ग्वालियर: सिंधिया मुक्त Congress और सिंधिया युक्त BJP से कितनी बदली सियासत ?

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ग्वालियर: सिंधिया मुक्त Congress और सिंधिया युक्त BJP से कितनी बदली सियासत ?

Gwalior. चंबल की सियासत (politics of chambal) राजतंत्र हो या लोकतंत्र, सदैव अपनी अलग चाल पर ही चली है। लेकिन देश आजाद होने के बाद न भी कहें लेकिन कम-से-कम पैंतालीस साल में पहली बार ग्वालियर-चंबल में चुनाव के किरदार वही है लेकिन उनके लिबास और डायलॉग बदले हुए हैं। जिनका संभाग में संतरी से मंत्री तक, पंच से लेकर सत्ता के कंगूरों तक की तकदीर लिखने पर एकाधिकार था, वे इस बार बस हिस्सेदारी के लिए संघर्ष करेंगे और जो इनके जबड़े से एक पार्षद का टिकट निकलवाने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाने को मजबूर होते थे, अचानक उनका हाथ जगन्नाथ हो गया। हर टिकट और हर पद उनकी जेब में है जिसे चाहे निकालकर दे दें। पहली बार होगा जब कांग्रेस (Congress) के टिकट (Ticket) के लिए किसी को जयविलास पैलेज (Jaivilas Palace) के परिसर में धूप में प्रतीक्षा नहीं करनी होगी, बल्कि जयविलास को अपने सिपहसालारों को एडजस्ट कराने के लिए जद्दोजहद करना पड़ेगा।





पंचायत और स्थानीय निकायों (Panchayat and local body elections) के चुनावों के लिए रणभेरी बज चुकी है लेकिन सब कुछ बदला-बदला है। बीजेपी (BJP) में आशंकाओं के बादलों की उमस में है, वहीं कांग्रेस उन्मुक्त नजर आ रही है। 





पांच दशक की सियासत





पिछले पांच दशक से कांग्रेस की सियासत पर जयविलास पैलेस का एकछत्र राज्य था। सिंधिया परिवार के मुखिया माधवराव सिंधिया (अब दिवंगत) जब लंदन से पढ़कर भारत लौटे तब तक एमपी की सियासत बदल चुकी थी। उनकी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री और तब राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के सलाहकार द्वारिका प्रसाद मिश्रा (Dwarka Prasad Mishra) से गंभीर मतभेद हो गए। मिश्रा जी स्वतंत्रता सेनानी और सामंतों के घोर विरोधी थे, भला वे सिंधिया राज परिवार को वो विशेषाधिकार कैसे दे सकते थे जिसकी दरकार सिंधिया राज परिवार को थी। पहले टकराव हुआ, नोंक-झोंक हुई और फिर अबोला। तब भी हालत 2018 जैसी ही थी।





ग्वालियर-चंबल अंचल की ज्यादातर सीटों पर जीती कांग्रेस थी लेकिन कांग्रेसी नहीं। वे राजमाता के समर्थक थे। टिकटों का फैसला राजमाता ही क़रतीं थी, सो उनकी नाराजी में उनके साथ ही खड़े थे। उन्होंने कहा तो समर्थक विधायकों ने कांग्रेस छोड़ने का निर्णय ले लिया। तब तो दल बदल कानून भी नहीं था। राजमाता इससे पहले भीतर ही भीतर अपनी चुनावी चौसर बिछा चुकी थी। तब बीजेपी के दिग्गज बाबूराव (स्व एनके शेजवलकर) अपनी रणनीति तैयार कर चुके थे। राजमाता समर्थक विधायकों के इस्तीफे के साथ ही राजनीति के चाणक्य भी अपनी सरकार न बचा पाए। डीपी मिश्रा की सरकार का पतन हो गया। जनसंघ ने अपनी सरकार बनाने का प्रस्ताव राज्यपाल को सौंपा इसके साथ राजमाता समर्थक विधायको के समर्थन की चिट्ठी भी थी। इस तरह संभवतः देश की गैर कांग्रेसी मिलीजुली सरकार का गठन हो गया। गोविंद नारायण सिंह नए सीएम बने। राजमाता किंग नहीं किंगमेकर बन गई। हालांकि यह सरकार अल्पजीवी रही लेकिन राजमाता और जनसंघ (Jana Sangh) के रिश्ता प्रगाढ़ हो गया। 1972 में जब उनके इकलौते बेटे लंदन से पढ़कर लौटे तो जनसंघ ने उन्हें गुना से टिकट दिया और उन्होंने जीत भी हासिल की। वे संसद में सबसे कम उम्र सांसद के रूप में पहुंचे लेकिन जनसंघ उन्हें कदाचित न भाया। अपनी मां से भी उनके रिश्तों में तल्खियां थी।





इमरजेंसी लगी तो वे कांग्रेस के नजदीक आ गए। 1977 में जब सभी दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी के पक्ष में हवा बह रही थी। लेकिन सिंधिया ने इसकी परवाह न करते हुए खुद को इससे अलग कर लिया। वे निर्दलीय मैदान में उतरे। एमपी में कांग्रेस का सूफड़ा साफ हो गया। सिर्फ एक सीट जीती छिंदवाड़ा। यहां से गार्गी शंकर मिश्र और गुना से जीते कांग्रेस समर्थित माधव राव सिंधिया (Madhavrao Scindia)। इसके बाद महल के दोनों गेट कांग्रेस और बीजेपी के भाग्य विधाता बन गए। हालांकि राजमाता की कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी सो वे बीजेपी की रणनीति बनाने वाली कोटरी का हिस्सा हो गईं। लेकिन माधवराव ने अंचल की कांग्रेस के सारे सूत्र हथिया लिए। सत्ता हो या संगठन सारे अधिकार उनके पास थे। सीएम अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह जैसे विरोधी या मोतीलाल वोरा जैसे कृपापात्र, यहां के फैसले सिर्फ और सिर्फ सिंधिया रियासत के मुखिया के पास ही होते थे। यह ताकत 2018 के विधानसभा चुनावों तक बरकरार रही। सब कुछ महाराज के हाथ था।





फर्श वाले अर्श पर





वक्त करबट ले चुका है। इतिहास में पहली बार है, जब कांग्रेस सिंधिया मुक्त माहौल में खड़ी है और अपने फैसले लेगी। जो लोग सिंधिया के नजदीक न थे उनकी उम्र फर्श पर ही बीत गई। अशोक सिंह ग्वालियर-चंबल संभाग में चुनावों की समिति के अध्यक्ष बनाए गए हैं। कांग्रेसियों की जो भीड़ कभी जयविलास के बाहर जमा होती थी, अब उनका ठिकाना अशोक सिंह के गांधी रोड स्थित आवास पर बन गया है। उनके घर की रौनक सत्तर के दशक से लौटी है, जब उनके पिता राजेन्द्र सिंह ही कांग्रेस के अंचल के बड़े नेता थे। 77 में सिंधिया परिवार की एंट्री हुई और अस्सी के बाद से यह परिवार हंसिये पर चला गया। उनके बेटे अशोक सिंह को कांग्रेस ने हिम्मत जुटाकर लोकसभा का टिकट भी दिया लेकिन वे जीत न सके। सिंधिया परिवार की मर्जी के बगैर भला जीतते भी कैसे? अब अशोक सिंह एमपी कांग्रेस के खजांची हैं। वे दिग्विजय सिंह हो या कमलनाथ, पचौरी हो या अरुण यादव सबके खास हैं। सिंधिया रियासत में कांग्रेस के नए झंडावरदार।





हिस्से की चिंता में सिंधिया





इतिहास में पहला मौका है, जब समूचा सिंधिया परिवार एक ही दल भाजपा में है। लेकिन बीजेपी में वे भले ही ताकतवर हो कदाचित सर्व शक्तिमान नहीं हैं। बीजेपी सूत्र दावा करते हैं कि उन्हें सत्ता और संगठन में पच्चीस फीसदी हिस्सेदारी मिलेगी। इससे उनके समर्थक और मूल भाजपाई दोनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें हैं। समर्थकों की चिंता ये है कि पहले वे साठ में पचपन वार्डों के कैंडिडेट और महापौर पद का उम्मीदवार तय करते थे। अब उनके हिस्से आएंगे मात्र 15 टिकट। महापौर पद पर उनकी राय मायने नहीं रखेगी क्योंकि यहां तो 50 साल से बीजेपी ही काबिज है। सो उनका क्या होगा?





ऐसी ही चिंता बीजेपी में भी है। चूंकि आधी शताब्दी से ग्वालियर नगर निगम पर बीजेपी का कब्जा है। हर वार्ड में उसके ताकतवर दावेदार हैं, जो पार्टी की रीति- नीति में बसे हुए हैं। अब जो भी हिस्सा सिंधिया समर्थकों के पास जाएगा, वह कटेगा तो उनके हिस्से से ही। एक परेशानी ये भी है कि उन्हें उन लोगों के ही समर्थन में प्रचार करना पड़ सकता है जो दशाब्दियों से उनके खिलाफ सडकों पर उतरते रहे।



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