Rewa. नगर निगम या यूं कहें कि शहरी क्षेत्र में भले ही भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पर भारी पड़ती रही। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर जिला पंचायत यानि जिला सरकार में गैर दलीय निर्वाचन के बावजूद वर्चस्व को लेकर बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस बीस रही है। ये बात और है कि दोनों दलों ने दो-दो बार सत्ता हथियाई, लेकिन अभय मिश्रा ने ये आंकड़ा भी उलट दिया। जिला पंचायत में कांग्रेस हमेशा सशक्त रही। पंचायत राज अधिनियम के अमल में आने के बाद से रीवा जिला पंचायत के अब तक 5 चुनाव हो चुके हैं, जिसमें एक बार बहुजन समाज पार्टी भी कांग्रेस के समर्थन से फतह कर चुकी है। जिला पंचायत के आम चुनाव को मिनी विधानसभा का चुनाव कहा जाता रहा, ऐसे में इसकी अहमियत दलों के लिए ज्यादा रहती है। यही वजह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों दल बड़े चेहरे दांव पर लगाने से गुरेज नहीं करते, अलहदा उम्मीदवारों के नामों की आधिकारिक घोषणा नहीं करते, लेकिन स्थानीय क्षत्रपों के बेटे बहू, भाई और कट्टर समर्थक मैदान में होते हैं और वे सक्रिय सदस्य होते हैं।
मंजू से अभय तक का सफर
जिला सरकार के गठन के बाद पहले चुनाव में अध्यक्ष पद सामान्य वर्ग कोटे में था। 1994 में जब त्रि-स्तरीय कराए गए, तब कांग्रेस की मंजूलता तिवारी जिला पंचायत की पहली अध्यक्ष चुनी गईं। तब से लेकर 2014 तक जिला पंचायत के चुनाव बड़े दिलचस्प रहे हैं। सदस्यों के जीतने के बाद से अध्यक्ष बनने तक जिला सरकार में कांग्रेस और बीजेपी के बीच वर्चस्व की लड़ाई हमेशा रही है। जनता से सीधे चुनकर आए सदस्यों को अपने पाले में करने और पार्टी का वफादार सिपाही बताने में एड़ी चोटी का जोर लगाते हैं। पहले दो चुनावों के बाद बसपा की बबिता साकेत और अभय मिश्रा के चुनाव में जोर-आजमाइश खूब देखने को मिली। बबिता साकेत को कांग्रेस का भरपूर समर्थन पूरे 5 साल मिला। कमोवेश यही स्थिति अभय के सामने भी रही वे पहले बीजेपी के पाले में और बाद में कांग्रेस के हो गए। ऐसे में जिला पंचायत में कांग्रेस का पलड़ा भारी पड़ता रहा। केवल माया सिंह एकमात्र ऐसी नेता हैं जिन्हें, खांटी भाजपाई माना जा सकता है।
बड़े चेहरे जो विधानसभा में उतरे
जिला पंचायत में अब तक कई बड़े चेहरों ने राजनीतिक पारी की शुरुआत की है। मंजूलता तिवारी अध्यक्ष बनने के बाद 2003 के विधानसभा में कांग्रेस की प्रत्याशी बनीं। इसके अलावा स्व. पं. श्रीनिवास तिवारी विधानसभा के पूर्व स्पीकर के नाती डॉ. विवेक तिवारी ‘बबला’ ने भी और बबिता साकेत ने अपनी सियासत का आगाज जिला पंचायत की पिच से किया था। हालांकि ये तीनों विधायक नहीं बन सके। लेकिन जिले की राजनीति में स्थापित जरूर हो गए। यहां तक कि बबिता साकेत कांग्रेस में अनुसूचित जाति का एक बड़ा चेहरा बनकर उभरी है। जबकि डॉ. विवेक तिवारी ‘बबला’अब इस दुनिया में नहीं हैं। वे 2013 में सिरमौर विधानसभा से कांग्रेस के उम्मीदवार थे और बबिता 2018 में मनगवां सुरक्षित सीट पर कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ चुकी है।
जब अभय के खेल में फंस गई बीजेपी
2008 में सेमरिया विधानसभा से पहले विधायक चुने जाने का खिताब हासिल कर चुके अभय मिश्रा की बीजेपी से कभी पटरी नहीं बैठी। ये बात और है कि सिरमौर जनपद अध्यक्ष रहते उनकी बीजेपी में पैठ बन गई और कमल के चिन्ह पर सेमरिया से विधायक बन बैठे, लेकिन तब के पार्टी जिला अध्यक्ष जनार्दन मिश्रा और पूर्व मंत्री राजेन्द्र शुक्ला से उनकी राजनीतिक अदावत पूरे 5 साल चली। यहां तक कि वे जनार्दन मिश्रा की खुलेआम मुखालफत करने लगे थे। लिहाजा पार्टी ने 2013 में टिकट काटकर उनकी पत्नी नीलम मिश्रा को सेमरिया क्षेत्र में उतार दिया। लेकिन राजनीति के शातिर खिलाड़ी अभय मिश्रा ने जिला पंचायत अध्यक्ष बनने नया पैंतरा खेला, जिसमें बीजेपी उलझकर रह गई। पार्टी से जुड़े सदस्यों और निर्दलियों को साथ लेकर ऐसा व्यूह खड़ा किया कि बीजेपी को उनकी पीठ पर हाथ रखना पड़ा। दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी ने उन पर अंकुश लगाने उपाध्यक्ष के पद पर विभा पटेल जैसे मूल भाजपाई को बैठा दिया, लेकिन अभय मिश्रा के बगावती तेवर ढीले नहीं पड़े। लिहाजा पार्टी ने ना केवल अभय को किनारे कर दिया, बल्कि उनकी विधायक पत्नी नीलम को 2018 के आम चुनाव में टिकट काट दिया। बहरहाल अभय ने कांग्रेस का दामन थाम लिया। यही नहीं वे रीवा सीट से राजेन्द्र शुक्ल पूर्व मंत्री के खिलाफ कांगेस प्रत्याशी बनकर सामने आए। हालांकि ये चुनाव अभय नहीं जीत पाए लेकिन जिला पंचायत अध्यक्ष का पद और रसूख उनसे बीजेपी नहीं छीन पाई।
अब आगे क्या ?
यूं तो जिला पंचायत के चुनाव गैरदलीय आधार पर होते हैं। लेकिन एक साल बाद प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने है, ऐसे में बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों दल जिला पंचायत चुनाव को पर्दे के पीछे से विधानसभा की तर्ज पर लड़ेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है। दोनों पार्टियां अधिकृत तौर पर प्रत्याशी भले न दें, लेकिन जितवाने में पूरे दमखम से लग सकती हैं और अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के पद के लिए खुलकर खेल करेंगी। जिला पंचायत में कुल 32 वार्ड हैं जिसमें आगे आने वाले वक्त में स्थानीय क्षत्रपों का आपसी संघर्ष देखने को जरूर मिलेगा।