वाकया 1984 के लोकसभा चुनाव का है। भारतीय जनता पार्टी अपनी स्थापना (6 अप्रैल 1980) के बाद कमल फूल के निशान पर पहला आम चुनाव लड़ने जा रही थी। पार्टी के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को चुनाव मैदान में उतारने के लिए नई दिल्ली के अलावा दूसरी सीट तलाश की जा रही थी ताकि पार्टी मुख्य प्रचारक के रूप में उनका उपयोग देशभर में कर सके। इस लिहाज से ग्वालियर सीट उनके लिए उपयुक्त मानी गई जो उनका गृह जिला भी थी। अटलजी ग्वालियर में सिंधिया परिवार के दबदबे और लोकप्रयिता के खतरे से वाकिफ थे। इसलिए एहतियातन उन्होंने सिंधिया परिवार का मन भी टटोला और आश्वस्त होने के बाद ही ग्वालियर के लिए अपनी रजामंदी दी लेकिन तमाम एहतियात बरतने के बाद भी ऐसा क्या हुआ कि अटलजी अपने गृह जिले की लोकसभा सीट से चुनाव हर गए। आइए आपको बताते हैं।
अटल जी को क्यों बदलनी पड़ी लोकसभा सीट
1984 का लोकसभा चुनाव ग्वालियर से लड़ने से पहले वाजपेयी 1980 में नई दिल्ली सीट से सांसद चुने गए थे। वे नई दिल्ली से चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र में ज्यादा सक्रिय नहीं रहे थे। इसलिए दूसरी सीट की तलाश में उनकी लिए गृह नगर ग्वालियर की सीट चुनी गई। वे 1971 में एक बार यहां से सांसद रह चुके थे लेकिन ग्वालियर को उन्होंने कभी भी अपने लिए सुरक्षित सीट नहीं माना। इसकी वजह भारतीय जनसंघ की शुरुआत के समय से ही मध्यप्रदेश में सिंधिया घराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया का दबदबा होना था। इसी के चलते वाजपेयी ने कभी उन्हें चुनौती देने की कोशिश नहीं की। राजमाता से उनके संबंध भी मधुर थे। ग्वालियर- चंबल अंचल में सिंधिया राजघराने की लोकप्रियता के खतरे से वाजपेयी भालीभांति वाकिफ थे।
सिंधिया का मन भी टटोलने के बाद ही भरा पर्चा
वाजपेयी ने बाद में खुद इस बात का खुलासा किया कि उन्होंने ग्वालियर लोकसभा सीट से नामांकन भरने से पहले ग्वालियर माधवराव सिंधिया का मन टटोला था। माधवराव उस समय गुना से सांसद थे। वाजपेयी ने उनसे पूछा था कि कहीं वे ग्वालियर से लोकसभा चुनाव लड़ने का मन तो नहीं बना रहे हैं। सिंधिया के इनकार के बाद ही वाजपेयी ने ग्वालियर से नामांकन दाखिल किया था, लेकिन इसके बाद वे कांग्रेस के चक्रव्यूह में उलझ गए और उन्हें चुनाव में अपने ही गृह जिले से हार का मुंह देखना पड़ा।
कांग्रेस ने एनवक्त पर किया सिंधिया के नाम का ऐलान
कांग्रेस की रणनीति एकदम स्पष्ट थी। उस समय वाजपेयी अपनी पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता और प्रचारक थे। कांग्रेस ने उन्हें ग्वालियर में ही घेरकर रखने की योजना बनाई जिससे वे देश के दूसरे क्षेत्रों में जाकर चुनाव प्रचार न कर सकें। इसलिए उनके सामने अचानक माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया। कांग्रेस ने यह फैसला इतनी देर से किया कि वाजपेयी के पास दूसरी लोकसभा सीट से नामांकन जमा करने का कोई विकल्प नहीं बचा था।
संबंधों पर नहीं पड़ा चुनाव में हर का असर
अंततः चुनाव में वाजपेयी ने सिंधिया से जमकर मुकाबला किया, लेकिन हार गए। चुनाव में सिंधिया के 3लाख 7 हजार 735 वोट मिले जबकि वाजपेयी को 1 लाख 32 हजार 142 वोट ही मिल पाए। हालांकि, चुनाव में हार के बाद भी सिंधिया घराने से वाजपेयी के रिश्तों पर कोई खास असर नहीं पड़ा। उन्होंने बाद में लिखा कि कांग्रेस हाईकमान ने सिंधिया पर ग्वालियर से चुनाव लड़ने का दबाव डाला था। पार्टी के दबाव के चलते उनके पास भी ग्वालियर से लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। वाजपेयी ने कहा कि ऐन वक्त पर सिंधिया ने ग्वालियर से नामांकन दाखिल किया, हालांकि उन्होंने कभी इसे सिंधिया के वचन तोड़ने के रूप में नहीं देखा लेकिन संबंधों की कसौटी पर सही भी नहीं ठहराया।