Jabalpur. गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर प्रदेश के 4 शख्सियतों को पद्मश्री सम्मान के लिए चुना गया। इनमें चिकित्सा के क्षेत्र में जबलपुर के डॉ मुनीश्वर डाबर, कला क्षेत्र में उमरिया की जोधइया बैगा, झाबुआ के रमेश और शांति परमार शामिल हैं। इन चारों के संघर्ष की कहानी भी काफी रोचक है। जोधइया बैगा ने जहां अपने पति की मौत के बाद कला को सीखा तो शांति परमार को कच्चा माल जुगाड़ने के लिए काफी परेशान होना पड़ा। वहीं जबलपुर के डॉक्टर डाबर को कभी उनके गुरू ने कहा था कि गरीबों को मत निचोड़ना, उनकी इस बात पर उन्होंने महज 2 रुपए में इलाज करना शुरू कर दिया।
50 साल पहले 2 रुपए की फीस से शुरु किया इलाज
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था ‘ तुलसी पंछिन के पिए, घटे न सरिता नीर, धर्म करे धन न घटे, जो सहाय रघुवीर‘ जी हां जबलपुर के डॉ मुनीश्वर चंद डाबर अपने पेशे की मिसाल हैं। आपने मोटी-मोटी फीस लेकर इलाज करने वाले डॉक्टर तो देखे होंगे पर आप ताज्जुब में पड़ जाएंगे कि डॉक्टर डाबर की फीस आज भी 20 रुपए है। उन्होंने 50 साल पहले 2 रुपए फीस लेकर इलाज करना शुरू किया था। डॉक्टर साहब का कहना है कि उन्हें यह प्रेरणा अपने टीचर से मिली थी। जिनका नाम भी तुलसीदास था। डॉ डाबर की मानें तो उनके टीचर तुलसीदास ने यह ताकीद दी थी कि डॉक्टर बनने के बाद कभी किसी को मत निचोड़ना। उनकी ही प्रेरणा से वे आजीवन समाजसेवा करते रहे। उन्होंने बताया कि कोरोना के समय भी वे लोगों की सेवा करना चाहते थे, लेकिन उन्हें खुद दो बार कोरोना हो गया था, इस कारण सौ फीसदी सेवा नहीं दे पाए।
71 की जंग में दी सेवाएं
डॉक्टर डाबर ने सेना में भी बतौर डॉक्टर सेवाएं दीं। 71 की जंग में उन्हें बांग्लादेश में पोस्टिंग दी गई थी। जहां उन्होंने कई घायल जवानों का इलाज किया। बाद में 1972 में रिटायरमेंट लेकर जबलपुर में प्रैक्टिस करने लगे।
परमार दंपति ने कपड़ों की कतरन से बनाई आदिवासी गुड़िया
झाबुआ के रहने वाले रमेश और शांति परमार ने आदिवासी गुड़िया कला को प्रसिद्धि दिलाई। दोनों आदिवासी गुड़िया की रचना करते हैं। उन्होंने इस काम की शुरूआत साल 1993 में की थी। उद्यमिता का प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने यह सोचकर गुड़िया बनाना शुरू किया था कि इससे घरखर्च चलाएंगे, लेकिन उन्हें इस काम में कई परेशानियां झेलनी पड़ी। आर्थिक तंगी के कारण कच्चा माल नहीं जुटा पाते थे। इसलिए उन्होंने जुगाड़ करके कच्चा माल जुटाया।
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गुड़िया में दिखती है आदिवासी झलक
परमार दंपति की बनाई गुड़िया में आदिवासी समाज की झलक दिखती है। कोई गुड़िया बांस की टोकरी लिए होती है तो किसी के सिर पर गठरी होती है। आदिवासी पारंपरिक हथियार वाली गुड़िया भी देखी जा सकती है।
अब बात जोधईया बैगा की
उमरिया जिले की 83 साल की जोधईया अम्मा ने अपने पति की मौत के बाद चित्रकारी करना शुरू किया। उसके पहले उन्होंने पत्थर तोड़ने, मजदूरी करने से लेकर हाड़तोड़ मेहनत का हर काम किया। 15 साल पहले उन्होंने आशीष स्वामी के कहने पर आदिवासी चित्रकला की शुरूआत कर दी। अम्मा की पेंटिंग राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फेमस होने लगीं। जनजातीय कला के कई मंचों ने भी उन्हें सम्मानित किया। भोपाल जनजातीय संग्रहालय में तो उनके नाम की एक स्थाई दीवार बनी है। जिस पर उनके चित्र लगे हैं।