आर्य समाज के संस्थापक, दार्शनिक और समाज सुधारक थे स्वामी दयानंद सरस्वती, मूर्ति पूजा का क्यों किया विरोध जानिए इसके पीछे की कहानी

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Rahul Garhwal
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आर्य समाज के संस्थापक, दार्शनिक और समाज सुधारक थे स्वामी दयानंद सरस्वती, मूर्ति पूजा का क्यों किया विरोध जानिए इसके पीछे की कहानी

BHOPAL. आर्य समाज के संस्थापक, दार्शनिक और समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती की आज जयंती है। दयानंद सरस्वती का नाम पहले मूलशंकर तिवारी था। उनका जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। दयानंद सरस्वती के पिता करशनजी लालजी कपाड़ी धनी व्यक्तियों में से एक थे। इसलिए उनका बचपन विलासिता में बीता। दयानंद जब 8 साल के थे तब उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया था और वे औपचारिक रूप से ब्राह्मणवाद की दुनिया में शामिल हो गए।



दयानंद ने 27 विद्वानों और 12 विशेषज्ञ पंडितों को हराया



दयानंद सरस्वती ने 14 साल की उम्र में धार्मिक छंदों का पाठ करना शुरू कर दिया था। वे धार्मिक बहस में भी भाग लेने लगे थे। वाराणसी में 22 अक्टूबर 1869 को दयानंद सरस्वती ने एक धार्मिक बहस के दौरान 27 विद्वानों और 12 विशेषज्ञ पंडितों को हरा दिया था। बहस का विषय था कि क्या वेद देवता पूजा का समर्थन करते हैं।



मूर्ति पूजा के विरोधी होने के पीछे बचपन की कहानी



स्वामी दयानंद सरस्वती मूर्ति पूजा के विरोधी थे। इसके पीछे उनके बचपन में घटी एक घटना है। एक बार महाशिवरात्रि पर उनके पिता ने उनसे रात्रि उपवास और पूजा करने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार उन्होंने पूरे दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिए पालकी लेकर शिव मंदिर में बैठ गए। आधी रात को उन्होंने देखा कि चूहों का झुंड भगवान शिव की मूर्ति को घेरकर प्रसाद खा रहा है। उनके मन में एक सवाल उठा कि ये मूर्ति एक पत्थर है, जो अपनी रक्षा नहीं कर सकती उससे हम क्या उम्मीद कर सकते हैं। इस घटना ने उन पर बहुत प्रभाव डाला और आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्होंने घर छोड़ दिया।



स्वामी विरजानंद के शिष्य बने दयानंद सरस्वती



दयानंद सरस्वती जब मथुरा पहुंचे तो उनकी मुलाकात स्वामी विरजानंद से हुई। मूल शंकर उनके शिष्य बन गए और वेदों का अध्ययन करने लगे। वेदों के अध्ययन के दौरान दयानंद सरस्वती ने जीवन, मृत्यु और परवर्ती जीवन के बारे में अपने सभी सवालों के जवाब पा लिए। उनके गुरु स्वामी विरजानंद ने दयानंद को पूरे समाज में वैदिक ज्ञान के प्रसार का कार्य सौंपा। उन्होंने देश-विदेश जाकर वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार करना शुरू कर दिया।



दयानंद सरस्वती ने शिक्षा प्रणाली में किया बदलाव



स्वामी दयानंद सरस्वती ने जाति व्यवस्था की निंदा की। उन्होंने भारतीय छात्रों को अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ वेदों के ज्ञान को पढ़ाने वाले एक पाठ्यक्रम की पेशकश के लिए एंग्लो-वैदिक स्कूलों की शुरुआत की। दयानंद सरस्वती ने शिक्षा प्रणाली में बदलाव किया। दयानंद सरस्वती सीधे तौर पर राजनीति में शामिल नहीं थे, लेकिन फिर भी वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई राजनीतिक नेताओं के लिए एक प्रेरणा थे। उन्हें महर्षि की उपाधि दी गई थी। दयानंद सरस्वती को आधुनिक भारत के निर्माताओं मे से एक माना जाता था।



स्वामी दयानंद सरस्वती ने की आर्य समाज की स्थापना



7 अप्रैल 1875 को गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज का प्रमुख धर्म मानव धर्म था। उन्होंने परोपकार, मानव सेवा, कर्म और ज्ञान जैसे विचारों के साथ आर्य समाज की नींव रखी। कई लोगों ने स्वामी दयानंद सरस्वती का विरोध किया, लेकिन उनके तर्कों के आगे बड़े-बड़े विद्वानों को झुकना पड़ा।



'वेदों की ओर लौटो, वैदिक युग की ओर नहीं'



स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा था कि वेदों की ओर लौटो, वैदिक युग की ओर नहीं। स्वामी दयानंद जानते थे कि समता, समानता और अनेक सुधार वेदों में निहित हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती को वेदों के अध्ययन से ही कई सवालों के जवाब मिले थे।


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