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Bhopal. मध्यप्रदेश में सरकार जिस मनमर्जी से चल रही है उसे देखकर हिंदी फिल्म का गाना याद आता है। गाना गोविंदा का है मेरी मर्जी। नब्बे के दशक का हिट सॉन्ग है आपको भी याद ही होगा। अब आप ये जरूर जानना चाहेंगे कि यहां मैं सरकार के संबंध में इस गाने का जिक्र क्यों कर रहा हूं। इसके लिए मेरे पास कुछ वाजिब वजह भी है। सरकार अपनी हो और सामने बेहद सुस्त विपक्ष हो तो नियमों को अपने हिसाब से ढाल लेना या ताक पर रख देना कितना आसान हो सकता है। ये मध्यप्रदेश के ऐसे कई उदाहरण आपको देखने को मिल जाएंगे। ऐसा ही एक उदाहरण मध्यप्रदेश की विधानसभा में भी देखने को मिला है। जहां इस प्रदेश को चलाने के लिए जिम्मेदार लोग बैठते हैं, जहां जनता के हक की आवाजें उठा करती हैं। वहां जनता से जुड़ा प्रतिनिधि अपनी मनमर्जी का काम करके भी कैसे नियमों के दायरे से बाहर हो जाता है। इस सवाल का जवाब शायद आप भी जानना चाहेंगे।
कांग्रेस के 28 विधायकों ने दल बदल किया
ताजा मामला समझने से पहले थोड़ा रिविजन कर लीजिए। उन घटनाओं का या उन लोगों का जिनकी वजह से कांग्रेस की कमलनाथ सरकार एक झटके में धराशाई हो गई। कांग्रेस के 28 विधायकों ने दल बदल किया। नतीजा ये हुआ कि कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई। ये 28 विधायक बीजेपी में शामिल हुए और एक बार फिर बीजेपी की सरकार बन गई। 6 माह के भीतर उपचुनाव हुए और बीजेपी सरकार का तख्त पक्का हो गया। इस पूरे मामले में दलबदल के नियम को समझना बेहद जरूरी है।
दल बदल कानून
इस नियम के मुताबिक अगर कोई विधायक चुनाव से पहले दल बदलता है तो नई पार्टी के टिकट से आसानी से चुनाव लड़ सकता है। लेकिन कोई विधायक नतीजे आने के बाद दल बदलता है तो उसे अपने पद से यानि कि विधायक के पद से इस्तीफा देना होगा। उसके बाद ही वो नई पार्टी का सदस्य बन सकता है। इस केस में उसकी सीट खाली हो जाएगी। सीट रिक्त होने के बाद सामान्य रूप से वहां 6 माह में चुनाव हो जाने चाहिए। दल बदलने के बाद नेता बतौर विधायक दोबारा सदन में वापसी करना चाहता है तो 6 माह के भीतर उसे चुनाव जीतना जरूरी होता है। ये एक मोटा खाका है, उन नियमों का जो दल बदलने वाले विधायकों पर लागू होते हैं। इन्हीं नियमों के चलते मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर उपचुनाव हुए थे। जो नेता जीते वो कांग्रेस की जगह बीजेपी के टिकट से फिर विधानसभा पहुंचे। जो नहीं जीत सके वो बीजेपी नेता बनकर रह गए। 28 सीटों के बाद भी कुछ सीटों पर उपचुनाव हुए।
सरकार की नीयत बदल गई
ये तो बात हुई नियमों की। सरकार पूरे नियम से बनीं। 28 सीटों के बाद दमोह सीट पर दल बदल हुआ। उसके चुनाव भी नियमों के तहत हुए। पिछली बार हुए चार सीटों के उपचुनाव के बाद सरकार की नीयत बदल गई है। या सरकार अब उपचुनाव से बचना चाह रही है। माजरा जो भी हो। उसमें सबसे ज्यादा चौंकाने वाली है कांग्रेस की खामोशी, जो अपने एक विधायक के दल बदल के बाद भी उसका इस्तीफा नहीं करवा सकी। सरकार ने ठान लिया कि वो उपचुनाव नहीं करवाएगी और कांग्रेस तमाम नियमों के बावजूद सरकार की मनमानी को मानने पर मजबूर हो गई। ये मामला जुड़ा है विधायक सचिन बिरला से, जिनके नाम पर विधानसभा सत्र में जमकर सियासी ड्रामा चला। कांग्रेस ने पुरजोर कोशिश की नियमों का हिमायती बनने की। लेकिन दलीलों में इतनी कमी रह गई कि चाहे न चाहे बॉल सरकार के पाले में ही चली गई और सरकार तो फिर सरकार ही है। जो तय कर चुकी है कि विधायक दल बदल कर चुका हो फिर भी उपचुनाव नहीं करवाने। तो कांग्रेस की हर दलील का तोड़ बहुत आसानी से निकाल लिया गया।
विधानसभा में सदस्यता नियम 1986
खरगोन जिले की बड़वाह सीट से सचिन बिरला ने कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीता। पिछले दिनों हुए उपचुनाव से पहले एक सभा में सचिन बिरला ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में बीजेपी की सदस्यता ग्रहण की। इस नाते ये माना जा सकता है कि सचिन बिरला अब बीजेपी के नेता हो चुके हैं। इसके बाद कांग्रेस का सत्र शुरू होते ही कांग्रेस ने विधानसभा में सचिन बिरला की सदस्यता खत्म करने का आवेदन दिया। इस आवेदन में कांग्रेस ने विधानसभा में सदस्यता नियम 1986 का हवाला भी दिया। लेकिन कांग्रेस के आवेदन में तकनीकी खामी निकालकर विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने उसे निरस्त कर दिया। आशय साफ है कि बीजेपी में शामिल होने के बाद भी सचिन बिरला विधायक बने रहेंगे। इसके बाद कांग्रेस ने थोड़ा बहुत विरोध किया। फिर शांत हो गई। सचिन बिरला का सिर्फ इतना ही नुकसान हुआ कि कांग्रेस विधायक दल ने उन्हें अपने साथ बिठाने से इनकार कर दिया।
बीजेपी और बिरला दोनों की राह आसान
यहां एक और नियम को समझना जरूरी हो जाता है। इसके दम पर बीजेपी बड़ा दांव खेल गई। कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी न सरकार की मनमानी के खिलाफ न दल बदलने वाले अपने विधायक के खिलाफ कुछ कार्रवाई कर पा रही है। नियम ये कहता है कि अगर विधायक खुद दल बदलता है तो उसकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। लेकिन पार्टी किसी विधायक को निष्कासित करती है तो उसे दोबारा चुनाव नहीं लड़ना होगा। वो किसी भी पार्टी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र है। यही वजह है कि कांग्रेस चाहकर भी बिरला पर निष्कासन की कार्रवाई नहीं कर रही। क्योंकि ऐसा करने से वो बीजेपी और बिरला दोनों की राह आसान कर देगी।
चित भी मेरी पट भी मेरी
बीजेपी इस दम के साथ नजर आ रही है कि चित भी मेरी पट भी मेरी और कांग्रेस के लिए स्थिति आगे कुआं पीछे खाई जैसी है। अगर कांग्रेस बिरला पर सख्त कार्रवाई करते हुए बिरला को निष्कासित करती है तो बिना उपचुनाव के बिरला आसानी से बीजेपी विधायक बन जाएंगे। अगर नहीं करती है तो चाहे या न चाहे बिरला को कांग्रेस विधायक गिनने से मना नहीं कर सकती। दिलचस्प ये है कि सरकार की इस मनमानी पर कांग्रेस अदालत की शरण में जाने पर विचार भी नहीं कर रही। क्या कांग्रेस भी बस चुनाव आने ही वाले हैं मानकर शांत है या फिर कांग्रेस खुद इस मामले में मगजमारी से बचने की जुगाड़ में है।