मस्कार दोस्तो, मैं अतुल हूं। आज शनिवार है और शनिवार है यानी आपको कहानी सुनाने का वादा है। कुछ आर्टिस्ट, कुछ फनकार सिर्फ आर्टिस्ट नहीं होते, वो इंस्टीट्यूशन यानी संस्थान हो जाते हैं। ऐसे ही थे प्राण साहब। जब विलेन के किरदार में दिखे तो वो विलेन का पर्याय हो गए। जब कैरेक्टर रोल्स में आए तो यहां अलग पहचान कायम की। आज उन्हीं की कहानी सुना रहा हूं। मैंने कहानी को नाम दिया है- जिन्होंने हीरो में फूंक दिए प्राण।
असल में फिल्मों में नायक कह लें, हीरो कह लें, ये उदात्त होता है। उदात्त यानी सच, सिद्धांतो के लिए जीने-मरने वाला, सबको साथ लेकर चलने वाला। फिल्म में हीरो तब उभरकर आता है, जब वो विलेन यानी निगेटिव शेड के आदमी को परास्त करता है। निगेटिव रोल जितना खूंखार होगा, हीरो का संघर्ष भी उतना ज्यादा होगा। इसके बाद ही हीरोइज्म दिखेगा। सही मायनों में प्राण साहब ने उस परंपरा यानी विलेन की खतरनाक परंपरा की शुरुआत की। इसमें उनके कई शेड्स भी दिखे। उन्होंने 1940 से 1990 के दशक तक दर्शकों को अपनी दमदार एक्टिंग कायल बना दिया था। कहा जाता है कि वो हीरो से ज्यादा फीस चार्ज करते थे।
प्राण ने आखिर फिल्मों में कदम कैसे रखा इसके पीछे भी मजेदार किस्सा है। प्राण दिल्ली में पैदा हुए, पर फिर लाहौर चले गए। बात 1939 की है, लाहौर में एक पान की दुकान में कुछ लड़के अक्सर रात को पान खाने आया करते थे। इन्हीं में से एक प्राण भी थे। उन दिनों वे एक फोटोग्राफर के असिस्टेंट हुआ करते थे। इसी दौरान एक रात पान की दुकान के पास बैठकर बड़े ही स्टाइल से सिगरेट पी रहे थे और पान खा रहे थे। उनकी नशीली आंखें और स्टाइल देखकर पास में खड़े एक आदमी ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया। उस आदमी ने फिर पूछा, इस बार प्राण ने गुस्से में कहा, “आपको मेरे नाम से क्या करना है?” फिर आदमी ने बताया, “मैं वली मोहम्मद हूं, मशहूर फिल्म प्रोड्यूसर दलसुख एम पंचोली का राइटर। मैं एक फिल्म की कहानी लिख रहा हूं, जिसका नाम यमला जट है। उसका किरदार तुम्हारी तरह ही बात करता है, पान चबाता है, क्या तुम ये रोल करोगे?”
प्राण ने उस आदमी की बातों पर ध्यान नहीं दिया और मना कर दिया। वली मोहम्मद ने उन्हें अगले दिन स्टूडियो आने के लिए कहा। सुबह हुई तो प्राण ने सोचा, रात को वो आदमी पान की दुकान पर लोगों के सामने अपना इम्प्रेशन जमाने की कोशिश कर रहा होगा, कौन जाए स्टूडियो और वे स्टूडियो नहीं गए। कई दिनों बाद जब प्राण एक दिन फिल्म देखने गए तो वहां फिर उनकी मुलाकात वली मोहम्मद से हुई. प्राण को देखते ही वो भड़क गए और डांटने लगे। इसके बाद प्राण ने कहा कि वे स्टूडियो आने के लिए तैयार हैं। प्राण की बात सुनकर वली ने कहा, “मुझे अपना पता दो, मैं साथ लेकर चलूंगा तुम्हें, क्योंकि मुझे तुम पर भरोसा नहीं है।”
अगले दिन प्राण स्टूडियो पहुंचे तो पंचोली साहब ने उन्हें साइन करना चाहा। प्राण ने कहा, “मेरे परिवार में किसी ने भी फिल्मों में काम नहीं किया है। मैं अपने घरवालों से इजाजत तो ले लूं।” प्राण की बात सुनकर पंचोली साहब भड़क गए और कहा कि अगर कॉन्ट्रेक्ट साइन करना है तो अभी करो, नहीं तो जाओ। इस तरह उन्होंने 50 रुपए महीने पर काम करना शुरू किया। फिर उन्होंने कॉन्ट्रैक्ट साइन किया।
उन्होंने अपने करियर की शुरुआत रामायण में सीता के रोल से की थी। राम लीला का वह शो 1938 में शिमला में हुआ था। फिल्मों में पहला ब्रेक साल 1942 में फिल्म ‘खानदान’ से मिला, इस फिल्म की हीरोइन नूरजहां थीं। प्राण ने बंटवारे से पहले कुछ पंजाबी और हिंदी फिल्मों में बतौर लीड एक्टर काम किया। प्राण ने लाहौर में 1942 से 46 तक यानी 4 साल में 22 फिल्मों में काम किया। इसके बाद विभाजन हुआ और वो पत्नी और एक साल के बेटे अरविंद को लेकर भारत आ गए और फिर यहां उन्हें फिल्मों में बतौर विलेन पहचान मिली। मुंबई में उनके पास कोई काम नहीं होने की वजह से पैसों की तंगी होने लगी। इसके बाद उन्होंने 8 महीने तक मरीन ड्राइव के पास स्थित एक होटल में काम किया। 1960 से 70 के दशक में प्राण की फीस 5 से 10 लाख रुपए होती थी। केवल राजेश खन्ना और शशि कपूर को ही उनसे ज्यादा फीस मिलती थी। डॉन में भी उनकी फीस अमिताभ से ज्यादा थी। डॉन का जसजीत याद ही होगा आपको...(डायलॉग)। उन्होंने अपनी जिंदगी में करीब 350 फिल्मों में काम किया।
1950 से 1980 यानी 4 दशकों तक प्राण फिल्म इंडस्ट्री के खूंखार विलेन के तौर पर मशहूर रहे। एक बार प्राण दिल्ली में अपने दोस्त के घर चाय पीने गए। उस वक्त उनके दोस्त की छोटी बहन कॉलेज से वापस आई तो दोस्त ने उसे प्राण से मिलवाया। इसके बाद जब प्राण होटल लौटे तो दोस्त ने उन्हें पलटकर फोन किया और कहा कि उसकी बहन कह रही थी कि ऐसे बदमाश और गुंडे आदमी को घर लेकर क्यों आते हो? प्राण कहते थे कि उन्हें हीरो बनकर पेड़ के पीछे हीरोइन के साथ झूमना अच्छा नहीं लगता।
एक इंटरव्यू में प्राण ने बताया था, “फिल्म उपकार से पहले सड़क पर मुझे लोग देख लेते तो ओ बदमाश, ओ लफंगे, अरे गुंडे कहकर फब्तियां कसते थे। जब मैं परदे पर दिखता था तो बच्चे मां के पल्लू में मुंह छिपा लेते थे। फिर मनोज कुमार ने ‘उपकार’ में मेरी इमेज बुरे आदमी से एक अच्छा आदमी की बना दी।”
अब बात एक खास फिल्म की। (यहां ज़ंजीर का डायलॉग...ये पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं)...। जी हां, ज़ंजीर...। पहले धर्मेंद्र, देव आनंद और राजकुमार को ऑफर हुई थी, लेकिन फिल्म के प्रोड्यूसर-डायरेक्टर प्रकाश मेहरा इस फिल्म को इन तीनों में से किसी के साथ भी फ्लोर पर नहीं ला पाए। जब तीनों ने ‘ज़ंजीर’ को ठुकरा दिया तो एक दिन प्राण ने प्रकाश मेहरा को अमिताभ बच्चन को फिल्म में लेने की सलाह दी। मेहरा ने एक बार बताया था, “प्राण ने मुझसे कहा था कि अमिताभ को ‘बॉम्बे टू गोवा’ में देखने के बाद मुझे लगता है कि वह फ्यूचर स्टार है।” क्या गजब की नजर थी। ग्रेट्स ऐसे ही होते हैं। पहचानने की गजब की ताकत रखते हैं। जो प्राण ने कहा था, वैसा ही हुआ भी। प्राण को सीएनएन ने 2010 में एशिया के टॉप 25 एक्टर्स में शामिल किया था।
भारतीय सिनेमा में कई दिग्गज विलेन हुए। कन्हैया लाल, केएन सिंह, जीवन, मदन पुरी, अमरीश पुरी, प्रेम चोपड़ा, मनमोहन, अजीत, रजा मुराद, रंजीत, अमजद खान, कुलभूषण खरबंदा, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, सदाशिव अमरापुरकर, किरण कुमार, कादर खान, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर, मुकेश ऋषि की लंबी फेहरिस्त है, सबका अपना अंदाजे बयां है, लेकिन प्राण ने तो विलेन परंपरा में जैसे प्राण ही फूंक दिए। बस, यही थी आज की कहानी.....