BHOPAL: अरे हुजूर झीलों की नहीं, अब तो चीलों की नगरी कहिए

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The Sootr CG
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BHOPAL: अरे हुजूर झीलों की नहीं, अब तो चीलों की नगरी कहिए

रत्नाकर त्रिपाठी, Bhopal.  झीलों की नगरी भोपाल, झीलों की नगरी बनी तालाब, भोपाल में झमाझम, भोपाल मौसम, भोपाल मौसम न्यूज, झीलों की नगरी में पानी- पानी

चलिए। बरसात के विराट रूप के चलते ही सही, भोपाल में आज की पीढ़ी को यह देखने मिल गया कि जब इस शहर को झीलों की नगरी कहा गया, तब यह सचमुच किस तरह अपने अस्तित्व के साथ लबालब भरी झीलों वाला मुकाम होता रहा होगा। हां, शहर की उस खोई पहचान को देख पाना जान जोखिम में डालकर ही संभव है। क्योंकि मूसलाधार रिमझिम में सड़कों के वे गड्ढे भी छोटी-मोटी झील जैसा श्रृंगार कर चुके हैं, जो आपको स-शरीर ही नहीं, बल्कि स-सवारी निगल लेने की क्षमता रखते हैं। हरियाली की चुनर शहर पर बिखरी पड़ी है। उन वृक्षों के रूप में, जो रात को तेज हवा से निढाल होकर तमाम मुख्य सड़कों पर हमेशा के लिए सो गए। जैसा कि शहर का दस्तूर है, बिजली गुम है। वहीं बिजली, जिसकी इसी मौसम में सतत उपलब्धता बनाए रखने हेतु संबंधित महकमा हाड़ झुलसा देने वाली गर्मी में कई-कई घंटे बिजली की कटौती करता है। इस कटौती में उन वृक्षों को काटने की बात भी कही जाती है, जिनके गिरने से बिजली की लाइन टूटने का खतरा रहता है। महकमे का अमला अपने इस कार्यक्रम पर कितनी मुस्तैदी से अमल करता है, आज का भोपाल इसका नायाब उदाहरण है। पुराना शहर भोपाल की परंपरा का प्रतीक है। चुनांचे सरकारी प्रबंधों में इस बार भी यह सावधानी बरती गयी कि बरसात में पुराने शहर के किसी नारकीय टापू में बदल जाने की परंपरा टूटने न पाए।



शहर की बड़ी आबादी निगेटिविटी की गुनाहगार



मानसून में कभी बड़ा तालाब शबाब पर आता था, अब कोलांस नदी भी शबाब की शराब चखकर उन्मादी हो रही है। जो नदी अब से पहले तक केवल थोथे सियासी वादों और कृत्रिम राजनीतिक कर्मकांडों में ही दिखती थी, वह इस बरसात में "मैँ अभी भी जिंदा हूँ" वाली शैली में नमूदार हो गई है। कलकल बहते नाले अनेक कवियों को रिझा रहे हैं। आमंत्रण दे रहे हैं कि उनसे निकले कचरे और गंदगी के पर्वत पर बैठकर कविता लिखी जाए। ये नो निगेटिव सोमवार वाला दौर है। बरसात के चलते परेशानियों के लिए चीत्कार कर रही शहर की बड़ी आबादी निगेटिविटी की गुनाहगार है। इसलिए पॉजिटिविटी बनाए रखने की खातिर पूरे शहर की सड़कों को हॉर्न बजाते वाहनों के शोर से गुंजित कर दिया गया है। ताकि चीत्कार वाले स्वर न सुनाई दें। हॉर्न बजाकर रेंगने वाले वाहनों का यह नयनाभिराम दृश्य फिर एक बार बताता है कैसे किसी सिस्टम के कान पर जूं न रेंगने वाले विशिष्ट स्वरूप को कायम रखा जाता है। वो "दीदी" "भैया" "वार्ड के लाडले" और जनसेवा के समर्थन में अतिसार वाले चेहरों में से अधिकांश न जाने कहां है, जिनकी आज वाली बाढ़ से भी भयावह बाढ़ नगर निगम चुनाव के समय आई हुई थी। शायद सब शहर की इस धुलाई को भुलाकर सिस्टम को अपने-अपने तरीके से निचोड़ने में व्यस्त हैं। भोपाल पूरे बेतरतीब तरीक़े से तरबतर है। समस्या आसमान से बरसी आपदा से नहीं है। समस्या जमीन से जुड़ी उन बेशर्म नालायकियों से है, जो  हर बार की ज़रा भी तेज बरसात में बता देती है कि भोपाल तेजी से "चीलों की नगरी" भी बन गया है।


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