भोपाल. कांग्रेस के लिए ये फैसले की घड़ी है। बात केंद्रीय नेतृत्व की हो या फिर प्रदेश स्तर के नेता की। घर की कांग्रेस या सबकी कांग्रेस। इस ख्याल के बीच झूल रही कांग्रेस यदि सख्त फैसले लेने से बचती रही, तो शायद अंजाम और भी बुरा हो सकता है। हालत यह हैं कि एआईसीसी में पनपे विरोध और असंतोष की आंच अब मध्यप्रदेश तक आने लगी है। कबीले और सरदार में से किसे चुनना है, इशारों में ही सही ये बात होने लगी है। ये वक्त सोनिया गांधी सहित पूरे गांधी परिवार के लिए जितना अहम और मुश्किल है, उतना ही कठिन कमलनाथ के लिए भी है।
कमलनाथ की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है: पांच राज्यों में मिली जबरदस्त शिकस्त के बाद कांग्रेस नेतृत्व एक बार फिर आत्म अवलोकन के मोड में है। अब गांधी परिवार का विरोध भी दबी जुबान में नहीं होता। पार्टी के कुछ नेताओं का एक धड़ा खुलकर अपना विरोध जताने लगा है। जी 23 के नेताओं में शुमार वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो जुमला भी उछाल दिया है कि घर की कांग्रेस या सबकी कांग्रेस। इस एक जुमले ने पार्टी को दो धड़ों में बांट दिया है। एक वो नेता जो खुलकर गांधी परिवार के समर्थन में आ गए हैं और कुछ वो नेता जो नेतृत्व परिवर्तन की मांग को लेकर एकजुट हो गए हैं। कमोबेश हर प्रदेश का वरिष्ठ कांग्रेसी अपना स्टेंड क्लीयर कर चुका है लेकिन मध्यप्रदेश के वरिष्ठ नेता अब तक खामोश हैं। खासतौर से कमलनाथ, जिनकी कांग्रेस में वरिष्ठता किसी भी दूसरे सीनियर कांग्रेसी से ज्यादा है। वो इंदिरा और संजय गांधी के समय से कांग्रेस से जुड़े हैं। उनकी उम्र, तजुर्बे और रची बसी कांग्रेसीयत का मुकाबला तो अभी खुद राहुल और प्रियंका गांधी नहीं कर सकते। इसके बावजूद कमलनाथ खामोश हैं।
वो पार्टी में उस मुकाम पर हैं। जहां खुद आगे आकर दोनों धड़ों के बीच सेतु का काम कर सकते हैं। घर की कांग्रेस और सबकी कांग्रेस का जुमला देने के बाद जिस तरह कपिल सिब्बल अपने सियासी करियर को लेकर घिरे हैं, कमलनाथ को तो वो डर भी नहीं है। वो बखूबी साबित कर चुके हैं कि वो चुनावी मैदान से लेकर पर्दे के पीछे तक रणनीति बनाने में माहिर हैं। जब-जब कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठती है। कई नेताओं की निगाहें न चाहते हुए भी कमलनाथ की तरफ घूम ही जाती है लेकिन कमलनाथ की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है।
प्रदेश कांग्रेस का प्रदर्शन: वर्तमान में मध्यप्रदेश में दो अहम पदों पर काबिज कमलनाथ की चुप्पी के कई मायने निकाले जा रहे हैं। वो प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और नेता प्रतिपक्ष भी हैं। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने बीजेपी को हराया जरूर लेकिन इतनी सीटें नहीं निकाल सके कि मजबूत सरकार बना सकें। इसके बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस 28 में से केवल 9 सीटें ही निकाल सकीं। एक जीत को छोड़ दें तो उपचुनाव में हार, पार्टी में दरार और बड़े नेताओं का साथ छोड़ने तक प्रदेश कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता ही जा रहा है।1 ऐसे में क्या ये कमलनाथ के लिए भी सख्त फैसला लेने का समय नहीं है।
प्रदेश अध्यक्ष पद पर तकरार: फिक्र कबीले की हो या सरदार की, खामियाजा कबीले को ही भुगतना पड़ता है। इसका सबूत पूरी कांग्रेस पार्टी दे रही है। दिल्ली में कांग्रेस के जी 23 नेताओं में प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसी नेता विवेक तन्खा भी शामिल हो गए हैं। जी 23 से कांग्रेस में सियासी भू-चाल आया हुआ है, जो प्रदेश का रुख भी कर रहा है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष का ट्वीट भी कुछ इसी तरफ इशारा करता है लेकिन उस पर सबसे ज्यादा चौंकाती है, कमलनाथ की खामोशी, क्या ये किसी बड़े तूफान से पहले का सन्नाटा है।
पांच राज्यों में हार के बाद कांग्रेस में खलबली मचना लाजमी था। इस बीच मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव एक ट्वीट अखिल भारतीय कांग्रेस की असंतोष की आग को मध्यप्रदेश तक खींच लाया है। अरुण यादव ने ट्वीट किया कि किसको फिक्र है, कबीले का क्या होगा, सब इसी बात पर लड़ते हैं कि सरदार कौन होगा। इस शेर ने ट्विटर पर जलजले का काम किया। रीट्वीट और कमेंट्स की बाढ़ भी आई। लेकिन पूरी प्रदेश कांग्रेस इस पर खामोश रही। अरुण यादव का ये शेर कांग्रेस के वर्तमान हालात पर मौजू नजर आ रहा है। दिल्ली से लेकर प्रदेश तक कांग्रेस का यही हाल है।
मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस की कप्तानी को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना और उसके बाद उपचुनाव में मिली जबरदस्त हार के बाद कमलनाथ पर एक पद छोड़ने का दबाव रहा है। पर, सारे दबावों को दरकिनार कर कमलनाथ दोनों पदों पर काबिज ही रहे। केवल इतना ही नहीं जो इन पदों के लिए दमदार विकल्प हो सकते थे, वो सभी नेता हाशिए पर पहुंच चुके हैं। उनमें दिग्विजय सिंह जैसे कद्दावर नेता से लेकर जीतू पटवारी जैसे युवा फायरब्रांड नेता भी शामिल हैं।
दिग्विजय सिंह से मनमुटाव: ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी ने एक साथ मिलकर कांग्रेस को मजबूत करने के लिए संघर्ष शुरू किया। धीरे-धीरे कमलनाथ का चेहरा आगे आता गया और दिग्विजय सिंह नेपथ्य में जाते नजर आए। इस बीच उनके साथ भी मनमुटाव की खबरें सामने आईं।
सुठालिया एवं टेम परियोजना के चलते राजगढ़, गुना, विदिशा और भोपाल जिले के कुछ गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं। इन गांव के लोगों की मांग है कि उनके मुआवजे की राशि बढ़ाई जाए। किसानों की इस मांग के समर्थन में दिग्विजय सिंह ने सीएम से मुलाकात का वक्त मांगा। इसके बदले सीएम की मुलाकात कमलनाथ से हुई। उसके बाद से कमलनाथ ने जिस तरह से बयान दिए, उससे पार्टी के दोनों आला नेताओं के बीच का कम्यूनिकेशन गेप साफ दिखा और ये जाहिर भी हो गया की दाल में जरूर कुछ काला है।
जीतू पटवारी से मनमुटाव: कांग्रेस में कमलनाथ के कद का अंदाजा होने के बावजूद जीतू पटवारी हमेशा उनके खिलाफ मोर्चा खोलते रहे हैं। बजट सत्र में राज्यपाल के अभिभाषण का बहिष्कार करने वाले जीतू पटवारी किस तरह अलग-थलग कर दिए गए किसे से नहीं छिपा। इसके बाद वो कमलनाथ के नेतृत्व की तारीफ करते हुए भी दिखे। लेकिन ये भी सही है कि कमलनाथ और पटवारी दोनों एक-दूसरे का आमना-सामना करने से बचते रहे हैं। जिन दो पदों पर कमलनाथ काबिज हैं, उनमें से एक के मजबूत दावेदार जीतू पटवारी भी माने जाते हैं।
हाशिए पर अजय सिंह और अरुण यादव: अजय सिंह और अरुण यादव जैसे वरिष्ठ नेताओं की पूछ परख तो कांग्रेस में काफी पहले ही खत्म हो चुकी है। हार के बाद तो उनकी हालत और भी बुरी है। इससे साफ है कि नेताप्रतिपक्ष का पद तो खेर दूर की बात है, वो प्रदेशाध्यक्ष की कतार में भी खड़े नहीं किए जा रहे हैं।
सीनियर लीडर्स का हाल सभी जानते हैं। कमलनाथ ये साफ कर ही चुके हैं कि चाहें कुछ भी हो जाए, वो दिल्ली की राजनीति का रुख नहीं करेंगे। इशारा साफ है कि इस मुश्किल घड़ी में फिलहाल वो केंद्रीय नेतृत्व का सहारा बनने के लिए तैयार नहीं है। इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक वो जो अंडरस्टेंडिंग शेयर करते आए हैं, वैसी इक्वेशन्स अभी नई पीढ़ी के गांधी के साथ कायम नहीं हो सकी। क्या इसलिए अरुण यादव के शेर पर कमलनाथ खामोश हैं, या फिर वो ये भांप चुके हैं कि पुनर्गठन की मांग से अब मध्यप्रदेश भी बच नहीं सकता।
कमलनाथ चाहें या न चाहें, आज नहीं तो कल किसी एक पद को चुनने का दबाव उन पर भी बन सकता है। उसके बाद वो क्या चुनेंगे कबीले की कामयाबी या सरदार बने रहना। मेराज फैजाबादी के जिस शेर की पंक्तियां अरुण यादव ने लिखी हैं। उसके आगे के शेर कुछ यूं हैं-
सब कश्तियां जला के चलें साहिलों से हम।
अब तुम से क्या बताये की उस पार कौन है।।
ये फैसलें तो शायद वक़्त भी न कर सके।
सच कौन बोलता है, अदाकार कौन है।।”
सिर्फ दो लाइन ही नहीं फिलहाल पूरा शेर प्रदेश कांग्रेस के सियासी हालात बयां कर रहा है। सब कश्तियां जल चुकी हैं। अब सिर्फ वक्त के हाथ फैसला छोड़ना कांग्रेस की बड़ी भूल हो सकती है।
प्रदेश अध्यक्ष का उम्मीदवार कौन: एक तरफ कमलनाथ की चुप्पी खल रही है। दूसरी तरफ सवाल ये है कि कमलनाथ अगर एक पद छोड़ ही दें तो उनकी जगह उस पद को संभालेगा कौन। कबीले का सरदार या सदन का नेता, इस रेस में शामिल कई नाम पुराने हो चुके हैं और जो नए नाम हैं, फिलहाल उनके आगे बढ़ने में बहुत मुश्किले हैं।
कमलनाथ के पास प्रदेश कांग्रेस में दो पद हैं। एक पद पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष का और दूसरा सदन में नेता प्रतिपक्ष का। कांग्रेस के भीतर ही ये मांग उठती रही है कि कमलनाथ या तो प्रदेशाध्यक्ष का पद छोड़ें, या फिर नेता प्रतिपक्ष का। सवाल ये है कि कमलनाथ किस पद पर खुद बने रहना चाहते हैं। नेता प्रतिपक्ष रहते हुए वो प्रदेश के अगले चुनाव का चेहरा खुद बनेंगे या प्रदेशाध्यक्ष का पद संभालते हुए फिर से जीत की राह प्रशस्त करेंगे। प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए फिलहाल कांग्रेस में अरुण यादव और अजय सिंह के नाम से आगे बात नहीं बढ़ पाती है। प्रदेशाध्यक्ष रहते हुए अरुण यादव खुद कांग्रेस का वजन कितना बढ़ा सके, ये सब जानते हैं। अजय सिंह तो पिछले चुनाव में अपनी सीट भी नहीं संभाल सके। लिहाजा इस पद के लिए फिलहाल कोई मुफीद नाम दिखाई नहीं देता। कमलनाथ के राजनीतिक कद को देखें तो मध्य प्रदेश में उनके मुकाबले के नेता दिग्विजय सिंह ही हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह के प्रदेश अध्यक्ष बनने की उम्मीद नहीं है। ऐसे में दूसरी लाइन के नेताओं में से किसी को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी मिल सकती है।
नेता प्रतिपक्ष के उम्मीदवार: नेता प्रतिपक्ष के तौर पर कुछ युवा चेहरे दिखाई देते हैं। कई कमलनाथ को ललकार कर अपनी बारी का इंतजार कर रहा है, तो कोई गुपचुप अपने रास्ते खोलने की जुगत भिड़ा रहा हैं।
बाला बच्चन- चुनाव से पहले कांग्रेस ओबीसी या आदिवासी कार्ड खेल सकती है। नेता प्रतिपक्ष आदिवासी बनता है तो प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी वर्ग से बन सकता है। ऐसा निर्णय होने की उम्मीद इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि कमलनाथ के कट्टर समर्थक पूर्व मंत्री बाला बच्चन को नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए दिग्विजय सिंह भी सहमत बताए जाते हैं।
जीतू पटवारी- राहुल गांधी की गुड बुक्स में शामिल जीतू पटवारी अपनी अलग लाइन पर चल रहे हैं। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे क्षत्रपों के बीच भी वो प्रदेश में अपनी मौजूदगी दर्ज करवा चुके हैं। हाल के कुछ घटनाक्रमों के बाद वो अपनी इमेज फायरब्रांड कांग्रेस नेता की बनाने में जुट गए हैं।
उमंग सिंघार- उमंग सिंघार भी नेताप्रतिपक्ष की रेस में शामिल हैं। जीतू पटवारी को मौका नहीं मिलता तो उमंग सिंघार ज्यादा मजबूत दावेदार हो सकते हैं। उमंग सिंगार भी राहुल गांधी की टीम में शामिल रहे हैं। युवा चेहरें हैं और आदिवासी समाज का नेतृत्व भी करते हैं। हालांकि दिग्विजय सिंह की चली तो वो उमंग को कभी किसी पद को नहीं लेने देंगे।
कमलनाथ हटे तो हो सकती है गुटबाजी: कमलनाथ किस पद को छोड़ेंगे, किस पद पर रहेंगे। ये फैसला उन्हें ही करना है। फिलहाल सिर्फ प्रदेश ही नहीं केंद्रीय नेतृत्व को भी उनके जैसे नेता की जरूरत है। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रदेश में कमलनाथ के पद छोड़ने के बाद क्या कांग्रेस की गुटबाजी सतह पर आ सकती है। कहीं ऐसा न हो कि कमलनाथ पार्टी का नेतृत्व संभालने निकलें और उनके पीछे प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति खराब हो जाए।