संगीतकार खय्याम: लोग बदकिस्मत कहते थे, उमराव में इसलिए आशा भोंसले से गवाया

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Atul Tiwari
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संगीतकार खय्याम: लोग बदकिस्मत कहते थे, उमराव में इसलिए आशा भोंसले से गवाया

मुंबई. आज यानी 18 फरवरी को खय्याम साहब का 95वां जन्मदिन हैं। खय्याम साहब संगीत में सुकून देने वाले संगीतकार माने जाते थे। एक से एक क्लासिक धुनें देकर उन्होंने अपनी खास पहचान बनाई। 18 फरवरी 1927 को पंजाब के जालंधर में खय्याम साहब का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम सआदत हुसैन था। बाद में उन्हे मोहम्मद जहूर के नाम से जाना गया, लेकिन खय्याम ही उनका प्रचलित नाम रहा। महज 17 साल की उम्र में खय्याम ने अपने म्यूजिक करियर की शुरुआत की। खय्याम को कभी कभी, उमराव जान, त्रिशूल, नूरी, दर्द, रजिया सुल्तान के म्यूजिक के लिए जाना जाता है। खय्याम साहब लता मंगेशकर और आशा भोंसले को पटरानी और महारानी कहते थे। 





हीरो बनने के ख्वाब से आए दिल्लीः खय्याम हीरो बनना चाहते थे और यही ख्वाब उन्हें दिल्ली ले आया। 1937 में खय्याम हीरो बनने के सपने को पूरा करने के लिए अपने चाचा के घर दिल्ली चले गए। चाचा के घर उनका ऐसा स्वागत हुआ कि उनके होश उड़ गए। एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने बताया था- दिल्ली में चाचाजान के घर आया था, पहले तो खूब स्वागत किया उसके बाद पूछा- तुम अकेले कैसे आए हो, क्या घरवालों से पूछकर आए हो, मैंने बताया नहीं, तो चाचाजान ने सीधे तमाचा जड़ दिया। दादी ने चाचा जान से बचाया। चाचा ने थप्पड़ तो मारा था, लेकिन सपने को पूरा करने के लिए मदद भी की। चाचा ने उनके खास दोस्तों महान संगीतकार पंडित हुस्न लाल-भगत राम और पंडित अमरनाथ से मिलवाया। कहा- 'ये बच्चा एक्टर बनना चाहता है, ये पढ़ता-लिखता भी नहीं है।’ उसके बाद उन्होंने खय्याम को संगीत सिखाने का फैसला लिया। खय्याम ने 5 साल तक दिल्ली में संगीत की शिक्षा ली।





संगीतकार चिश्ती बाबा से मुलाकातः दिल्ली के बाद उनका अगला पड़ाव मायानगरी मुंबई (तब बंबई) था। जहां शुरुआती दिनों में उनके हाथ सफलता नहीं लगी। काम की तलाश में खय्याम दर-दर भटकते रहे और आखिर में निराश होकर लाहौर लौट गए। लाहौर में खय्याम की मुलाकात महान संगीतकार चिश्ती बाबा से हुई, जिनसे संगीत की तालीम ली। खय्याम को लाहौर में 125 रुपए की पहली सैलरी मिली। अपने एक इंटरव्यू में इसका जिक्र करते हुए उन्होंने बताया था- चिश्ती बाबा के साथ काम करते हुए दो महीने हो गए थे। जब तनख्वाह मिलने का वक्त आया तो सबको लिफाफे मिल गए, लेकिन मेरा नाम नहीं आया। उस वक्त वहां मौजूद बीआर चोपड़ा ने चिश्ती बाबा से पूछा कि खय्याम का नाम क्यों नहीं आया? तो चिश्ती बाबा ने मुस्कुराकर कहा कि अभी तो ये सीख रहा है। चोपड़ा अड़ गए और उन्होंने कहा कि इनको भी पैसा मिलना चाहिए। तब एक घंटे के बाद एक लिफाफे में 125 रुपए आए। वो उस जमाने के हिसाब से बहुत ज्यादा थे।





खय्याम साहब एक नया सिताराः लाहौर में काम करने के बाद 1947 में खय्याम मुंबई वापस आए। मुंबई आते ही वो सबसे पहले अपने गुरु पंडित हुस्न लाल-भगत राम और पंडित अमरनाथ जी से मिले। उन्होंने अपने गुरु को कुछ गाकर सुनाया तो तुरंत उन्हें फिल्म रोमियो जूलिएट में बतौर गायक एंट्री मिल गई। उन्होंने अहमद फैज का लिखा गाना- 'दोनों जहान तुम' उस वक्त की मशहूर गायिका जोहराबाई अंबालेवाली के साथ गाया। यह फिल्म मशहूर अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई ( अपने समय की मशहूर हस्‍ती) बना रहीं थीं। खय्याम का गाना सुनने के बाद जद्दन बाई ने उन्हें मिलने बुलाया और कहा कि हिंदी सिनेमा में नया सितारा आने वाला है। रोमियो जूलियट के बाद उन्हें हीर रांझा में संगीत देने का मौका मिला। खय्याम ने पहली बार फिल्म 'हीर रांझा' में संगीत दिया। लेकिन मोहम्मद रफी की गीत 'अकेले में वह घबराते तो होंगे' से उन्हें बॉलीवुड में पहचान मिली। इसके बाद फिल्म 'शोला और शबनम' ने उन्हें संगीतकार के तौर पर स्थापित कर दिया।





खय्याम को कहते थे बदकिस्मतः खय्याम को सिनेमा में कुछ लोग बदकिस्मत भी कहते थे। इस बात का अहसास उनको यश चोपड़ा ने करवाया था। दरअसल खय्याम की सभी फिल्मों का म्यूजिक हिट तो होता था, लेकिन कभी भी सिल्वर जुबली नहीं कर पाया था। इस बारे में खय्याम ने एक इंटरव्यू में कहा था- यश चोपड़ा अपनी एक फिल्म का म्यूजिक मुझसे करवाना चाहते थे, लेकिन सभी उन्हें मेरे साथ काम करने के लिए मना कर रहे थे। उन्होंने मुझे कहा भी था कि इंडस्ट्री में कई लोग कहते हैं कि खय्याम बहुत बदकिस्मत आदमी हैं। उनका म्यूजिक हिट तो होता है, लेकिन जुबली नहीं करता। इन सब बातों के बावजूद भी उन्होंने यश चोपड़ा की फिल्म का म्यूजिक दिया और उस फिल्म ने डबल जुबली कर डाली और सबका मुंह बंद कर दिया। 





एक पटरानी तो एक महरानीः खय्याम ने लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, अनवर अली, मुकेश, शमशाद बेगम, मोहम्मद रफी, मुकेश जैसे बेहतरीन गायकों के साथ काम किया। लेकिन आशा और लता दोनों बहनों की आवाज के साथ उनका संगीत बहुत कामयाब रहा। खय्याम कहते थे- मैं इन दो बहनों के लिए कहूंगा कि एक संगीत की पटरानी हैं तो दूसरी महारानी। 





आखिरी समय गुनगुनाते रहें ये गानाः उनकी शरीके हयात जगजीत कौर हर कदम पर उनके साथ रहीं। शगुन फिल्‍म के लिए जगजीत कौर ने जो गजल गाई थी- ‘तुम अपना रंजो गम, अपनी परेशानी मुझे दे दो’, इसे खय्याम अपने आखिरी दिनों तक गुनगुनाते रहे।





माइल स्टोन बन गई उमराव जान: इस फिल्म के 10 में से 5 गाने आशा भोंसले ने गाए थे। खय्याम की वजह से आशा को गाने का अपना पुराना स्टाइल बदलना पड़ा था। एक वक्त ऐसा भी आ गया था कि इसे लेकर खय्याम और आशा में बिगाड़ तक की नौबत आ गई थी। 





खय्याम ने रेडिफ डॉट कॉम को दिए इंटरव्यू में बताया कि उमराव जान बनाते समय सबसे बड़ी चुनौती थी कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा के हिट संगीत से अलग संगीत देना। पाकीजा और उमराव जान दोनों ही फिल्में लखनऊ की तवायफों के जिंदगी पर बेस्ड फिल्में थीं। पाकीजा का संगीत गुलाम मोहम्मद ने दिया था और इसके गाने लता मंगेशकर ने गाए थे। मैं नहीं चाहता था कि उमराव के गाने पाकीजा से प्रेरित लगें, इसलिए आशा भोंसले को चुना।





फिल्म का संगीत देने के लिए खय्याम ने मिर्जा हादी रुसवा का उपन्यास उमराव जान अदा पढ़ने के साथ ही उस जमाने के इतिहास और वाद्य यंत्रों का अध्ययन किया। खय्याम को को पता चला कि बेहद खूबसूरत उमराव जान प्रशिक्षित शास्त्रीय गायिका और कथक नृत्यांगना थीं और शायरी भी करती थीं। तब वो ये तय कर पाए कि फिल्म का गीत-संगीत कैसा होना चाहिए। गानों की रिकॉर्डिंग के दौरान उन्होंने तय किया कि आशा ऊंचे नहीं, बल्कि नीचे के सुर में गाएंगी। खय्याम ने आशा को खुद गाकर बताया कि फिल्म में उन्हें किस तरह गाना है। इस फिल्म से पहले आशा ने ज्यादातर गाने ऊंचे सुर में गाए थे। लिहाजा आशा ने खय्याम से रिहर्सल के लिए 8 दिन का समय मांगा।





8 दिन बाद आशा गाने रिकॉर्ड कराने पहुंचीं। खय्याम ने पूरी व्यवस्था पहले से कर रखी थी। शुरू में आशा आराम से गाना गा रही थीं, लेकिन धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास जाने लगा। आशा के हाथ-पांव फूल गए। जल्द ही उनकी हिम्मत टूट गई और उन्होंने खय्याम से कहा कि वो इतने नीचे सुर में नहीं गा सकेंगी।





खय्याम ने जब देखा कि आशा अड़ गई हैं तो उन्होंने इस मुश्किल से निकलने के लिए एक उपाय सोचा। खय्याम ने आशा से कहा कि वो पहले नीचे सुर में गाने को एक बार में गा दें, उसके बाद वो म्यूजिक अरेंजमेंट में जरूरी बदलाव करके अपने ऊंचे सुर में भी एक और टेक दे सकती हैं। फिर आशा को जो गाना पसंद आएगा, वही फिल्म के लिए रख लिया जाएगा।





उस जमाने में म्यूजिक अरेंजमेंट एक आज जैसा आसान नहीं था, इसलिए आशा ने खय्याम को उनके बेटे प्रदीप की कसम दिलाई कि वो गाने को दोबारा भी रिकॉर्ड करेंगे। खय्याम के हामी भरने के बाद ही आशा दोबारा गाने के लिए तैयार हुईं। आशा ने नीचे के सुर में जब गाना पूरा किया तो दोबारा रिकॉर्डिंग से पहले आधा घंटे का गैप रखा गया। खय्याम ने आशा से कहा कि जब तक दूसरे टेक के लिए म्यूजिक अरेंजमेंट होता है, तब तक पहला टेक सुन लो।





गाना साढ़े पांच मिनट लंबा था। आशा गाना सुनते-सुनते खो सी गईं। गाने खत्म होने के बाद उन्होंने आंख खोलते ही पूछा, “क्या ये मैं गा रही थी? मैंने अपनी आवाज ऐसे कभी सुनी ही नहीं।” आशा ने गाना सुनने के बाद दूसरा टेक करने की जिद छोड़ दी। उन्होंने फिल्म के बाकी गाने भी उसी सुर में गाए। नतीजा ये रहा कि उमराव जान को हिंदी सिनेमा के कालजयी गीत-संगीत वाली फिल्मों में जगह मिली। फिल्म में एक गाना अमीर का था, बाकी गजलें शहरयार ने लिखी थी। फिल्म में एक्टिंग के लिए रेखा को और संगीत के लिए खय्याम को नेशनल अवॉर्ड मिला था।



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