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जयंत तोमर. उन दिनों जयप्रकाश नारायण (Jai Prakash Narayan) बांग्लादेश के मुद्दे पर सारी दुनिया का समर्थन जुटाने में व्यस्त थे। तभी बागी माधौ सिंह अपना असली परिचय छिपाकर पटना के कदमकुआं में उनसे मिला। माधौ सिंह (Madhau Singh) ने खुद को चंबल के जंगल का ठेकेदार बताते हुए अपना नाम राम सिंह (Ram Singh) बताया। माधौ सिंह ने जेपी से कहा कि वे विनोबा भावे (Vinoba Bhave) की तरह चंबल (Chambal) के बागी दलों का आत्मसमर्पण (Surrender) कराने में रूचि लें। जेपी ने शुरुआत में दिलचस्पी नहीं ली। लेकिन बाद में जब माधौ सिंह अपना असली परिचय दिया तब वे बहुत देर तक अपनी मोटी लेंस का ऐनक उतारकर उसे देखते रहे।ॉ
बागियों ने हथियार और बीहड़ का जीवन छोड़ा था
वैसे इससे पहले माधौ सिंह ने बागी जगरूप सिंह को इसी काम के लिए विनोबा से मिलने पवनार आश्रम भेजा था। सन 1960 में विनोबा के ही कारण बहुत से बागियों ने हथियार और बीहड़ का जीवन छोड़ा था। विनोबा ने जगरूप सिंह (Jagroop Singh) से कहा कि वे तो अब क्षेत्र सन्यास लेने की वजह से कहीं आते-जाते नहीं हैं। बेहतर हो कि जयप्रकाश नारायण से पटना जाकर मिला जाए। जेपी से मुलाकात की यही वजह थी। उस समय इंदिरा जी और जेपी के आपसी सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। वो तो 1974-75 में जाकर बिगड़े और आपातकाल लगा। जेपी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) से प्रारंभिक चर्चा के बाद मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों से बात की। बागी गिरोह मध्यप्रदेश के भिंड-मुरैना, उत्तरप्रदेश के इटावा-मैनपुरी-आगरा सहित राजस्थान के धौलपुर, सवाई-माधोपुर के बीहड़ों में शरण लिए रहते थे। एक राज्य में लूटपाट, डकैती एवं हत्या की वारदात के बाद चंबल नदी के पार दूसरे राज्य में पहुंच जाते थे। जेपी तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को ये समझाने में सफल रहे कि पुलिस कार्रवाई से बागी समस्या का अंत होना मुश्किल है। एक गिरोह खत्म होता है तो दस नए पैदा हो जाते हैं। गरीबी दमन और अत्याचार से पीड़ित होकर लोग बीहड़ों में कूद जाते हैं। हथियार उठा लेते हैं। फिर वे एक ओर पुलिस से बचने की कोशिश में बीहड़ के ऊबड़-खाबड़ रास्तों को नापते हैं। दूसरी ओर उन्हें भय बना रहता है जिन लोगों को उन्होंने मारा है उनके सगे संबंधी बदला लेने की ताक में होंगे। हिंसा का ये सिलसिला आपसी बातचीत से ही थम सकता है। दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
फांसी की सजा तो नहीं होगी- बागी
विनोबा के समय में बागियों को कोई आश्वासन नहीं दिया गया था। उनसे साफ कहा गया था कि वे कानून के आगे समर्पण करें। कानून ही तय करेगा कि बागियों को क्या सजा मिलेगी। जो भी सजा मिलेगी वह मंजूर करनी होगी। लेकिन जेपी ने बागियों से कहा था कि अगर वे समर्पण करेंगे तो फांसी की सजा तो नहीं होगी। फांसी की सजा की निरर्थकता को लेकर जेपी ने दो किताबें भी इंदिरा गांधी को भेजी थीं। यह एक बड़ा कारण था कि अप्रैल 1972 में बागियों के कितने गिरोहों ने हथियार डाले। पुनर्वास का काम सुब्बाराव जी के जिम्मे था। उन्होंने सरकार से बात करके खुली जेल का इंतजाम करवाया। मुंगावली में एक खुली जेल बनाई गई। गौरतलब है कि 1972 के बागी समर्पण में बागियों के पुनर्वास और सरकार से बातचीत की जिम्मेदारी सुब्बाराव (Subbarao) को सौंपी गई थी।
बागी समर्पण का काम मुरैना जिले के जौरा में ही क्यों हुआ ?
1969 में देश जब महात्मा गांधी की जन्मशताब्दी वर्ष मना रहा था। तब गांधी दर्शन यात्रा के नाम से एक रेलगाड़ी पूरे देश में चलाई गई। सरकार ने सुब्बाराव को इस रेल यात्रा का निदेशक बनाया। सालभर बाद जो आमदनी हुई उसी से चंबल घाटी के जौरा में सुब्बाराव जी ने महात्मा गांधी सेवाश्रम की स्थापना की। आज जौरा में जहां जयप्रकाश नारायण डिग्री कॉलेज है उसी के अहाते में दो तीन कोठरियों में यह आश्रम चलता था। बाद में यह जौरा कस्बे से बाहर अलापुर के छात्रावास में ले जाया गया। कुछ पुराने इमली के पेड़ अब भी यहां की तमाम हलचलों के मूक साक्षी हैं। 1972 में जयप्रकाश नारायण ने अगर जौरा को ही बागियों के आत्मसमर्पण के लिए चुना तो उसके पीछे वजह यही थी कि सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का एक केन्द्र यहां पर पहलू से ही तैयार हो चुका था। जेपी अप्रैल 1972 के मध्य में जौरा आए और एक विशाल बांध के किनारे पहाड़ी पर बनी पगारा कोठी में अपनी जीवन संगिनी प्रभावती के साथ ठहरे। पहाड़ी के ठीक नीचे बांध के किनारे धोरेरा गांव था। बागी माधौ सिंह, मोहर सिंह, सरू सिंह, जंगजीत सिंह, कल्याण सिंह, माखन सिंह, ऊंट सिंह, नाथू सिंह आदि बागी सरदारों के गिरोह इसी धोरेरा गांव में ठहरे। चंबल घाटी शान्ति मिशन के कार्यकर्ताओं से बातचीत करके जेपी ने ये निश्चित करा लिया था कि समर्पण स्थल से लेकर धोरेरा तक का इलाका शान्ति क्षेत्र होगा। यहां पुलिस न तो बिना बुलाए आएगी और न खाकी वर्दी में दिखाई देगी।