मध्यप्रदेश कैसे बना स्कूल शिक्षा की प्रयोगशाला, CM राइज स्कूल होगा नया प्रयोग

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मध्यप्रदेश कैसे बना स्कूल शिक्षा की प्रयोगशाला, CM राइज स्कूल होगा नया प्रयोग

भोपाल. पीएम मोदी ने 1 अप्रैल को देशभर के बच्चों को परीक्षा में सफलता के टिप्स दिए। अच्छी पहल है, इस पर कोई सवाल नहीं। आज सवाल शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है और वो भी मप्र में स्कूल एजुकेशन की गुणवत्ता को लेकर। दरअसल शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के नाम पर मप्र स्कूल एजुकेशन की प्रयोगशाला बन चुका है। 22 साल से प्रयोग हो रहे हैं। करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, लेकिन गुणवत्ता सुधरने का नाम नहीं ले रही। पुराने मॉडल को सही करने की जगह नया मॉडल लाया जाता है। वो मॉडल फेल हो जाता है, तो फिर नए मॉडल को लाने की तैयारी हो जाती है। मगर गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं होता। ऐसा ही नया मॉडल लाया जा रहा है, सीएम राइज स्कूल, लेकिन सवाल है कि पुराने मॉडल क्यों कामयाब नहीं हुए। क्यों पहले से चल रहे मॉडल पर ध्यान नहीं दिया गया।





सीएम राइज स्कूल





हाल ही में पचमढ़ी में दो दिनों तक हुई कैबिनेट मीटिंग में सीएम राइज स्कूल की परिकल्पना को सामने रखा गया। बड़ी सी बिल्डिंग, खेल का मैदान, विशेष बॉयो टॉयलेट, मेडिकल रूम, स्पोर्ट्स रूम, योगा क्लब, भोजन कक्ष, म्युजिक रूम, क्रिएटिव स्पेस, स्मार्ट क्लास, कंप्यूटर लैब, लाइब्रेरी, परिवहन व्यवस्था, तमाम तरह की सुविधाएं जो एक प्राइवेट स्कूल में होती है। इसका प्रेजेंटेशन देने वाले मंत्री समूह ने भी कहा कि सीएम राइज स्कूलों को निजी स्कूलों की टक्कर का बनाया जाएगा। अच्छी बात है कि सरकार स्कूल को वर्ल्ड क्लास बनाने में जुटी है। पूरे प्रदेश में ऐसे 9 हजार 200 स्कूल खोले जाने की योजना है। बजट में सात हजार करोड़ का प्रावधान किया गया है। पहले चरण में ऐसे 360 स्कूल बन रहे हैं, जिन्हें इसी शैक्षणिक सत्र से शुरू किया जाएगा। पहले दिन से बस की सुविधा देने की बात की जा रही है। सीएम राइज स्कूल की बिल्डिंग तो बेहद खूबसूरत है। मगर यहां पर सवाल है कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता सुधरेगी।





गुणवत्ता सुधारने की कवायद





सीएम राइज स्कूल को शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए ही लाया जा रहा है। शिक्षा विभाग के पोर्टल पर जब आप जाएंगे और यहां सीएम राइज स्कूल के ऑप्शन पर क्लिक करेंगे तो आपको कुछ लाइनें लिखी हुई नजर आएंगी। प्रदेश में 1 लाख सरकारी स्कूलों में 1 करोड़ छात्र पढ़ते हैं। इस हिसाब से एक स्कूल में 100 छात्र, छात्रों पर इतना खर्च करने के बाद भी गुणवत्ता उम्मीद के मुताबिक नहीं है। बच्चों को क्वालिटी एजुकेशन मिले इसलिए नई शिक्षा नीति के तहत वर्ल्डक्लास स्कूलों की स्थापना के लिए कार्ययोजना बनाई गई है। यानी खुद विभाग मान रहा है कि प्रदेश में शिक्षा की गुणवत्ता ठीक नहीं है। गलती किसकी है। कौन है जिम्मेदार, खुद स्कूल एजुकेशन डिपार्टमेंट, सीएम राइज स्कूल, स्कूल एजुकेशन डिपार्टमेंट का चौथा प्रयोग है। इससे पहले गुणवत्ता सुधारने के लिए तीन प्रयोग हो चुके हैं। क्या थे वो प्रयोग वो देख लीजिए।





पिछले 22 साल में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए स्कूल शिक्षा विभाग ने तीन मॉडल अपनाए-





पहला मॉडल : मल्टीपरपज स्कूल







  • शुरुआत : 1988-89



  • क्या था उद्देश्य : व्यवसायिक पाठ्यक्रम की शिक्षा देना, ताकि रोजगार को बढ़ावा मिले


  • क्या हुआ : तीन से चार साल तक तो ठीक चले, इसके बाद ध्यान नहीं दिया गया। 1998 के आते-आते सभी बंद हो गए।






  • दूसरा मॉडल : उत्कृष्ट विद्यालय







    • शुरुआत : 2001-02



  • क्या था उद्देश्य : शासकीय स्कूलों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना


  • कितने स्कूल खोले गए- प्रदेश के हर जिला मुख्यालय और विकास खण्ड मुख्यालय पर स्थापित एक सरकारी स्कूल को उत्कृष्ट विद्यालय के रूप में विकसित किया गया


  • क्या हुआ : उत्कृष्ट विद्यालय अभी भी संचालित हैं। दूर-दराज के ब्लॉक स्तर पर हालत खराब हैं। न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न ही फर्नीचर की स्थिति ठीक है। लैब में उपकरण भी खराब पड़े हुए हैं।






  • तीसरा मॉडल : मॉडल स्कूल







    • शुरुआत : 2011-12



  • क्या था उद्देश्य : इन स्कूलों को बेंचमार्क के रूप में विकसित किए जाने की योजना थी। इसके तहत प्रदेश में शैक्षिक रूप से पिछड़े सभी 201 विकासखंडों में मॉडल स्कूल संचालित किए जा रहे हैं।


  • क्या हुआ : ये मॉडल स्कूल कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रो में निवासरत प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए अध्ययन सुविधा उपलब्ध कराने में सफल रहे हैं। वर्ष 2016-17 से प्रत्येक कक्षा में अधिकतम 100 सीट निर्धारित की गई। कक्षा 9वीं में प्रवेश चयन परीक्षा के माध्यम से किया जाता है। हालांकि कुछ मॉडल स्कूल भी स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं।






  • इन तीनों मॉडल में से एक मॉडल तो बंद हो चुका है। दो मॉडल जमीन पर है लेकिन उनकी हकीकत क्या है ये भी देख लीजिए। टीकमगढ़ और भिंड में बनाए गए मॉडल स्कूल पिछले कई सालों से मूलभूत सुविधाओं के लिए ही तरस रहे हैं-





    टीकमगढ़ में ये हैं हालात





    टीकमगढ़ के मॉडल स्कूल में द सूत्र की टीम पहुंची। बिल्डिंग अच्छी बनी है लेकिन स्कूल अतिक्रमण का शिकार है। 11 साल में न तो स्कूल की बाउंड्रीवॉल बन पाई, न ही सड़क, बच्चों के खेलने के लिए खेल मैदान भी नहीं है। छात्र अभिनव और हेमंत ने कहा कि सड़क कच्ची है और खेल का मैदान नहीं है। बिजली भी कम रहती है। स्कूल अतिक्रमण का शिकार तो है ही यहां पढ़ाने के लिए टीचर्स भी नहीं हैं। गेस्ट फैकल्टी के भरोसे स्कूल संचालित हो रहा है। प्राचार्य आरके जैन कहते हैं कि स्कूल के बेहतर संचालन की कोशिशें हमेशा की जाती रही हैं।





    भिंड के स्कूल के हालात





    भिंड के सरकारी स्कूल को सरकार ने मॉडल स्कूल का दर्जा दिया है लेकिन स्कूल में मॉडल कहे जाने लायक कुछ नहीं है। द सूत्र की टीम जब यहां पहुंची तो बच्चे क्लासरूम के अंदर थे। हेडमास्टर साहब मैदान में बैठकर क्लास ले रहे थे। स्कूल में बच्चे एक साथ बैठकर खाना खा सकें इसलिए बड़ा कमरा बनाया गया है लेकिन इस्तेमाल नहीं होता। कारण पूछा तो बोले कि छत जर्जर हो चुकी है।





    स्कूलों की हालत खराब





    साफ है कि स्कूलों की हालत खराब है लेकिन यहां पर बड़ा सवाल है कि क्या सरकार को 201 मॉडल और 290 उत्कृष्ट विद्यालय में एक भी ऐसा सक्सेस मॉडल नहीं दिखा, जिसे वे अपनाकर प्रदेश के 1 लाख से अधिक स्कूलों में शिक्षा के स्तर को सुधार सके। यदि पुराना मॉडल फेल है, तो इसका जिम्मेदार कौन है और क्या उनपर कार्रवाई नहीं होना चाहिए।





    प्रयोग पर प्रयोग के बाद भी नहीं सुधरी गुणवत्ता





    स्कूल एजुकेशन में प्रयोग पर प्रयोग होते गए लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरी। पहले स्कूल खोले फिर बंद कर दिए। गुणवत्ता सुधारने के लिए कई प्रोग्राम्स शुरू किए गए। टैक्स पेयर के करोड़ों रुपए शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने में खर्च किए जा रहे हैं लेकिन गुणवत्ता सुधरी नहीं। शिक्षा को लेकर मप्र सरकार के ही 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े चौंकाते हैं और आखिरकार ऐसे हालात क्यों हैं। क्यों सुधर नहीं रहे इस पर द सूत्र ने एक्सपर्ट से भी बातचीत की।





    मध्यप्रदेश सरकार का 2021-22 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि साल 2020-21 में शिक्षा पर सरकार ने 4 हजार 309 करोड़ रुपए खर्च किए। इसमें प्राइमरी स्कूलों पर 3 हजार 535 करोड़ रुपए खर्च हुए। मिडिल स्कूल पर 33 करोड़ रुपए और शिक्षकों की शिक्षा पर करीब 740 करोड़ रुपए खर्च किया। इसके उलट आंकड़े ये है कि 2019-20 में प्राइमरी स्कूलों में करीब 76 लाख बच्चों का रजिस्ट्रेशन था जो 2020-21 में घटकर करीब 74 लाख हो गया। वैसे ही मिडिल स्कूल में 2019-20 में ये करीब 42 लाख 96 हजार था, जो 2020-21 में घटकर 42 लाख 75 हजार हो गया। इन दो सालों में ड्रॉपआउट बच्चों की संख्या भी बढ़ी है। 2019-20 में प्राइमरी स्कूल के बच्चों के ड्रॉपआउट की संख्या थी 1.05 फीसदी जबकि 2020-21 में ये बढ़कर हो गई 1.35 फीसदी। यानी 99 हजार से ज्यादा बच्चों ने स्कूल छोड़ा।





    इसी तरह मिडिल स्कूल में छात्र और छात्राओं की ड्रॉपआउट दर थी 4.22 फीसदी जो 2020-21 में बढ़कर हो गई 6.36 फीसदी यानी 2 लाख 71 हजार बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। मजेदार बात ये है कि 1998 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम शुरू हुआ, जिसमें हर 1 किलोमीटर पर प्राइमरी स्कूल खोले गए, फिर साल 2000 में सर्वशिक्षा अभियान आया जिसमें हर 3 किलोमीटर पर मिडिल स्कूल खोले। राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के तहत हर 5 किमी पर हाईस्कूल खोले गए।





    टैक्स पेयर के पैसों से स्कूलों का जाल बिछा दिया गया। उसके बाद क्या किया। 1998 के बाद जो स्कूल खुले उन्हें बाद में युक्तियुक्तकरण के तहत एक-दूसरे में मर्ज कर बंद कर दिया गया। एक शाला एक योजना इसे नाम दिया और इसमें आदिम जाति कल्याण विभाग के ही 4 हजार 760 स्कूल इस योजना के तहत बंद कर दिए। शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए न केवल प्रयोग किए, बल्कि कई कार्यक्रम शुरू किए गए। लेकिन शिक्षक ही नहीं दिए। वरिष्ठ शिक्षाविद अनिल सदगोपाल की राय में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का मकसद ही नहीं है। वे कहते हैं कि जब तक पूरे देश में समान स्कूल व्यवस्था लागू नहीं होगी, तब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं होगा।





    भोपाल से राहुल शर्मा, टीकमगढ़ से आमिर खान और भिंड से मनोज जैन



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