एक डिरेक्टर जो टीचर से कैमरामैन बना, फिर फिल्म एडिटिंग में हाथ दिखाए, अपने तरह का सिनेमा गढ़कर फिल्मों के ‘ऋषि’ बन गए

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The Sootr CG
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एक डिरेक्टर जो टीचर से कैमरामैन बना, फिर फिल्म एडिटिंग में हाथ दिखाए, अपने तरह का सिनेमा गढ़कर फिल्मों के ‘ऋषि’ बन गए

आज एक ऐसे डिरेक्टर की कहानी सुना रहा हूं, जो अपने आप में अलहदा हैं। जिन्होंने मझोले कद की फिल्मों में बड़े से बड़े हीरो से काम कराया, अपने हिसाब से कराया और इतिहास में नाम कर गए। कल यानी 27 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि यानी डेथ एनीवर्सरी है। उन डिरेक्टर का नाम है- ऋषिकेष मुखर्जी।

ऋषिकेश मुखर्जी की एक खास बात थी कि उन्होंने अपनी अधिकांश फिल्मों को दर्शाने का मिजाज हमेशा हल्का ही रखा। आप उन्हें सत्यजीत रे, रित्विक घटक, अदूर गोपालकृष्णन जैसे फिल्म निर्देशकों की लिस्ट में ना रखें, लेकिन वे अपने आप में बेमिसाल फिल्म निर्देशक रहे हैं। निर्देशन में आने से पहले ऋषिकेष प्रिंसिपल रह चुके थे। इसलिए क्या बोलना है, कैसे बोलना है और क्या नहीं कहना है? ये बातें अच्छी तरह जानते थे। कई बार वो धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना को किसी स्कूली बच्चे की तरह समझाते थे तो कभी सुना भी देते थे। 

30 सितंबर 1922 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में ऋषिकेश मुखर्जी का जन्म हुआ था। उन्होंने केमिस्ट्री की पढ़ाई की थी और कुछ दिनों तक गणित पढ़ाया था। लेकिन उनका मन इसमें नहीं लगा और कैमरे ने उन्हें अपनी ओर खींचा। 1945 के करीब ऋषिकेश मुखर्जी ने न्यू थिएटर्स में बतौर कैमरामैन काम करना शुरू किया। यहीं उनकी डिरेक्टर बिमल रॉय से मुलाकात हुई, जो उन्हें एडिटिंग डिपार्टमेंट में लेकर गए। 1951 में जब मुखर्जी मुंबई आए तो उन्होंने बिमल रॉय के साथ काम करना शुरू कर दिया और रॉय ने उन्हें काम सिखाया। 
एक इंटरव्यू में ऋषिकेश ने कहा था, ‘मैं आज जो कुछ भी हूं वो बिमल रॉय के कारण हूं।’

1953 में बनी ‘दो बीघा जमीन ‘ में ऋषिकेश ने एडिटिंग की। इसके बाद उन्होंने लगातार फिल्म एडिटिंग की और दिलीप कुमार की देवदास और मधुमति जैसी फिल्मों की एडिटिंग की। 

लंबे समय तक बिमल रॉय के साथ काम करने के बाद मुखर्जी ने खुद डिरेक्शन में उतरने का फैसला किया और उन्होंने दिलीप कुमार के साथ अपनी पहली फिल्म मुसाफिर बनाई, लेकिन ये फिल्म उतनी नहीं चल पाई। इसके बाद मुखर्जी ने राज कपूर और नूतन के साथ 1959 में अनाड़ी बनाई, जो उस साल की सबसे हिट फिल्मों में से एक थी। इस फिल्म को राष्ट्रपति से रजत पदक सम्मान भी मिला था। अनाड़ी के जरिए उन्होंने अमीर बनाम मॉरल का विषय लिया, जो उस समय एक नया प्रयोग था।

अनाड़ी की सफलता ने उन्हें शोहरत दी, जिसके बाद 1960 के दशक में मुखर्जी ने अनुराधा, असली नकली, आशिक, सांझ और सवेरा, अनुपमा, गबन, मंझली दीदी, आशीर्वाद, सत्यकाम जैसी फिल्में बनाईं। ऋषिकेश की फिल्मों के किरदार सरल, सहज होते हैं और सहजता से ही अपनी बात रखते हैं। 1970 के बाद की फिल्मों में ऋषिकेश का नया रूप दिखाई पड़ता है, जिसमें आनंद, गुड्डी, बावर्ची, अभिमान, नमक हराम, चुपके-चुपके, मिली, गोलमाल, नरम गरम, रंगी बिरंगी, किसी से न कहना जैसी फिल्में शामिल हैं।

बासु चटर्जी की फिल्मों में किरदार और शहर एक से अनुपात में दिखते हैं, वहीं ऋषि दा शहर और किरदार का ऐसा घालमेल करते हैं कि दोनों ही चीज एक नए रूप में उभरती है और जीवन के लिए सीख दे जाती है। 1971 में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की आनंद को आप उनकी बेस्ट फिल्म कह सकते हैं। बाबू मोशाय, जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए (आनंद के कुछ शॉट्स...)। 1973 में आई अभिमान के जरिए उन्होंने मशहूर पति-पत्नी के बीच जलन की भावना को दर्शाई। 1975 में आई चुपके-चुपके में भाषायी श्रेष्ठता की झूठी शान व्यंग्यात्मक ढंग से ऐसा फिल्माया कि आप हंस पड़ेंगे।

बेरोजगारी से जूझता मध्य वर्ग भी मुखर्जी की फिल्मों का विषय बना। 1979 में वे गोलमाल लेकर आते हैं। उन्होंने अमोल पालेकर और उत्पल दत्त से कमाल करवाया। लेजेंड फिल्म है गोलमाल। मुखर्जी अपनी फिल्मों में कॉमेडी का सहारा लेकर कई जरूरी बातों को कहा है। कभी ये बातें हंसी-मजाक से कह दी जाती हैं तो उनकी फिल्मों के गाने भी कई बातें कहते हैं। एक बार ऋषि दा खुद कहा था कि वो फिल्म का बजट कम करने के लिए हमेशा कोशिश करते थे कि उनकी फिल्म 40 रील के अंदर बन जाए और एक सीन एक ही टेक में हो जाए।

आनंद से जुड़ा एक किस्सा है- 1971 में जब ऋषिकेश दा ‘आनंद’ फिल्म बनाने के बारे में सोच रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने इसकी कहानी बेंगलुरु से मुंबई की हवाई यात्रा के दौरान धर्मेंद्र को सुनाई थी। धर्मेंद्र बड़े खुश हुए और उन्होंने कहा कि ये फिल्म तो मैं ही करूंगा। कुछ दिनों बाद अखबार में छपा कि फिल्म के हीरो राजेश खन्ना होंगे। फिर क्या था, धरमजी ने जमकर शराब पी और फिर देर रात ऋषिकेश दा को कॉल किया और कहा कि आप मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? ऋषि दा उन्हें शांति से समझाते रहे और कहते रहे कि धरम हम सुबह बात करेंगे, लेकिन धर्मेंद्र थे कि लगातार अपनी बात दोहराए जा रहे थे। ऐसा करते-करते उन्होंने रातभर ऋषिकेश दा को सोने नहीं दिया। 

गुलजार के साथ ऋषिकेश दा ने कई फिल्मों में काम किया। फिल्म ‘गुड्डी’ का निर्देशन भी गुलजार खुद करने वाले थे, लेकिन कुछ कारणवश फिल्म के निर्देशन की कमान ऋषि दा को संभालनी पड़ी। जब उन्होंने फिल्म पूरी की और वह परदे पर हिट हुई तो खुद गुलज़ार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ऋषिकेश मुखर्जी का काम बिल्कुल अलग ही स्टाइल में होता है। वे एक्स्ट्रा शॉट्स या फिर एक्स्ट्रा एंगल में विश्वास नहीं करते और एडिटर होने की वजह से वे अपने दिमाग में ही बहुत सारे सीन एडिट कर लेते हैं। शूटिंग सेट पर वे शतरंज खेलते थे और फिर अचानक से उठकर इंस्ट्रक्शन देने लगते थे।

असरानी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि फिल्म ‘चुपके-चुपके’ की शूटिंग चल रही थी और एक सीन था जिसके बारे में धर्मेंद्र को कुछ भी नहीं बताया गया था, क्योंकि ऋषि दा अपने सीन को एक्टर्स से सीक्रेट ही रखते थे। एक सीन के लिए उन्होंने मुझे सूट पहना दिया। तभी धर्मेंद्र वहां ड्राइवर के कपड़ों में आए और मुझे सूट में देखकर हैरान होते हुए बोले... ‘मैं तेरा ड्राइवर बना हूं क्या? अगला सीन क्या है? तुझे सूट कैसे मिल गया?’ वहीं दूर बैठे ऋषिकेश दा ने कहा, ‘धर्मेंद्र, उससे क्या पूछता है? उसे कुछ पता होता तो वह डायरेक्टर नहीं होता।’

उन्हें पद्म विभूषण और दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। 27 अगस्त 2006 को लंबी बीमारी के बाद एक अलहदा किस्म का ये फिल्मकार चला गया। मुखर्जी ने अपने करीब 4 दशक के लंबे फिल्मी सफर में 42 फिल्मों का डिरेक्शन किया