MP: आदिवासी वोट बैंक साधने BJP सरकार पेसा एक्ट लागू करने की तैयारी में एक्ट लागू करने के नियमों का मसौदा आते ही विवादों में घिरा

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Ruchi Verma
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MP: आदिवासी वोट बैंक साधने BJP सरकार पेसा एक्ट लागू करने की तैयारी में  
एक्ट लागू करने के नियमों का मसौदा आते ही विवादों में घिरा

BHOPAL: मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने चुनावी साल के मद्देनज़र अपना दांव खेल दिया है। ढाई दशकों के इंतज़ार को ख़त्म करते हुए और राज्य के करीब डेढ़ करोड़ आदिवासी वोट बैंक को साधते हुए बीजेपी सरकार ने पेसा एक्ट-1996 को मध्य प्रदेश में पूरी तरह से क्रियान्वित करने का मन बना लिया हैं और मध्य प्रदेश पेसा नियम (प्रारूप) 2022-09-22 का नोटिफिकेशन जारी कर दिया हैं। लेकिन लग रहा हैं कि बीजेपी सरकार के इस कदम पर भी पहले ही अड़चनें आ गई हैं। क्या हैं पेसा एक्ट...क्यों 26 सालों से आज तक ये मध्य प्रदेश में पूरी तरह लागू नहीं हो पाया... और अब बीजेपी सरकार के एक्ट को प्रदेश में क्रियान्वित/लागू करने के इस सियासी दांव पर किसने लगा दिया अड़ंगा...देखिये ये पूरा मामला द सूत्र की इस स्पेशल रिपोर्ट में...





क्या हैं पेसा अधिनियम-1996





कब बना: दरअसल, देश में जनजातीय समूहों के बीच आम सहमति पर आधारित स्वशासन की परंपरा को ध्यान में रखते हुए पंचायत राज्य व्यवस्था ने जनजातीय क्षेत्रों के लिए स्वशासन अधिनियम- पंचायत विस्तार (अनुसूचित क्षेत्र) अधिनियम अर्थात ‘पेसा’ अधिनियम बनाया था। ये अधिनियम संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले अनुसूचित क्षेत्रों जैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश,और तेलंगाना के लिए था। यह अधिनियम 24 दिसंबर, 1996 को लागू हुआ था।





क्या कहता हैं: पेसा अधिनियम-1996 आदिवासी भागीदारी के आधार पर जनजातीय क्षेत्रों में आदिवासी स्वशासन की संस्कृति को कानूनी मान्यता तो देता है। ऐसा वह ग्राम सभाओं को मजबूत बनाकर करता हैं। साथ ही, इस कानून के तहत सशक्तिकरण की प्रक्रिया के दौरान आदिवासियों को न केवल सक्रिय सदस्यों के रूप में बल्कि सक्षम निर्णय निर्माताओं, नीति निर्माताओं, पर्यवेक्षकों और मूल्यांकनकर्ताओं के रूप में भी मान्यता दी गई है।





पेसा एक्ट के इम्प्लीमेंटेशन में देरी क्यों





देरी क्यों: पेसा अधिनियम-1996 को आज यानी 30 नवंबर, 2022 को करीब 26 साल हो गए हैं। लेकिन ढाई दशक बाद आज भी ये क्रांतिकारी कानून मध्य प्रदेश में कारगर ढंग से क्रियान्वित/लागू नहीं हो पाया है। दरअसल,अधिनियम के प्रावधानों में त्रुटियों, नियमों के निर्माण में देरी और अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी स्वशासन के प्रति सरकारी अत्यधिक उदासीनता (फिर चाहे वो बीजेपी सरकार हो या कांग्रेस) के कारण, मध्य प्रदेश में पेसा एक्ट-1996 इन ढाई दशकों में क्रियान्वित हो ही नहीं पाया।





साल भर में 50 मीटिंग्स के बावजूद देरी: हालाँकि, जब सरकारी अधिकारियों से जब इस देरी का कारण पूछा गया तो उनका कहना हैं कि: "समय लग रहा है मतलब अभी भी मसला पूरी तरह सेटल नहीं हुआ है....सरकार एक्ट के 'नट-बोल्ट्स' कसने में लगी हुई हैं। सरकार के काफी सारे विभाग इसमें इन्वॉल्व हैं और सरकार पेसा एक्ट से सम्बंधित विभागों के साथ हर आठवें दिन मीटिंग करती हैं...यानी साल में कम-से-कम 50 मीटिंग्स। पर एक्ट को क्रियान्वित करने में कई ऐसे मुद्दे हैं जिनपर सरकार सेटल नहीं हो पा रही और इसी लिए वक़्त लग रहा हैं।" देखा जाए तो सरकार पेसा एक्ट को इस तरह से प्रदेश में क्रियान्वित करवाना चाहती हैं कि जिससे न ही जंगलों पर तथाकथित सरकारी कंट्रोल कोई कमी आए...और साथ ही आदिवासी भी खुश हो जाए। यानी आदिवासी अंचलों में व्याप्त असंतोष का सांप भी मर जाए और जंगलों पर सरकारी तंत्र के प्रभाव की लाठी भी ना टूटे।





बहरहाल, अब सरकारें चाहे जो कारण बताए... पर प्रदेश में पेसा अधिनियम-1996 के प्रभावी कार्यान्वयन की कमी के कारण आदिवासियों के कई अधिकारों और अधिकारों की उपेक्षा होती रही। और इसी वजह से, राज्य के आदिवासी अंचलों में गतिरोध बना रहा। इसको लेकर कई बार आदिवासी आंदोलन भी हुए। साथ ही जयस और कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों ने भी मतलब साधने सरकार को इस मुद्दे को लेकर निशाने पर लिया...जिसकी वजहसे BJP सरकार कई बार बैकफुट पर रही।





अक्टूबर 2022 अंत तक पेसा एक्ट लागू कर BJP सरकार फ्रंटफुट पर खेलने की तैयारी में; पर तैयारी पर लगा अड़ंगा





दरअसल, राज्य के 1 करोड़ 53 लाख 16 हज़ार 7 सौ 84 आदिवासियों को साधने शिवराज सरकार ने प्रदेश में पेसा अधिनियम-1996 को पूरी तरह से क्रियान्वित करने के का मन पक्का कर लिया हैं...और इसके लिए नियमों का मसौदा (मध्य प्रदेश पेसा नियम (प्रारूप) 2022-09-22) तैयार कर लिया है। जिसका सरकार के पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने इसका गजट नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया है। विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अगर सब ठीक रहा तो मध्य प्रदेश में अक्टूबर 2022 के अंत तक पेसा एक्ट लागू कर दिया जाएगा।





पर सरकार ने पेसा एक्ट को प्रदेश में लागू करने के लिए बनाए गए नियमों का जो मसौदा तैयार किया हैं उसपर अभी से आपत्तियाँ उतने लगीं हैं। मध्य प्रदेश पेसा नियम (प्रारूप) 2022-09-22 पर ये आपत्तियाँ कोई और नहीं बल्कि पहले भी एक बार पेसा मुद्दे पर सरकार को बैकफुट पर लाने वाले तीर फाउंडेशन और कांग्रेस विधायक हीरालाल अलावा ने लगाईं हैं।





मसौदे पर किसने-क्या आपत्तियाँ उठाईं हैं





तीर फाउंडेशन नामक एक NGO ने मसौदे आते ही अपना अभिमत दे दिया हैं...और आपत्तियाँ  भी उठा दी हैं। आपको बता दें कि तीर फाउंडेशन वही NGO हैं जो पहले भी शिवराज सरकार को बैकफुट पर धकेल चुका हैं... सरसल, तीर फाउंडेशन ने ही अप्रैल, 2022 के पेसा एक्ट से ही जुड़े सरकार के नए वनप्रबंधन संकल्प पत्र (क्रमांक/एफ 16-04/1991/10-2: जनसहभागिता से वनों के संरक्षण हेतु मध्यप्रदेश शासन का समसंख्यक संकल्प 2021) में लिखी बातों का विरोध किया था। 22 अप्रैल, 2022 को भोपाल में केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह के मुख्य आतिथ्य एवं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुए 'वन समितियों का महासम्मेलन' में इसी नए वनप्रबंधन संकल्प पत्र के तहत हुईं घोषणाएँ हुईं थीं कि जंगल बदलने की प्रक्रिया अब से ग्रामसभा करेगी, वन विभाग केवल सहयोग करने का काम करेगा, यानी ग्रामसभा ताकतवर बनेगी। परन्तु तीर फाउंडेशन नामक के दर्ज कराए गए विरोध के बाद हफ्ते भर के अंदर ही सरकार को ये संकल्प निरस्त करने का निर्णय लेना पड़ा था। अब एक बार फिर सरकार की तैयारियों पर तीर फाउंडेशन का ग्रहण लग चुका हैं...तीर फाउंडेशन के मिलिंद थट्टे ने द सूत्र को मसौदे पर अपना अभिमत बताया और बोला कि मसौदे में कुछ नियम ऐसे है जैसे मालिक को किरायेदार से परमिशन लेनी पड रही है! तो क्या हैं तीर फाउंडेशन का अभिमत और आपत्तियाँ...आइये जानते हैं 







  • नियम 13(2) में ग्रामसभा निधि का प्रावधान तो है, लेकिन इस निधि में या खाते में राशि आने का कोई स्पष्ट स्रोत नही है। ग्राम पंचायत अपनी राशि इस में देना नही चाहेगी। और यदि ग्रामसभा का कोई आय स्रोत ना हो, तो ग्रामसभा बिना पैसे की कमजोर रहेगी।



  • 17(3) में सामुदायिक भूमि के उपयोग के व्यपवर्तन से पूर्व परामर्श का प्रावधान है।अच्छा है, किंतु म.प्र. में अब तक सामुदायिक वन संसाधन अधिकार नहीं के बराबर दिये गये हैं। जब तक सामुदायिक भूमि पर ग्रामसभा का अधिकार - सरकारी अभिलेखों में दर्ज नही होगा, तब तक इस प्रावधान का सही प्रभाव नही होगा।


  • अंतरित भूमि की जनजाति को वापसी की बात करें तो म.प्र. में पहले से ही भू-राजस्व संहिता 170-ख में अच्छे प्रावधान है। वही इन नियमों में दोहराए गये हैं...कुछ अलग नहीं हैं।


  • गौण वनोपज संबंधी नियम 25 में कुछ गंभीर त्रुटीयां हैं। 25(5) में वनाधिकार कानून के नियम 2(1)(घ) का उल्लेख किया है। वह नियम कहता है की वनोपज का संग्रहण, प्रक्रिया या संस्करण, परिवहन, विक्रय - यह सभी का पूरा अधिकार अधिकार-धारक ग्रामसभा का होगा। गौण वनोपज की वनाधिकार कानून की व्याख्या भी इन नियमों में स्वीकृत व उल्लेखित है। अर्थात, गौण वनोपज में तेंदूपत्ता व बांस भी शामिल है। इन वनोपजों का तथाकथित राष्ट्रीयीकरण (वास्तविक नौकरशाहीकरण) जो म.प्र. तेंदुपत्ता 1964 के कानून ने किया था।... वह अब गैर-लागू होना चाहिए...क्योंकि वह संसद द्वारा संमत वनाधिकार कानून  को छेद दे रहा है।


  • एक ओर पेसा नियम गौण वनोपज के बारे में वनाधिकार कानून की साक्ष्य दे रहे हैं, और दूसरी ओर नियम 26(4) में कहा है, की यदि ग्रामसभा तेंदूपत्ते का विपणन स्वयं करेगी तो ग्रामसभा को वनविभाग को अवगत कराना होगा। यह बात तो ऐसी है, की मालिक को किरायेदार से परमिशन लेनी पड रही है! वास्तविक इस के उलटा प्रावधान होना चाहिये था।  जिस में वनोपज संघ ग्रामसभा से अनुमति लेता।






  • वहीँ कांग्रेस विधायक हीरालाल अलावा ने भी 21-22/9/2022 को जारी पेसा कानून 1996 <मध्यप्रदेश पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) नियम, 2022> पर अपना विरोध जाता दिया हैं...आइये जानते हैं क्या बोलते हैं हीरालाल अलावा







    • संविधान की 5वीं अनुसूची के तहत विकास खण्ड को अधिसूचित किया गया है।विकास खण्ड में कुछ ऐसे ग्राम भी होते है जिनमें कोई भी अनुसूचित जनजाति का सदस्य नही होता... उन ग्रामों में ग्रामसभा के गठन पर नियम मौन है। साथ ही विकास खण्ड में वीरान ग्राम भी होते है... जिनमें भूमि के मालिक किन्हीं कारणों से अन्य ग्रामों में निवास करते है लेकिन कृषि आदि समस्त कार्य वीरान ग्राम में ही रहते है, इस तरह के ग्रामों को लेकर कोई भी उल्लेख नियम में नही है।



  • ग्रामसभा, ग्राम पंचायत एवं विकास खण्ड की सीमा क्या मानी जाएगी यह भी स्पष्ट नहीं हैं और ऐसा किया जाना आवश्यक है क्योंकि ग्राम के पटवारी मानचित्र में आने वाले क्षेत्रों में से आरक्षित वन एवं संरक्षित वन क्षेत्रों को... वन विभाग ग्रामसभा, ग्राम पंचायत एवं विकास खण्ड की सीमा से बाहर प्रतिवेदित करता है। इस स्थिति पर नियम में विचार ही नही किया गया।


  • आजादी के पूर्व राजस्व ग्रामों की मिसल बन्दोबस्त, बाजिबुल अर्ज, गांव कायदा एवं आजादी के बाद निस्तार पत्रक, अधिकार अभिलेख, पटवारी मानचित्र में दर्ज ग्रामीण समाज के सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए दर्ज, सामुदायिक, परम्परागत, रूढ़िक अधिकारों के लिए दर्ज जमीनों को भारतीय संविधान लागू किए जाने के बाद... वन विभाग ने भा.व.अ. 4927 की धारा 29, धारा 20 एवं धारा 20-अ में आरक्षित वन, संरक्षित वन, नारंगी वन एवं अवर्गीकृत वन मान वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया। इस तरह से साधनों को लेकर नियमों में किसी भी तरह का कोई स्पष्ट प्रावधान नही किया गया।


  • पेसा कानून 4996 पारित होने के बाद संसद और विधानसभाओं ने कानून बनाए... संविधान एवं कानून में संशोधन किए..उदाहरण स्वरूप पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में  ग्रामसभा को अधिकार दिए गए... भूमि अर्जन अधिनियम 2013 में ग्रामसभाओं को अलग-अलग चरणो में अधिकार दिए गए ...भू-राजस्व संहिता 4959 की धारा 237 में वर्ष 2044 में भी संशोधन किए गए ....इनमें ग्रामसभाओं की भूमिका को निर्णायक बनाया... उन्हें ध्यान में रखा जाकर “प्रस्तावित नियमों में समुचित प्रावधान” नही किए गए।


  • लघु वनोपज के संबंध में 44वीं अनुसूची में, पेसा कानून 1996 में और वन अधिकार कानून 2006 में प्रावधान है। तैयार किये गए नियमों में इन सभी को ध्यान में रखा जाकर ग्रामसभा को अधिकार, नियंत्रण एवं प्रबन्धन सौपें जाने, वन अधिकारियों एवं कर्मचारियों द्वारा उसमें हस्तक्षेप किए जाने से संबंधित वैधानिक प्रावधान नही किए गए हैं।


  • ग्रामसभा में आपत्ति उठाई जा सकती है, पुनर्विचार किया जा सकता है इसका उल्लेख तो कर दिया... लेकिन पुनर्विचार की प्रक्रिया का कहीं कोई निर्धारण ही नही किया। इसी नियम में अनुविभागीय अधिकारी के कार्यालय में आपत्ति उठाई जा सकती है उस संबंध में भी कोई प्रक्रिया निर्धारित नही की गई इससे ग्रामसभाओं के प्रस्तावों के औचित्य ही समाप्त हो जाएंगे।


  • ग्रामसभा पर पाबन्दियों से संबंधित कंडिका 2 एवं कंडिका 4 को स्पष्ट किए जाने की बजाय शासकीय अमले को असीमित अधिकार दे दिए गए है.... इन दोनों ही विषयों पर कोई भी स्पष्टता ही नही है।


  • ग्राम की सीमा में आने वाले जल, जंगल एवं जमीन से संबंधित संविधान में क्या कहा है, कानूनों में क्या कहा है, सर्वोच्च अदालत ने क्‍या कहा है.... उसे वर्तमान में भी राजस्व विभाग एवं वन विभाग नही मान रहा है... उस स्थिति में नियमों में इस बाबत्‌ प्रावधानों को स्पष्ट नही किया और ये संविधान कानून एवं न्यायालयीन आदेशों की अनदेखी एवं उपेक्षा के लिए पर्याप्त है।


  • ग्रामसभा की सीमा में वन विभाग ने संयुक्त वन प्रबन्धन समितियों के रूप में एक समानान्तर व्यवस्था कायम कर रखी है...जिसे लेकर वन विभाग द्वारा दावा किया जाता है कि इन समिति का चयन या चुनाव ग्रामसभा करती है। ग्रामसभा का इन समितियों को प्रदाय लाभांश की राशि पर क्या नियंत्रण होगा... यह लाभांश की राशि सम्पूर्ण ग्राम की है या डी.एफ.ओ. द्वारा गठित समिति की है इस लाभांश की राशि को किन कार्यों में खर्च किया जाएगा उस खर्च के संबंध में नियंत्रण एवं निगरानी का ग्रामसभा को क्‍या अधिकार होगा...इस पर पूरा नियम मौन है।


  • लघु वनोपज के शुद्ध लाभ की पूरी राशि प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति को प्रदान करने के आदेश शासन ने 45 मई 998 को जारी किए... जिसमें 50 प्रतिशत राशि नगद के रूप में वितरित किए जाने, 25 प्रतिशत राशि ग्रामीण विकास पर खर्च किए जाने या समिति के प्रस्ताव पर नगद वितरित किए जाने के प्रावधान का पालन नही किया, समिति में शामिल ग्रामों की ग्रामसभाओं को लाभांश की राशि में से ग्रामीण विकास एवं वन विकास की राशि बाबत्‌ कोई अधिकार ही नही दिया हैं।


  • संविधान की 44वीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वन अधिकार कानून 2006, भू-राजस्व संहिता 4959 के प्रावधान एवं सर्वोच्च अदालत के याचिका क्रमांक 202/95 में दिए गए अधिकार, छूट, प्रावधान एवं आदेशों को नियमों में माने जाने से इन्कार किया गया हैं। नियम 25 लघु वन उपज में “इसका यह मतलब नही होगा कि ग्रामसभा को वन भूमि निहित की गई है” का प्रावधान कर दिया है।


  • पेसा कानून 4996 पारित होने के बाद संसद और विधानसभाओं ने कानून बनाए... संविधान एवं कानून में संशोधन किए..उदाहरण स्वरूप पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में  ग्रामसभा को अधिकार दिए गए... भूमि अर्जन अधिनियम 2013 में ग्रामसभाओं को अलग-अलग चरणो में अधिकार दिए गए ...भू-राजस्व संहिता 4959 की धारा 237 में वर्ष 2044 में भी संशोधन किए गए ....इनमें ग्रामसभाओं की भूमिका को निर्णायक बनाया... उन्हें ध्यान में रखा जाकर “प्रस्तावित नियमों में समुचित प्रावधान” नही किए गए।


  • सबसे महत्वपूर्ण है जनजातीय समुदाय की परम्पराओं, रूढ़ियों, सामुदायिक व्यवस्था एवं सार्वजनिक, निस्तारी व्यवस्था को लेकर “पेसा कानून 1996" में दिए गए प्रावधानों के बाद भी राज्य सरकार आज तक रूढ़िजन्य विधि संहिता या स्वीय विधि कानून का निर्माण नही कर पाई उसे वैधानिक दर्जा भी नही दे पाई। इस स्थिति में प्रस्तावित नियमों में इस पूरे व्यापक विषय पर किए गए सीमित प्रावधानों का क्या महत्व है उसका क्या असर होगा।






  • सरकार आदिवासियों को हक़ देने को लेकर कई बार पहले कर चुकी हैं एलान





    सीएम शिवराज सिंह चौहान ने पहली बार 18 सितंबर 2021 को जबलपुर में रघुनाथ शाह और शंकर शाह के बलिदान दिवस के कार्यक्रम में मप्र में पेसा एक्ट लागू करने का बयान दिया था। इस कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हुए थे। इसके बाद सीएम ने 15 नवंबर 2021 को बिरसा मुंडा की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में भी पेसा एक्ट लागू करने का बयान दिया। इस कार्यक्रम में पीएम मोदी शामिल हुए थे। आदिवासी वोटबैंक को अपने पाले में लाने के लिए भोपाल के हबीबगंज स्टेशन का नाम रानी कमलापति स्टेशन रखा गया। इंदौर में टंट्या भील की प्रतिमा लगाने का ऐलान हुआ और टंट्या भील की जयंती और पुण्यतिथि के मौके पर भव्य कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। एक साल तक सरकार कहती रही कि पेसा एक्ट लागू कर रहे हैं। और इस साल 18 सितंबर 2022 को जबलपुर में शहीद दिवस के मौके पर भी शिवराज ने फिर कहा कि मप्र में पेसा एक्ट लागू किया जा रहा है। शिवराज के इसी बयान के तीन दिन बाद 21 सितंबर 2022 को ही पेसा एक्ट के मसौदे का गजट नोटिफिकेशन भी कर दिया गया। गजट नोटिफिकेशन होने के बाद 6 अक्टूबर तक सुझाव और आपत्तियां मांगी गई है। इसके बाद फाइनल मसौदे का प्रकाशन होगा।





    इन एलानों की वजह आदिवासियों का तगड़ा 21% का वोट बैंक





    मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मतदाताओं की बड़ी भूमिका है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 15,316,784 (अभी 2 करोड़ के करीब) है। राज्य में आदिवासी लगभग 23 फीसदी वोटर है। यहां की 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं और 87 पर आदिवासी वोटर सबसे ज्यादा हैं। इसलिए इन सीटों पर हार और जीत काफी मायने रखती है। महाकौशल और विंध्य इलाके में गोंड आदिवासियों की संख्या ज्यादा है, तो वही मालवा निमाड़ इलाके में आदिवासी वर्ग के भील और भिलाला ज्यादा है। यही कारण है कि बीजेपी आदिवासी-हितैषी होने पर इतना जोर लगा रही है। 





    अब जो सुझाव और आपत्तियां इस मसौदे को लेकर सामने आई है सरकार इन सुझावों को मसौदे में शामिल करती है या इसके बगैर ही पेसा एक्ट को लागू करती है ये देखना होगा वैसे छत्तीसगढ़ सरकार ने भी पेसा एक्ट को लागू किया है लेकिन आधे अधूरे नियमों के साथ ऐसे में यदि सरकार ग्राम सभाओं को वैसे अधिकार नहीं देती जिसकी मांग जयस और गोंडवाना जैसे संगठन करते आ रहे हैं तो ये एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा। मगर इतना तय है कि सरकार पेसा एक्ट को चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश करेगी क्योंकि सवाल 47 आदिवासी सीटों का है।



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