डायलॉग्स को साफ बोलना महत्वपूर्ण हो गया था। उस समय की टॉप स्टार सुलोचना उर्फ रूबी मायर्स को मुख्य भूमिका निभाने के लिए नहीं चुना गया था, क्योंकि वह अच्छी तरह से हिंदुस्तानी नहीं बोलती थीं। इसके बजाय फिल्म निर्माता और एक्ट्रेस फातमा बेगम की बेटी जुबैदा को चुना गया था। फिल्म में एलवी प्रसाद सह कलाकार की भूमिका में थे, जो बाद में दक्षिण भारतीय फिल्मों के मशहूर एक्टर बने। 



फिल्म के लिए हीरो का चुनाव भी आसान नहीं था। ऐसा माना जाता है कि आर्देशिर ईरानी, महबूब खान (मदर इंडिया के निर्देशक) को हीरो के रूप में लेना चाहते थे, लेकिन मास्टर विट्ठल की लोकप्रियता की वजह से उन्हें अपनी पसंद को दोबारा सोचना पड़ा। विट्ठल का शारदा स्टूडियो के साथ कॉन्ट्रैक्ट था। इंपीरियल फिल्म कंपनी के तहत बनने वाली पहली बोलती ऐतिहासिक फिल्म का हिस्सा बनने के लिए विट्ठल ने शारदा स्टूडियो के साथ कॉन्ट्रैक्ट तोड़ दिया था। शारदा स्टूडियो ने उनके खिलाफ केस कर दिया और विट्ठल ने बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना (पाकिस्तान के संस्थापक) से मदद मांगी। जिन्ना ने असरदार तरीके से पक्ष रखा और केस जीत लिया। आखिरकार पहली बोलती हिंदी फिल्म 14 मार्च 1931 को रिलीज हुई।



कड़ी मशक्कत से बनी थी फिल्म, सीन के दौरान ही डायलॉग रिकॉर्ड किए जाते थे



उस समय रिकॉर्डिंग इक्विपमेंट्स का अभाव था, लिहाजा आलम आरा को वास्तविक ध्वनि का उपयोग करके शूट करना पड़ा। कलाकार डायलॉग्स रिकॉर्ड करने के लिए सीन के दौरान ही अपनी जेब या कपड़ों में माइक्रोफोन छिपाकर रखते थे। अमेरिकी इंजीनियर विल्फोर्ड डेमिंग ने इंपीरियल की साउंड रिकॉर्डिंग में थोड़ी मदद की थी। 



आलम आरा को बॉम्बे के मैजेस्टिक सिनेमा में आधी रात के बाद एक बजे से चार बजे के बीच फिल्माया गया था, क्योंकि शूटिंग स्टूडियो के पास ट्रेन ट्रैक था और उस समय सबसे कम ट्रेनें गुजरती थीं। फिल्म में गाने तनार साउंड सिस्टम पर बनाए गए थे, जिसमें तनार सिंगल-सिस्टम कैमरा का इस्तेमाल किया गया था, जो सीधे फिल्म पर साउंड रिकॉर्ड कर सकता था। इसका गीत ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे’ भारतीय सिनेमा का पहला बैकग्राउंड गाना बना। इसे वजीर मुहम्मद खान ने आवाज दी थी, जिन्होंने फिल्म में फकीर का किरदार भी निभाया था। उस समय बैकग्राउंड संगीत और गाने वास्तविक ध्वनि का उपयोग करके बनाए गए थे, जिसमें संगीतकार सेट पर पेड़ों और कोनों के पीछे छिपे रहते थे। इस प्रकार ‘आलम आरा’ को बनाने में 4 महीने लगे थे।



फिल्म की टिकट 5 रुपए तक बढ़ गई थी



पहली बोलती हिंदी फिल्म को लेकर दर्शकों में भी बहुत उत्साह था। आलम आरा की टिकटों की कीमतें चार आना (25 पैसे) से पांच रुपए तक बढ़ गई थीं। फिल्म के प्रचार और विज्ञापन के दौरान, निर्माताओं ने टैगलाइन का इस्तेमाल किया- ‘आल लिविंग, ब्रीथिंग, 100 परसेंट टाकिंग।’ हिंदी में इसे लिखा गया - ‘78 मुर्दे इंसान जिंदा हो गए। उनको बोलते देखो।’ आलम आरा के लिए 78 कलाकारों ने अपनी आवाजें रिकॉर्ड की थीं। फिल्म के 7 गाने आकर्षण का केंद्र बने। तब से म्यूजिक, गाने और डांस भारतीय फिल्मों का अभिन्न अंग बन गया। मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में यह फिल्म रिलीज के बाद 8 हफ्ते तक हाउसफुल रही। फिल्म की लोकप्रियता का आलम यह था कि भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी थी। इस फिल्म ने कई कलाकारों के करियर संवारे। इनमें पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान और एलवी प्रसाद बाद में लेजेंड बने।



कलर फिल्म भी लाए 



‘आलम आरा’ की अपार सफलता ने अर्देशिर ईरानी को साल 1937 में भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म ‘किसान कन्या’ समेत कई और फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। फिल्मों के लिए अच्छा बोलने और गाने आवाज वाले कलाकारों की तलाश की जाने लगी। कई स्टूडियो जो साउंड के इस्तेमाल का उपयोग नहीं कर पाए, उन्हें बंद होना पड़ा। वहीं, क्षेत्रीय स्तर पर भी देशभर की प्रमुख भाषाओं में बोलती फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ। फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण सिनेमा हॉल की संख्या बढ़ी। सवाक फिल्मों ने फिल्म निर्माण की टेक्नीक में महत्वपूर्ण बदलाव किया, जिसमें तकनीशियनों की एक पूरी शृंखला - सिंगर, म्यूजिक डायरेक्टर, कोरियोग्राफर, साउंड डिजाइनर की शुरुआत हुई। फिल्म व्यवसाय एक उद्योग में बदल गया। दुखद ये है कि ऐतिहासिक फिल्म आलमआरा का कोई प्रिंट मौजूद नहीं है।



आर्देशिर की लॉटरी खुली और आ गए फिल्म निर्माण के पेशे में



भारत की पहली बोलती फिल्म बनाने वाले आर्देशिर ईरानी का जन्म 1886 में पुणे में एक ईरानी-पारसी परिवार में हुआ था। धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए ईरानी के माता-पिता ईरान से हिंदुस्तान आए थे। आर्देशिर मुंबई में पले-बढ़े और उन्होंने वाद्ययंत्रों की दुकान चलाना शुरू किया। उनका फिल्मों में आना किस्मत की बात थी। 1903 में उन्होंने 14 हजार रुपए की लाटरी जीती। इस धनराशि से उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में पांव रखे। उन्होंने कुछ समय के लिए ‘टेंट सिनेमाघरों’ में प्रोजेक्टर से फिल्में दिखाने के लिए फिल्म वितरक बनने का फैसला किया। यहीं से उनकी फिल्ममेकिंग में दिलचस्पी जगी। 



1920 में आर्देशिर की फिल्म नल दमयंती रिलीज हुई। उसके बाद उन्होंने स्टार फिल्म्स लिमिटेड की स्थापना की। इस स्टूडियो ने भारतीय सिनेमा की पहली महिला निर्देशक फातमा बेगम के करियर को लॉन्च किया। 1926 में उन्होंने इंपीरियल फिल्म स्टूडियो की स्थापना की। आलम आरा की सफलता के बाद ईरानी ने 1945 तक फिल्में बनाईं। उनकी आखिरी फिल्म पुजारी थी। आर्देशिर ने अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में करीब 250 फिल्में बनाईं, जिनमें 150 फिल्में मूक थीं। हिन्दी फिल्मों के अलावा उन्होंने गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु, बर्मी, फारसी और अंग्रेजी भाषा ने भी फिल्म बनाई। 14 अक्टूबर 1969 में 82 की आयु में उनका निधन हो गया।


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