Bhopal: एक IPS की ‘एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान’, गांव बचाए रखने की कोशिश

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The Sootr CG
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Bhopal: एक IPS की ‘एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान’, गांव बचाए रखने की कोशिश

Bhopal. द सूत्र के साप्ताहिक प्रोग्राम में 11 जून को लाजपत आहूजा (पूर्व संचालक, जनसंपर्क विभाग) ने आईपीएस डॉ. गिरिजा किशोर पाठक से उनकी किताब एक आदिम चरवाहा गांव की दास्तान पर बात की। दरअसल ये बुक हिमालय की तराई के गांव की कहानी है। इसमें गांव की परंपरा, संस्कृति और अर्थव्यवस्था का वर्णन है।

कभी गांव का जीवन बहुत कठिन था

IPS डॉ. पाठक बताते हैं कि पढ़ाई के लिए गांव का जीवन बहुत कठिन था। इसे मैंने आर्टिकल मौत का लट्ठा में लिखा है। हमारी दादी बताती थीं कि रोज माचिस तो रहती नहीं थी, वो आग बचाए रखने के लिए अंगारों को ढंक देती थीं। एक बार अंगारे बुझ गए तो गांव की औरतों को करीब 10 किमी जाकर दूसरे गांव से आग लानी पड़ी। कुल मिलाकर 50 साल पहले जिंदगी इतनी आसान नहीं हुआ करती थी। गांव में माचिस की उपलब्धता नहीं रहा करती थी। हम लोग इसी संघर्ष से पढ़ा। इतनी कठिनाइयों के बाद गांव में लोग पढ़े और बढ़े। मैंने किताब में इन्हीं कठिनाइयों भरे जीवन को दिखाया है।

गांव को बचाए रखना जरूरी

डॉ. गिरिजा किशोर पाठक कहते हैं कि आप दो हजार साल भारत का इतिहास देखें तो देखेंगे अब गांव उजड़ा सा दिखता है। पहले देखिए कि जिन गांवों में पटवारी नहीं होते थे, वहां से आईएएस बन गए। जहां प्राइमरी स्कूल ही था, वहां के बच्चे प्रोफेसर बन गए। गांव की यादें, दोस्त, नदी-पहाड़, पेड़-पौधे, झरने की बातें इंसान के जेहन में हमेशा होती हैं। जब एक गांव खत्म होता है, पलायन कर जाता है, वो सिर्फ गांव पलायन नहीं करता, पूरी संस्कृति पलायन कर जाती है। उत्तराखंड के करीब 3 हजार गांव भुतहा हो गए। ये पूरे हिंदुस्तान की समस्या है। अकेले हिमालय की हम रक्षा नहीं कर पाएंगे तो कैसे चलेगा। हिमालय हमारे अस्तित्व ही नहीं, सुरक्षा के लिए भी जरूरी है। इसे बचाए रखना जरूरी है। किताब में ये भी बताया कि एक आमा (दादी) के पुरुषार्थ को बताया है कि कैसे वो खुद को एस्टेबलिश करती हैं। 

आदमी को छोटी नौकरी, सुविधाओं के लिए जड़ों से दूर जाना पड़ रहा

डॉ. पाठक कहते हैं कि जो गांवों की अर्थव्यवस्था थी, 50 साल पहले अनाज कम मिलता था, लेकिन कोई भूखा नहीं सोता था। सारी व्यवस्थाएं लोग ही करते थे। लुहार, बढ़ई, नाई नहीं मिलते। लोग खेती नहीं करते। लोग चाहते हैं कि छोटी-मोटी नौकरी मिल जाए तो पलायन कर जाएं। यूरोप में ऐसा नहीं दिखता। इसके लिए सरकारें जिम्मेदार हैं। अगर गांव के नजदीक ही नौकरी मिल जाए, ट्रांसपोर्टेशन, अस्पताल मिल जाए तो पलायन रुक सकता है। हमारे यहां छोटे इलाकों में विकास को लेकर सकारात्मक सोच नहीं है। समस्या डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट की नहीं है, वो अपने अस्तित्व के लिए कभी जा सकता है, लेकिन 5-10 हजार कमाने के लिए किसी को कई हजार किमी जाना पड़े, ये दुख की बात है।