Bhopal. आज शनिवार है और शनिवार यानी आपको कहानी सुनाने का वादा निभाने का दिन...। आज भी आपके लिए एक कहानी लेकर आया हूं। आपको पिछली बार ही आज की कहानी के बारे में भी हिंट सी की थी। बिल्कुल..., पिछली बार शिवाजी सावंत के ग्रंथ मृत्युंजय से आपको कर्ण की कहानी सुनाई थी। मृत्युंजय हो या कोई और ग्रंथ, उससे उद्धरण लेकर सिर्फ एक कहानी बनाना काफी मुश्किल होता है। इससे ऐसा लगता है कि न्याय सा नहीं हुआ। सो इस बार भी मृत्युंजय के कुछ उद्धरण सुना रहा हूं। और आज की कहानी का नाम है- उसने प्रेम भी किया, नफरत भी झेली।
स्वाभिमान की बलि उसे स्वीकार नहीं होती
दुर्योधन कर्ण को अंगदेश का राजा बना देता है, लेकिन वो इससे खुश नहीं था। वो अच्छी तरह जानता था कि ये राजपद उसे दुर्योधन की कृपा से मिला है। उसकी कभी कोई राज्यपद की इच्छा ही नहीं की थी। और जो राज्यपद मिला था वो क्या ही था। जिस प्रतियोगिता में कर्ण, अर्जुन से हार गया था, इसी प्रतियोगिता में सबने पहले तो उसी कर्ण की जय-जयकार की थी, बाद में उसका उपहास भी किया था। और ये राज्यपद एक तरह से अभिषेकयुक्त अपमान था। वो एक योद्धा था और योद्धा अपनी मृत्यु का वरण कर सकता है, स्वाभिमान की बलि उसे स्वीकार नहीं होती। और आखिरकार एक दिन कर्ण ने दुर्योधन से बोल ही दिया- राजन, अपने राज्यपद को आप संभालें, मुझे चंपानगरी जानें दें। तब दुर्योधन ने गिड़गिड़ाते हुए कहा- कर्ण, मैं तुम्हारे बल ही तो पांडवों का सामने करने के लिए खड़ा हुआ हूं। और तुमने ही मुंह मोड़ लिया तो मुझे मुंह छिपाने के कहां जगह मिलेगी। तुम हस्तिनापुर से चले जाओगे तो पांडव मेरा जीना हराम कर देंगे। कर्ण को संकट के समय मित्र की सहायता करना अपना धर्म लगा। लेकिन ये संकट नहीं था, दुर्योधन का कुचक्र था, जिसमें कर्ण फंस चुका था।
मन थोड़े ही लोहे से बनता
कर्ण हस्तिनापुर में रहने का तय कर चुका था। कुछ दिनों बाद उसके जीवन की सबसे मधुर घटना होने वाली थी। जिंदगी में एक लड़की आने वाली थी। दो तरुण मनों के मधुर मिलन के इंतजार करने लगा। कर्ण जानता था, योद्धाओं का मन ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन कर्ण भी मनुष्य था। लोहे से तो बाण और बाण के फलक बनते हैं, मन थोड़े ही लोहे से बनता है। भावी पत्नी की प्रतिमा आंखों से सामने खड़ी रहती थी। जो लड़की कर्ण की जिंदगी में आने वाली थी, वो वृषाली थी। वृषाली से मिलना कर्ण के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था।
गंगा से बचाओ, बचाओ की आवाज आईं
एक बार हस्तिनापुर में सत्यसेन नाम का युवक कर्ण से मिला था। कर्ण ने उससे कहा कि बाद में मुझसे मिलने आना। जब सत्यसेन तीसरे दिन उससे मिलने आया तो कर्ण ने दुर्योधन से उसके काम को लेकर चर्चा की। हस्तिनापुर में अगर किसी से पूछा जाता कि सुबह कर्ण कहां होता है तो हर कोई बता सकता था कि कर्ण सुबह गंगा तट पर सूर्य पूजा करने जाता है। इसी तरह एक दिन कर्ण सूर्यदेव के तेज को अर्घ्य देते हुए पी रहा था, तभी गंगा से बचाओ, बचाओ की आवाज आईं। ये आवाज किसी लड़की की थी। कर्ण की तंद्रा टूटी। मुड़कर देखा तो घाट पर कोई मनुष्य नहीं था। फिर दूर तक फैले पानी में देखा तो एक उल्टा घड़ा हिचकोले खा रहा था।...और वहीं एक कोमल सा हाथ पानी में छटपटा रहा था। हाथ में कंगन था। बीच-बीच में वो हाथ कभी पानी के अंदर तो कभी बाहर हो रहा था। कर्ण समझ गया और उस हाथ वाली की बचाने छलांग लगा दी।
वृषाली पर मंत्रमुग्ध हुए कर्ण
जैसे ही कर्ण उस हाथ वाली के पास पहुंचा, वो एक लड़की थी। जैसे ही कर्ण ने उसे पकड़ा, वो लड़की लिपट गई। बिना ये जाने कि उसकी जाति, गोत्र, धर्म, प्रतिष्ठा क्या है। कर्ण इस लड़की को गंगा से बाहर लाते हैं। बाहर लाकर उसे देखते हैं तो मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। कर्ण ने इससे पहले इतनी सुंदर लड़की नहीं देखी थी। कर्ण स्तब्ध रह गए। ये लड़की वृषाली थी। सत्यसेन की बहन। कर्ण की आंखों के सामने एक और दृश्य आ गया। एक बार वृषाली प्रयाग में नदी से घड़े में पानी लेकर लौट रही थी, तभी कर्ण से टकरा गई थी। भीगे कर्ण के कपड़े थे और शर्म से पानी-पानी वृषाली हो गई थी।
ऐसे हुई थी कर्ण की शादी
इस बार कर्ण ने जब वृषाली को तट पर लिटाया तो वह बेहोश थी। कपड़े शरीर से चिपक गए थे। पानी की बूंदें उसके चेहरे पर दमक रही थीं और कर्ण उसे एकटक देख रहा था। कर्ण ने उत्तरीय से वृषाली के चेहरे से पानी ऐसे पोंछा कि उसे पता तक ना चले। प्रेम में ऐसा होता है। तभी वृषाली को होश आ गया। पूछा कि मैं कहां हूं। कुछ शरमा भी गई। कर्ण का उत्तरीय लपेट लिया। कर्ण ने कहा- तुम्हारा एक घड़ा प्रयाग में फूट गया था। आज हस्तिनापुर में गंगा ने एक घड़ा हमेशा के लिए छीन लिया। किसके लिए छीना है, ये उसी से पूछो। शरमाते हुए वह उठी और सीढ़ियों से ओझल हो गई। कर्ण देखता रहा। तभी कर्ण को सीढ़ियों से किसी के गंगाघाट आने की आवाज आई। वे भीष्म थे। उन्होंने कर्ण से पूछा- आज अभी तुम गंगा पात्र से बाहर कैसे हो? कर्ण कोई उत्तर नहीं दे पाया। क्या ही बोलता। आज उसकी सूर्यसाधना किसके कारण अधूरी रह गई थी, ये कैसे ही बताता। गंगा में वृषाली के साथ मिलन वाली घटना दुर्योधन को पता चल गई थी। उसने कर्ण के पिता अधीरथ से बात की। वृषाली भी सूत कुल की थी, दोनों की शादी हो गई।
वृषाली की बात सुनकर कर्ण हुए हतप्रभ
शादी की पहली रात। संकोच, सम्मोहन, समर्पण की रात। कर्ण कहता है कि इस रात का वर्णन क्या शब्दों में किया जा सकता है। बिल्कुल नहीं। इस रात का मतलब है दो मनों का मौन और अबोध संभाषण। वृषाली अवगुंठन यानी घूंघट में थी। कर्ण ने कहा कि यहां कई पुतले हैं, तुम भी ऐसे ही रहने आई हो। वृषाली मुस्कुरा उठी। कर्ण ने फिर कहा- अब तुम गंगा में गिरोगी तो इस बार निकालने नहीं आऊंगा। मैं डूबते लोगों को निकालने वाला थोड़ी हूं। वो फिर मुस्कुरा उठी। वृषाली ने कुंती की तरफ से भेजी गई नीली अतलसी सुनहरी जरी वाली साड़ी पहनी थी। कर्ण ने पूछा- यही क्यों पहनी तो कहा कि आपको नीले आकाश में सुनहरे सूर्यदेव को देखना पसंद है ना, इसलिए यही पहनी। कर्ण हतप्रभ रह गया कि वृषाली ने इतने कम वक्त में उसके बारे में कितना कुछ जान लिया था।
कर्ण ने दो शादी की
एक बार दुर्योधन की बहन दुशला ने वृषाली से बड़ी अजीबोगरीब बात पूछी थी। उसने पूछा था कि सुना है तुम्हारे पति कर्ण के पास दैवीय कवच है। कभी तुम्हें उन पलों में इस कवच से कोई परेशानी महसूस नहीं हुई। वृषाली ने इस बात का मुस्कुराते हुए जवाब ना में दिया था। बाद में कर्ण ने काशीपुर के राजा चित्रांगद की बेटी सुप्रिया से भी शादी की। चित्रांगद ने स्वयंवर आयोजित किया था, जिसे कर्ण ने जीता था। कर्ण के कई बच्चे भी हुए, लेकिन किसी को भी कवच-कुंडल नहीं था। होता भी नहीं, क्योंकि वो सूर्य पुत्र नहीं थे।
परशुराम को कर्ण ने सही परिचय दिया
महाभारत युद्ध के लिए कर्ण परशुराम के आश्रम में अमोघ अस्त्र लेने गया। परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को शिक्षा देते थे, क्षत्रियों को नहीं। कर्ण को खुद को ब्राह्मण बताया। एक बार परशुराम कर्ण की गोद में सो रहे थे, तभी कर्ण के पैर पर कोई जहरीला कीड़ा चढ़ गया। कर्ण ने उसे इसलिए नहीं हटाया कि गुरु की नींद में खलल पड़ेगा। पैर खून से लथपथ था। जब परशुराम उठे तो ये सब देखा। खुश होने के बजाय क्रोधित हो गए। कहा कि ये धैर्य, ये शक्ति ब्राह्मण में होती ही नहीं। तुम हो कौन। कर्ण ने अपना सही परिचय दिया। परशुराम झूठ से नाराज हुए और शाप दे दिया कि जब तुम्हें सबसे ज्यादा मेरी विद्या की जरूरत होगी तो वो तुम्हारे काम नहीं आएगी।
कर्ण ने मित्र चुनने में गलती की
कर्ण के हाथों एक ब्राह्मण की गाय भी धोखे से मारी जाती है। गाय कीचड़ में फंसी थी। ब्राह्मण शाप दे देते हैं कि कभी युद्ध में तुम्हारे रथ का पहिया भी कीचड़ में फंस जाएगा। कर्ण ने अर्जुन के लिए जो शक्ति बचाकर रखी थी, वो घटोत्कच को खत्म करने के लिए प्रयोग करनी पड़ी। युद्ध के पहले ही इंद्र ब्राह्मण बनकर कर्ण से कवच-कुंडल ले गए। फिर भी वो पूरी ताकत से लड़ा। उसकी 3 ही बड़ी गलतियां थीं- एक- उससे मित्र चुनने या समझने में गलती हो गई। दूसरा- द्रौपदी के मामले में वह नारी सम्मान नहीं कर पाया। इसलिए कृष्ण उसके हो नहीं पाए। तीसरा- शिक्षा हासिल करने के लिए गुरु से झूठ कहा। वो अपार योग्य, महाप्रतापी था, पर कुछ भूलों ने उसे चुका दिया। बस, यही थी आज की कहानी...