देव श्रीमाली, Gwalior. भाजपा कई मोर्चो पर विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रही है। इसके लिए उसे सबसे ज्यादा चिंता पिछड़े और दलित वोट की सता रही है। इसको लेकर अब अगले महीने होने वाले राज्यसभा चुनावों के जरिये संदेश देने की फिराक में है। चूंकि ग्वालियर चम्बल संभाग दलित और पिछड़ों का बाहुल्य है, और जीत का रास्ता इसी क्षेत्र से जाता है। ऐसे में राज्यसभा की कवायद ग्वालियर में ही चल रही है। मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव अगले साल के अंत में है, लेकिन भाजपा इस चुनाव को लेकर अभी से परेशान है। उसकी सारी परेशानी की बजह ग्वालियर-चम्बल अंचल की 34 सीटें हैं। जिन्होंने शिवराज सिंह का लगातार चौथी बार सीएम बनने का रास्ता रोक दिया था, और पन्द्रह साल से सत्ता का सूखा झेल रही कांग्रेस को सत्ता सौंपकर कमलनाथ को सीएम पद की शपथ दिलवा दी। हांलाकि भाजपा और शिवराज ने कांग्रेस में सेंधमारी कर और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा बड़ा विकेट चटकाकर कमलनाथ सरकार गिराकर अपनी खोई गद्दी तो हासिल कर ली। लेकिन अब असली चुनौती को अगले साल के चुनावों में सरकार को बचाने की है।
दलित और पिछड़ों की चिंता
ग्वालियर-चम्बल में दलित और पिछड़े वोट निर्णायक है क्योंकि इसका बड़ा इलाका यूपी की सीमा से लगा है । 2018 में इस क्षेत्र में आरक्षण को लेकर घमासान हुआ था, और 2 अप्रैल में दलितों के जुलूस द्वारा की गई हिंसा और बदले में सवर्णों द्वारा की गई हिंसा में दो दलितों की मौत हो गई थी। उसके बाद पुलिस कार्रवाई ने दलितों को भाजपा से दूर कर दिया। पिछड़े वोट भी गोलबंद हुए नतीजा कांग्रेस ने 26 सीट जीतकर सारे गणित गड़बड़ा दिए। अब भाजपा इसका इलाज खोजने में लगी है। कहने को सरकार में अंचल के मंत्रियों की भरमार है लेकिन इनमे न कोई दलित है और न पिछड़ों का पर्याप्त है। गुर्जर भाजपा से नाराज है । कुशवाह यानी काछी वोट अब तक भाजपा में थे लेकिन पिछले चुनाव में सबलगढ़ में कुशवाह धोखा देकर कांग्रेस के साथ चले गए और उपचुनाव में दलबदल कर भाजपा के टिकिट पर उतरे दिग्गज गुर्जर नेता ऐदल सिंह कंसाना की हार से भाजपा हिल गई। वह काछियों को साधने के लिए प्रदेश में अगले महीने खाली होने वाली राज्यसभा दो में से एक सीट देने की सोच रही है। इसको लेकर पूर्व मंत्री और इस समाज के बड़े नेता नारायण सिंह कुशवाह के नाम पर चर्चा चल रही है।
पिछले चुनावों में छिटक गए थे दलित
अंचल के दलित खासकर जाटव वोटर अभी भी भाजपा से छिटका हुआ है। उप चुनाव में भी उसने झटका दिया था। दलित सीट गोहद ,डबरा और करैरा बुरी तरह हारे थे। डबरा में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी कांग्रेस से तीन चुनाव, चालीस से लेकर पचास हजार वोट के भारी अंतर से जीतती रहीं थीं। ज्योतिरादित्य सिंधिया और शिवराज सिंह दोनो ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया लेकिन वह बुरी तरह हारी। जो दो सीट भाजपा जीत सकी उसमे से भांडेर में जीत महज सवा सौ वोट की थी और अम्बाह में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर ने अंतिम क्षणों में पूरा जोर लगाया तो जीत मिली। भाजपा जानती है आम चुनाव में उप चुमाव जैसा जोर लगाना संभव नही है। भाजपा 2018 की करारी हार के बाद से ही जाटवों की नाराजगी पाटने की कोशिश में जुट गई थी। इसी का परिणाम था कि पार्टी ने गोहद के दलित नेता 2018 में हारने के बावजूद लाल सिंह आर्य को बड़ा उछाल देते हुए उन्हें भाजपा के अनुसूचित मोर्चे के राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया था। अब उन्हें राज्यसभा में भेजने पर भी शिद्दत से विचार हो रहा है। अगर ऐसा हुआ तो ऐसा दूसरी बार होगा जब ग्वालियर से भाजपा के एक से अधिक राज्यसभा सदस्य हों।
पहले भी रह चुकें हैं दो राज्यसभा सदस्य
ग्वालियर से भाजपा में कई नेता राज्यसभा में जा चुके है । इनमे नारायण कृष्ण शेजवालकर, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, सरदार संभाजी राव आंग्रे, सिकंदर बख्त और लालकृष्ण आडवाणी यहीं के पते पर राज्यसभा चुने गए। इसके बाद एक समय ऐसा भी आया जब ग्वालियर से दो नेता एक साथ राज्यसभा में थे। कप्तान सिंह सोलंकी और माया सिंह। जब कप्तान सिंह राज्यपाल बन गए और माया सिंह एमएलए। तो प्रभात झा राज्यसभा में चले गए। इससे पहले नरेंद्र तोमर भी कुछ समय के लिए राज्यसभा में रह आये। खास बात ये कि इतनी बडी फेहरिश्त में न तो किसी पिछड़े को मौका मिला और न ही दलित को । इस बार भाजपा इस विसंगति को मिटाने के लिए एक्सरसाइज कर रही है और इसको लेकर संघ में भी कवायद चल रही है।