दिल्ली. राज्य सरकारों को शराब, पेट्रोल पर वैट, प्रॉपर्टी और गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन से कमाई होती है। इस तरह की घोषणाओं के लिए बजट का इंतजाम करने के सीमित संसाधन होते हैं। बावजूद इसके केवल इलेक्शन जीतने के लिए इस तरह की रेवड़ियां बांटने का ऐलान किया जाता है और इन घोषणाओं को पूरा करने में सरकारों की आर्थिक कमर टूट जाती है। अब जरा इतिहास के पन्नों में झांकते हैं। चुनाव में इस तरह की रेवड़ियां बांटने की शुरुआत अस्सी के दशक में शुरू हुई और वो भी साउथ यानी दक्षिण भारत के राज्यों से जिन्हें बाद में उत्तर भारत के राज्यों ने अपना लिया।
विशेषज्ञ के विचार
अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी के मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति को लेकर ये विचार है कि भारत में मुफ्तखोरी सिर्फ एक विकृत संस्कृति या समस्या भर नहीं है, बल्कि यह अफीम या किसी खतरनाक ड्रग के नशे की तरह है। हर कोई इस नशे का शिकार हो रहा है, चाहे मुफ्त खाने वाला हो या फिर मुफ्त खिलाने वाला।
मुफ्तखोरी का इतिहास
मुफ्तखोरी की सियासत की शुरुआत दक्षिण के राज्यों से हुई थी। तमिलनाडु में अम्मा के महामुफ्तवाद ने सियासत की दिशा बदल दी। लेकिन शुरुआत 1977 में एमजी रामचंद्रन ने शुरू की थी, जिन्होंने सीएम बनने के साथ स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील योजना शुरू की। ये एक कल्याणकारी योजना थी लेकिन इससे मुफ्त वितरण की संस्कृति पैदा हुई। 2006 में करुणानिधि ने रंगीन टेलीविजन का वादा कर चुनावी जीत हासिल की। इसके बाद जयललिता ने तो मुफ्तवाद को बढ़ावा दिया। अम्मा कैंटीन, किसानों की कर्जमाफी, 100 यूनिट मुफ्त बिजली, मुफ्त चावल और भी कई योजनाएं शुरू की। मसलन मुफ्त बिजली के पंखे, इंडक्शन चूल्हे, धोती, साड़ी, लैपटॉप, साइकिल, दुधारू गाय, बकरियां, भेड़ सब कुछ। 2014 में चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश का सीएम बनते ही किसान, बुनकरों के कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया। मुफ्त राशन पैकेट, सस्ती दरों पर भोजनालय खोलने। सस्ती दरों पर आवासीय योजनाएं जैसी लोकलुभावन घोषणाएं की। यूपी में अखिलेश सरकार ने भी ऐसा ही कुछ किया। दिल्ली में आम आदमी पार्टी मुफ्त बिजली और पानी दे रही है। यूपी में भी आम आदमी पार्टी ने ये दांव फेंका था, जबकि यूपी के बिजली विभाग पर 90 हजार करोड़ का कर्ज था। ये नहीं देखा गया कि आर्थिक विशेषज्ञों की राय में चुनाव के दौरान मुफ्त देने की, जो योजनाओं का ऐलान होता है। इससे मुफ्तखोरी को बढ़ावा मिलता है और चुनाव आयोग को ऐसा कानून बनाना चाहिए कि पॉलिटिकल पार्टियों से ही ये फंड वसूला जाना चाहिए।
आज की राजनीति जनता को लालच दिखाती
अब कानून बनाने वाले भी राजनीतिक दल ही है। ऐसे में मुफ्त की राजनीति चुनाव जीतने का हथियार बन चुकी है। आम आदमी सरकार से इन सब चीजों की उम्मीद नहीं रखता, लेकिन सरकारें खुद उनके पास जाकर लालच दिखाती हैं। उनके मन में यह घर कर जाता है कि ये नेता उन्हें जरूरत की चीज तो देने से रहे, जो मिल रहा है उसे क्यों न ले लें। इस तरह लालच बढ़कर आदत बन जाती है। अगर जनता मुफ्तखोरी की आदी हो गई है, तो इसमें उसका उतना दोष नहीं जितना कि सरकारों का है।