सागर. मध्यप्रदेश के सागर जिला का एक गांव रहली है। इस गांव के पास रानगिर में मां हरसिद्धि का मंदिर है। हरसिद्धि मां अपने भक्तों को हर दिन तीन रूप में दर्शन देती हैं। सागर जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र रानगिर है। यह तीर्थ अपने आप में एक विशेषता समेटे हुए है। देहार नदी के तट पर स्थित इस प्राचीन मंदिर में हरसिद्धि देवी की मूर्ति है। माता की ये मूर्त सुबह से कन्या रूप में होती है, दोपहर में युवा और सायंकाल में प्रौढ़ रूप में माता के दर्शन होते हैं। देवी भगवती के 52 सिद्ध शक्ति पीठों में से एक शक्तिपीठ है। यहां पर सती की रान(जांघ) गिरी थी। इस कारण यह क्षेत्र रानगिर कहलाया। यह मां का मंदिर लगभग 1100 साल से अधिक पुराना है।
मां हरसिद्धि मंदिर को लेकर कई प्रचलित किंवदंतियां हैं
मां हरसिद्धि मंदिर को लेकर किंवदंती है कि दक्ष प्रजापति के अपमान से दुखी होकर सती ने योग बल से अपना शरीर त्याग दिया था। सती के शरीर त्यागने से नाराज भगवान शंकर ने सती के शव को लेकर विकराल तांडव किया। जब भगवान शिव के कोप से पूरे विश्व में हाहाकार मच गया। तब भगवान विष्णु ने सती के शव को अपने चक्र से अंगों में बांटा और यह अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्ति पीठ स्थापित हैं। कहा जाता है कि सती माता की रान यानि जांघ इसी जंगल में गिरी थी, इसीलिए यह इलाका रानगिर कहलाया।
दूसरी किंवदंतियां ये भी है कि रानगिर में एक चरवाहा हुआ करता था। चरवाहे की एक छोटी बेटी थी। बेटी के साथ एक वन कन्या रोज आकर खेलती थी। अपने साथ भोजन कराती थी। इसके साथ ही रोज एक चांदी का सिक्का देती थी। चरवाहे ने जानने की इच्छा से छुपकर कन्या को खेलते देखा। चरवाहे की नजर जैसे ही वन कन्या पर पड़ी, तो उसी समय वन कन्या ने पाषाण रूप धारण कर लिया। बाद में चरवाहे ने कन्या का चबूतरा बना कर उस पर छाया आदि की। इस तरह मां हरसिद्धि की स्थापना हुई।
हरसिद्धि माता के मंदिर का इतिहास
मंदिर के संबंध में कोई प्रमाणित दस्तावेज तो नहीं है लेकिन क्षेत्र के लोगों का कहना है कि रानगिर में छत्रसाल बुंदेला और धामोनी के मुगल फौज के बीच युद्ध हुआ था। युद्ध में राजा छत्रसाल बुंदेला की जीत हुई थी। युद्ध से पहले राजा छत्रसाल ने मां से जीत की विनती थी। उन्हें जीत मिली थी। उन्होंने मां हरसिद्धि की महिमा से प्रभावित होकर करीब 200 साल पहले मंदिर का निर्माण कराया था। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण मंदिर पहुंचना काफी दुर्गम था, लेकिन समय के साथ-साथ सुविधाएं बढ़ीं और आज मंदिर सुगमता से पहुंचा जा सकता है।