BHOPAL: 'एमपी अजब है, सबसे गजब है'....पर्यटन विभाग ने ये विज्ञापन वैसे तो पर्यटकों को लुभाने के लिए बनाया है.. लेकिन इस विज्ञापन की अजब-गजब वाली लाइनों को मध्य प्रदेश के अधिकारी अमल में भी लाते हैं। और ऐस यही गजब मामला मप्र के वन विभाग के अधिकारियों का भी है जिसे देख-सुनकर यही कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश सरकार, राज्य का वन विभाग और उसके गजब अधिकारी या तो निरे मूर्ख हैं या बेहद शातिर। दरअसल, कहा जा रहा है कि सत्तर साल बाद 17 सितंबर को भारत की धरती पर चीतों की वापसी हुई है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि 1952 में खुद भारत सरकार ने चीतों को देश से विलुप्त घोषित कर दिया था। ये बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज और बार-बार सरकारों द्वारा बोली भी गई है। मगर आपको जानकर हैरानी होगी कि मप्र में 1952 के बाद भी साल 1970 तक - यानी 18 सालों तक चीते जंगलों में जिंदा थे। न केवल जिंदा थे, बल्कि उनके शिकार की परमिशन भी सरकार ने दी थी। क्योंकि उस वक्त तक वन्य प्राणी अधिनियम 1972 लागू नहीं था। सालों तक मप्र सरकार शिकार के लिए चीतों की संख्या का गजट नोटिफिकेशन तक जारी करती रही। सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन ऐसा हुआ है और बकायदा सरकारी दस्तावेजों में ये सबकुछ दर्ज है। देखिए द सूत्र की ये विशेष और एक्सक्लूसिव रिपोर्ट:
यह है पूरा मामला
- दरअसल, भारत सरकार, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के 'प्रोजेक्ट चीता' के अनुसार आखिरी चीता (एसिनोनिक्स जुबेटस) साल 1947 में मारा गया था और साल 1952 में भारत से एशियाटिक चीतों को विलुप्त घोषित कर दिया गया था। ये जानकारी कई बार खुद भारत सरकार और मध्य प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में खुद भी दी गई है।
सरकार का अनोखा जवाब: चीता और तेंदुआ एक ही होते हैं!
दोनों नेताओं को अपने जायज सवालों का जो जवाब सरकार और वन विभाग से मिला, वो जानने लायक है और काफी हास्यास्पद है। दरअसल, मध्य प्रदेश सरकार, राज्य के वन विभाग और उसके अधिकारियों की माने तो तेंदुआ और चीता - दोनों जानवर एक ही होते हैं! जी हां....आपने बिलकुल सही सुना। अब तत्कालीन वन मंत्री सरताज सिंह के 2012 में विधान सभा में दिए गए जवाब और स्वर्गीय जमुना देवी को 2010 में वन विभाग द्वारा दिए गए जवाब से तो यही जाहिर होता है। सरकार और विभाग के जवाब क्या थे- आप भी पढ़ लीजिये:
सरकार ने अपने जवाब में कहा कि दरअसल जंगलों और आसपास के क्षेत्रों में सामान्य बोलचाल की प्रचलित भाषा में तेंदुए (पेंथेरा पारडस) को भी चीता (एसिनोनिक्स जुबेटस) कहा और लिखा जाता रहा है। इसलिए मध्य प्रदेश शासन द्वारा वर्ष 1970 तक के राजपत्रों में शिकार हेतु उपलब्ध चीतों की जो संख्या अधिसूचित की गई है, वह - चीता यानी एसिनोनिक्स जुबेटस न होकर तेंदुआ यानी पेंथेरा पारडस - के सीमित आखेट की ही अधिसूचनाएं थी। और वर्ष 1972 के बाद इस तरह की आखेट के अधिसूचनाएं भी जारी नहीं की गई। सरताज सिंह ने ये भी बताया कि ये सही है कि मध्य प्रदेश में चीते पचास के दशक में ही विलुप्त हो चुके थे और वन विभाग को चीतों (एसिनोनिक्स जुबेटस) के विलुप्त होने के बारे में जानकारी थी।
तत्कालीन वनमंत्री सरताज सिंह और तत्कालीन वन विभाग अधिकारी एच एस पाब्ला से बात
सवाल बड़ा है और इसीलिए चीते-तेंदुओं की इसी कन्फ्यूज़न को दूर करने के लिए हमने खुद तत्कालीन वनमंत्री सरताज सिंह और तत्कालीन वन विभाग अधिकारी एच एस पाब्ला से बात की....तो उन्होंने क्या कहा आप खुद ही पढ़ लीजिये:
- तत्कालीन वनमंत्री सरताज सिंह: इस बारे में कन्फ्यूज़न वाली कोई बात नहीं। चीते हमारे देश में ख़त्म हुए काफी लंबा अरसा हो चुका। जहां तक इस विधान सभा में किये गए सवाल की बात है तो जब चीते थे ही नहीं तो संरक्षण कैसे होगा? चीते तो अब आये है दोबारा। हो सकता है तेंदुए और चीते को लेकर कन्फ्यूज़न हुआ होगा ...मैं इस बारे में नहीं जानता। पर तेंदुआ और चीता में बहुत फर्क होता है-चीतों में आँख के पास काली लाइन होती है। चीते में स्पीड और स्फूर्ति होती है!
उपरोक्त दोनों पूर्व अधिकारी और मंत्री एक तरफ तो ये भी कह रहे है कि तेंदुआ और चीता आम-बोलचाल कि भाषा में एक ही हैं और इसीलिए जारी राजपत्रों में चीते कि नहीं बल्कि तेंदुए की बात की गई है। वहीँ, दूसरी तरफ सरताज सिंह खुद मानते हैं कि तेंदुए और चीते में काफी फर्क है...यहाँ तक कि उन्होंने द सूत्र को दोनों जानवरों के सारे फर्क खुद गिना दिए। यही नहीं तत्कालीन वन विभाग अधिकारी एच एस पाब्ला भी खुद ही कह रहें हैं कि फॉर्मल डाक्यूमेंट्स/क़ानून में आम-बोलचाल की भाषा में ही नहीं बल्कि साइंटिफिक/स्पेसिफिक नाम भी लिखा जाए। और राजपत्रों में भाषा का सावधानीपूर्वक इस्तेमाल होना चाहिए! पूरे मामले में साफ़ होता है कि अधिकारियों ने लिखा कुछ और कहा कुछ! सरकार ही तय नहीं कर पाई कि सही क्या है! तेंदुआ और चीता अलग-अलग है या फिर एक हैं! अब प्रदेश के वन विभाग के अधिकारी ये ही नहीं साफ़ कर पा रहे कि चीता अलग है और तेंदुआ अलग। बजाय साफ़ जवाब देने के गोलमोल जवाब दे रहे है। ये बड़ी सोचने वाली बात है!
अगर चीता-तेंदुआ एक ही है तो क्या जरुरत है चीता मित्रों की?
यानी तेंदुआ, पैंथर और चीता - सब एक हैं...कोई फर्क नहीं! ये बात वही सरकार कर रही है जिसने 74 साल बाद मध्य प्रदेश के श्योपुर स्थित कुनो नेशनल वन पार्क में चीतों के आने की तैयारियों में करीब 450 से अधिक चीता मित्र नियुक्त किए है। जिनका काम है चीतों के बारे में जागरूकता फैलाना और पार्क एवं जंगल के आसपास बेस लोगों को चीता और तेंदुआ में फर्क समझाना
विलुप्ति के बाद भी अगर चीते थे तो उनके संरक्षण की जगह MP सरकार उनके शिकार की परमिशन दे उसको बढ़ावा देती रही
इस पूरे मामले में एक सीरियस बात भी उठती है...वो क्या है ये जाने से पहले हम देख लेते हैं कि तत्कालीन सरकारों ने 1952 के बाद 18-20 सालों तक कितने चीतों का शिकार होने दिया...
- वर्ष 1966-67 तक बस्तर वन मंडल और कांकेर वन मंडल शिकारखंड में अधिक से अधिक संख्या में नीचे लिखे सूची पर शिकार खेले जा सकते हैं: 23
मतलब एक तरफ तो सरकार ने ये माना कि 1952 में एशियाटिक चीतों की संख्या ख़त्म तक मानकर उनको विलुप्त ही कह दिया। और उसके बाद के सालों तक चीतों को एक तरफ संरक्षित भी दिखाती रही। पर दूसरी तरफ नियंत्रित आखेट के लिए उनकी संख्या भी जारी करती रही चीतों को संरक्षित माना। किसी जानवर कि संख्या ज्यादा हो तो उसके आखेट की अनुमति देना समझ आता है पर जो जानवर पहले ही मुश्किलों में हो उसको शिकार करना कहाँ तक उचित है और वो भी सरकारी अनुमति से! कागज़ों से साफ़ होता है कि शिकार करने के लिए चीतों की संख्या जारी कि गई। इन चीतों का अगर किसी को शिकार करना था तो परमिट की जरुरत होती थी यानी सरकार की अनुमति की। द सूत्र का सवाल है कि क्या उस वक़्त की सरकारों ने विलुप्ति के बाद भी अगर चीतों के मिलने की कोई संभावना थी। तो उन्हें बचाने के बजाए उनके शिकार को बढ़ावा दिया?
शिकार की संख्या की लिस्ट में चीतों और तेंदुओं की संख्या अलग-अलग दर्शाई गई ...फिर दोनों एक कैसे?
इन सभी वर्षों में शिकार किये जाने वाले जानवरो की जो लिस्ट निकाली गई थी, चीतों के संख्या अलग दर्शाई गई है और तेंदुओं की संख्या अलग। यानी, यहाँ पर विभाग के अधिकारियों को चीता और तेंदुएं के नाम लिखने में भाषाई कन्फ्यूज़न नहीं हुआ? सरकारी विभागों के बेहरुपियेपन का क्लासिक केस!
सरकार नियंत्रित शिकार की जारी की गई अधिसूचनाओं से बचना चाहती थी: अनिल गर्ग, वरिष्ठ वकील
हमने इस पूरे मुद्दे पर हमने जब वरिष्ठ वकील अनिल गर्ग ने जो कहा वह सोचने लायक है। उन्होंने कहा वन विभाग खुद बार-बार यह बताते आया है कि चीते देश से साल 1952 में विलुप्त हो चुके थे। लेकिन इसके बावजूद MP के राजपत्रों में साल 1970 तक चीतों के शिकार केअधिसूचनाएँ जारी की जाती रहीं। जवाब में अधिकारियों का यह कहना कि वे अधिसूचनाएँ तेंदुओं को चीता मानकर जारी की गई थी। ये बताता है कि या तो सरकार और अधिकारी चीतों को 1952 में विलुप्त घोषित करने के बावजूद उनके नियंत्रित शिकार की जारी की गई अधिसूचनाओं से बचने की है। या फिर अगर ऐसा नहीं है तो साफ़ है कि वन अधिकारियों को चीता और तेंदुएं में अंतर ही नहीं पता। इन अधिकारियों ने सरकारी दस्तावेजों में जो अपनी बेवकूफी दिखाई वो वाकई में उन्हें देश के बाकी अधिकारियों से अलग करती है। अब ऐसे अधिकारी जो चीते और तेंदुए में फर्क नहीं जानते, उनसे ये उम्मीद कैसे की जाए कि वे कुनो में लाए गए चीते सुरक्षित रख पाएंगे?
क्या कुनो में लाये गए अफ़्रीकी चीते हैं शिकार से सुरक्षित और उनके शिकारी को मिलेगी सजा?
- अब जब नामीबिया से लाए गए 8 अफ़्रीकी चीते श्योपुर के कूनो नेशनल पार्क में बसा दिए गए हैं, तो आजकल न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर एक नया सवाल उठ रहा है। वो ये कि अभी तो ये अफ़्रीकी चीते बाड़े में हैं और सुरक्षित हैं। पर जब इन्हें सामान्य तरीके से जंगल में छोड़ा जाएगा, तब अगर किन्हीं हालातों में इनका शिकार हो जाता है तो उसे न्यायलय से दंड मिलना कठिन है। क्योंकि चीता 1952 में विलुप्त होने के कारण बाद में बने वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 की किसी भी अनुसूची में शामिल नहीं है।