सत्ता की चाबी के लिए सरकार ने किया प्रदेश के डेढ़ करोड़ आदिवासियों के साथ धोखा!

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Ruchi Verma
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सत्ता की चाबी के लिए सरकार ने किया प्रदेश के डेढ़ करोड़ आदिवासियों के साथ धोखा!

भोपाल: मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने आदिवासी वोट बैंक पर कब्जा जमाने के चक्कर में प्रदेश के करीब 15,316,784 आदिवासियों को गुमराह किया है। दरअसल, 22 अप्रैल, 2022 को अमित शाह के मुख्य  आतिथ्य और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में भोपाल के जम्बूरी मैदान में वन समितियों का बड़ा सम्मलेन हुआ था। इस आयोजन को लगभग सालभर के इस प्रचार-प्रसार के साथ आयोजित किया गया था कि वन प्रबंधन संकल्प 2021 के तहत अब से ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन प्रबंध समितियों को गठन, भंग एवं पुनर्गठन करने के अधिकार दिए जाएंगे - पुराने वन प्रबंधन संकल्प 2001 के अनुसार समितियों को भंग करने के अधिकार पहले वन विभाग के डिवीजनल फारेस्ट अफसर (DFO) के पास होता था। पर राज्य सरकार बिना किसी शोर शराबे के बहुत ही चतुराई के साथ अपनी इस बात से पलट गई है। 



सरकारी गोलमाल का पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है 




  • वर्ष 2001 में 22 अक्टूबर को मध्य प्रदेश सरकार ने वनों के संरक्षण में आम लोगों की भूमिका सुनिश्चित करने के लिए एक विधेयक पारित किया था। विधेयक में भारत सरकार के वन मंत्रालय के आदेश का हवाला देते हुए कहा गया था कि वनों एवं वनों के आसपास रहने आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीणों का वन उत्पादों पर पहला अधिकार होगा। इसके अनुसार वनों की सुरक्षा एवं उनके प्रबंधन में भी स्थानीय वन आश्रित समुदायों के सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। जिसे सुनिश्चित करने के लिए ही संयुक्त वन प्रबंधन की प्रणाली लाई गई और ग्राम स्तर पर प्रदेश में संयुक्त वन प्रबंधन समितियाँ बनाई गईं। ये संयुक्त वन प्रबंधन समितियाँ वनों के प्रबंधन में स्थानीय विभाग का 'सहयोग' करती हैं।


  • शिवराज सरकार के कार्यकाल के दौरान नए संकल्प की बात हुई उसमें पहले वाले 22 अक्टूबर,2001 के संकल्प को संशोधित किया गया। पंचायती राज व्यवस्था की पांचवीं अनुसूची के क्रियान्वयन में आने वाली दिक्कतों को दूर करने के लिए और वन प्रबंधन में स्थानीय समुदायों/आदिवासियों की भूमिका को अधिक सशक्त बनाने के उद्देश्य से राज्य सरकार ने PESA-1996 एक्ट (पंचायत के उपबंध - अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार - अधिनियम) लागू करने का निर्णय किया। इस के तहत नए संशोधित संकल्प में ग्राम सभाओं के ज्यादा ताकतवर और मजबूत बनाने के प्रावधानों को शामिल किया गया। इसलिए संकल्प 2021 में यह प्रावधान किया गया कि सामुदायिक वन प्रबंधन समितियों के गठन, भंग और पुनर्गठन के सारे अधिकार अब ग्राम सभा को दिए जाएंगे। समितियों का गठन पंचायत स्तर पर ग्राम सभा के प्रस्ताव पर किया जाएगा। और ग्राम सभा यदि सामुदायिक वन प्रबंधन समिति के कार्य से खुश नहीं होगी तो ग्रामसभा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर खुद ही उस समिति को भंग करके नई समिति गठित कर सकेगी। पहले ग्राम सभा के पास सिर्फ समितियों को गठित करने का अधिकार होता था और समितियों को भंग करने का अधिकार DFO के पास होता था। 

  • इसके बाद प्रदेश सरकार पूरे 2021 में अलग-अलग आयोजनों में PESA एक्ट लागू करने और ग्राम सभाओं को समिति को भंग करने के अधिकार देने की बात करती रही। पिछले साल नवंबर, 2021 में जब जनजातीय गौरव दिवस समारोह के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे थे तब भी इस बात का जिक्र किया गया था। इसके बाद टंट्या मामा को लेकर इंदौर में हुए कार्यक्रम में भी सीएम ने कहा था कि पेसा एक्ट लाने की प्रक्रिया चल रही है। इस साल के बजट सत्र में 7 मार्च, 2022 को राज्यपाल मंगू भाई पटेल ने भी अपने अभिभाषण में जिक्र किया था कि राज्य सरकार ने पेसा एक्ट के तहत काम करते हुए वनों के परंपरागत प्रबंधन को ग्राम सभा को देने का फैसला किया है। सामुदायिक वन प्रबंधन समिति ग्राम सभा द्वारा गठित और पुर्नगठित की जाएंगी।

  • आखिरकार 22 अप्रैल, 2022 को राज्य सरकार ने भोपाल के जम्बूरी मैदान में केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह एवं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उपस्थिति में 'वन समिति सम्मेलन' का आयोजन किया गया । इस सभा में जो घोषणाएं हुईं थीं वे वन प्रबंधन संकल्प 2021(क्रमांक/एफ 16-04/1991/10-2: जनसहभागिता से वनों के संरक्षण हेतु मध्यप्रदेश शासन का समसंख्यक संकल्प 2021) में समाहित प्रावधानों के तहत की गईं थी। सम्मेलन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा की कि जंगल बदलने की प्रक्रिया अब से ग्राम सभा करेगी, वन विभाग केवल सहयोग करने का काम करेगा, यानी ग्राम सभा ताकतवर बनेगी। अब एक साल से जोर शोर से जिस बात को कहा जा रहा था...जिसके लिए इतना बड़ा सम्मेलन किया गया...सम्मेलन के चार दिन बाद यानी 27 अप्रैल को सामुदायिक वन प्रबंधन संकल्प 2021 को ही निरस्त कर दिया गया। और तो और संकल्प को निरस्त करने का निर्णय 11 मार्च, 2022 को यानी कि वन समिति सम्मेलन के 40 दिन पहले ही ले लिया गया था। लेकिन फिर भी सम्मेलन किया गया। मजमा लगाया गया और भोलीभाली आदिवासी जनता को गुमराह किया गया।



  • वन विभाग के 27 अप्रैल को जारी किए इसी निरस्ती आदेश में तीन पाइंट है




    • पहला पॉइंट: जनसहभागिता से वनों के संरक्षण का संकल्प 2021...11 मार्च को निरस्त किया जाता है.. यानी जिस 11 मार्च को सरकार ने संकल्प का गजट नोटिफिकेशन किया उसी दिन ये निरस्त हो गया.. यानी अमित शाह के कार्यक्रम के 40 दिन पहले।


  • दूसरा पॉइंट: संकल्प के पैरा 11.1.3 को सम्मिलित करते हुए वनों की लकड़ी बेचने पर जो राजस्व मिलेगा उसका 20 फीसदी संयुक्त वन प्रबंध समिति को दिया जाएगा।

  • तीसरा इम्पोर्टेन्ट पॉइंट: लिखा है कि वन प्रबंधन का जो अधिकार ग्राम सभा को दिया जाता है वहां अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 का कानून प्रभावी होगा.. यानी ग्राम सभा को वन समितियों को भंग करने और पुनर्गठन का अधिकार नहीं दिया गया।



  • इस पूरे घटनाक्रम में तीन बड़े सवाल उठते हैं




    • ग्राम सभा को वन समितियों को भंग करने का अधिकार देने की बात करके पलट क्यों दिया गया?


  • जब प्रस्ताव निरस्त हो ही चुका था तब क्यों वनवासी सम्मेलन किया गया? 

  • अगर ग्राम सभा को समितियों को भंग करने का अधिकार मिल जाता तो क्या होता?



  • क्या NGO के दबाव में लिया गया यह निर्णय?



    दरअसल इस सबके पीछे के एक बड़ी वजह बताई जा रही है कि एक एनजीओ जिसका नाम है तीर फाउंडेशन उसने इस संकल्प के प्रस्तावों पर कई सारी आपत्तियां ली थी। 8 अप्रैल, 2022 को तीर फाउंडेशन ने सीएम शिवराज के सामने प्रेजेंटेशन दिया था। और अपने प्रेजेंटेशन में बताया था कि सरकार ने जो संकल्प पास किया है उसमें कई खामियां है। तीर फाउंडेशन ने जो प्रेजेंटेशन दिया था उसकी कॉपी द सूत्र के पास है। और मजेदार बात ये है कि तीर फाउंडेशन के प्रेजेंटेशन के बाद वन विभाग ने फाउंडेशन की आपत्तियों पर आपत्ति दर्ज की थी यानी एक तरह से एनजीओ और वन विभाग के बीच सामंजस्य नहीं बन पाया था। उसके बाद ही 27 अप्रैल,2022 को आदेश जारी हुआ और समितियों को भंग करने के अधिकार ग्राम सभा को नहीं दिए गए। अब दूसरा सवाल कि जब प्रस्ताव निरस्त हो ही चुका था तब क्यों वनवासी सम्मेलन किया गया? 



    इस धोखेबाज़ी का कारण आदिवासियों का तगड़ा 21% का वोट बैंक



    मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मतदाताओं की बड़ी भूमिका है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में आदिवासियों की कुल जनसंख्या 15,316,784 (अभी 2 करोड़ के करीब) है। राज्य में आदिवासी लगभग 23 फीसदी वोटर है। यहां की 230 विधानसभा सीटों में से 47 सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं और 87 पर आदिवासी वोटर सबसे ज्यादा हैं। इसलिए इन सीटों पर हार और जीत काफी मायने रखती है। महाकौशल और विंध्य इलाके में गोंड आदिवासियों की संख्या ज्यादा है, तो वही मालवा निमाड़ इलाके में आदिवासी वर्ग के भील और भिलाला ज्यादा है। यही कारण है कि बीजेपी आदिवासी-हितैषी होने पर इतना जोर लगा रही है।



    आदिवासी वोटर्स के मोहभंग के कारण ही बीजेपी हारी थी 2018 के चुनाव



    साल 2003 में दिग्विजय सिंह के खिलाफ बीजेपी की जीत में आदिवासी समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग होना बड़ा कारण था। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने ना केवल 6 विधानसभा सीट पर जीत दर्ज की थी, बल्कि आदिवासी सीटों पर कांग्रेस के वोट भी काटे थे। आदिवासी वोट 2013 तक के चुनाव में बीजेपी के साथ बना रहा। इस चुनाव में जहां बीजेपी को 31 सीटें मिली थी। वहीं कांग्रेस को 16 सीट पर संतोष करना पड़ा था। 2018 के चुनाव में कांग्रेस का भाग्य बदलने की बड़ी वजह आदिवासी समुदाय के वोट थे। इस चुनाव में उनका बीजेपी से मोह भंग हो गया। कांग्रेस के खाते में आदिवासी समुदाय की 31 सीटें गईं तो 16 सीटें बीजेपी को मिली। बीजेपी को सत्ता गंवानी पड़ी थी। जोबट का उपचुनाव जीतने के बाद वर्तमान स्थिति में आदिवासी सीट पर बीजेपी की संख्या 16 से 17 हो चुकी है। दरअसल भाजपा इस बात को जान गई है कि अगर यह वोट बैंक उसके पास रहता है तो सत्ता की चाबी उससे कोई छीन नहीं सकता। और इसलिए इस वोट बैंक को अपने पक्ष में लाने के लिए बीजेपी पूरी कोशिश कर रही है। 



    तीसरा सवाल अब ये है कि अगर ग्राम सभा को समितियों को भंग करने का अधिकार मिल जाता तो क्या होता?



    यदि ग्राम सभा को वन समितियों को भंग करने और पुनर्गठन का अधिकार मिलता तो वन समितियों को चलाने और कण्ट्रोल करने के सारे अधिकार ग्राम सभा के पास होते...आदिवासी इलाकों में काम करने वाले जय युवा आदिवासी संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष लोकेश मुजाल्दा का तो आरोप है कि सरकार चाहती ही नहीं है कि ग्राम सभाओं को अधिकार मिल जाए। दूसरी तरफ कांग्रेस प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता का भी आरोप है कि पेसा कानून पूरी तरह से लागू नहीं हुआ है और ग्राम सभा के सशक्तिकरण की बात बेमानी है केवल ये वोटबैंक की राजनीति है।



    संकल्प 2021 के कुछ पॉइंट जिनको जस का तस रखा गया है




    • सामुदायिक वन प्रबंध समिति: पहले 2001 के संकल्प के तहत संरक्षित क्षेत्रों, बिगड़े वन क्षेत्रों, एवं अच्छे वन क्षेत्रों के प्रबंधन के लिए सामुदायिक वन प्रबंधन व्यवस्था के अंतर्गत तीन तरह कि समितियां बनाई जाती थीं - वन सुरक्षा समिति, ग्राम वन समिति और ईको विकास समिति। पर इस नए संकल्प में तीन की जगह, वन क्षेत्र पर निर्भर ग्राम सभा को इकाई मानकर एक ही समिति बनाने का प्रावधान किया गया जिसे सामुदायिक वन प्रबंधन समिति कहा गया है।


  • माइक्रो प्लान: सामुदायिक वन प्रबंधन समितियां क्षेत्र के विकास के लिए और ईको पर्यटन के माध्यम से रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए वनमंडल अधिकारी द्वारा स्वीकृत माइक्रो प्लान बनाएंगी और उसे ग्राम सभा से अनुमोदित करवाकर क्रियान्वित करेंगी। इसके लिए नियमों के अनुसार प्रस्ताव आमंत्रित कर सकेगी तथा  उद्यमियों एवं वन विभाग के साथ त्रिपक्षीय अनुबंध कर सकेगी। सामुदायिक वन प्रबंधन समिति की आय और खातों का भी आमसभा (ग्राम सभा ही सामुदायिक वन प्रबंधन समिति की आम सभा होती है) से अप्रूवल लिया जाएगा।


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