यादों में उद्योग और कागजों में सिमटता इंटक, श्रमिक नहीं; यूनियन क्या करें ?

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Rahul Garhwal
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यादों में उद्योग और कागजों में सिमटता इंटक, श्रमिक नहीं; यूनियन क्या करें ?

देव श्रीमाली, Gwalior. भारतीय मजदूरों की कभी सबसे बड़ी यूनियन रही इंटक अपनी स्थापना की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है। ग्वालियर का इंटक मैदान कभी श्रमिकों से खचाखच भरा रहता था, वहां अब सिर्फ एक मैदान भर रह गया है। अब उसमें मजदूर एकता जिन्दाबाद नहीं बल्कि सब्जियों के नाम के नारे गूंजते हैं। ग्वालियर अंचल की औद्योगिक अधोगति की कहानी सुनाता इंटक मैदान हजीरा पर बेबस खड़ा है। ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब ग्वालियर अंचल में जहां देखो वहां कल-कारखानों की चिमनियां नजर आती थीं, आज उनके खंडहर दिखते हैं। कभी इंटक की अकेले ग्वालियर में ही 25 यूनियनें थीं आज जब श्रमिक ही नहीं रहे तो यूनियन क्या करें ?



स्वतंत्रता पूर्व बनी इंटक



देश में आजादी मिलने की प्रक्रिया चल रही थी। आजादी का सूरज 15 अगस्त 1947 को उगा लेकिन 3 मई 1947 को इंटक का जन्म हुआ। इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जेबी कृपलानी ने इंटक के संस्थापक सम्मेलन का उद्घाटन किया। इसके उद्घाटन सत्र में भाग लेने वाले प्रमुख नेताओं में पंडित जवाहर लाल नेहरू, शंकर राव देव, बाबू जगजीवन राम, बीजी खेर, अरुणा आसिफ अली, राम मनोहर लोहिया, ओपी मेहताब, अशोक मेहता, राम चन्द्र सखाराम रुइकर, मणि बेन पटेल आदि थे।



गांधी बने थे मार्गदर्शक



इंटक यानि इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना के मुख्य मार्गदर्शक महात्मा गांधी थे। उन्हीं के मार्गदर्शन में मजदूर नेताओं ने इंटक को अपने विवेक से स्वयं अपना संविधान बनाना और उसे स्वतंत्र देना पसंद किया। जबकि इंटक ने ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में कांग्रेस की एक शाखा के रूप में काम करना पसंद किया।



यूनियन ने मांगे चार पैसे श्रमिकों ने दिए 25 पैसे



मांगने से ज्यादा कोई चंदा दे दे ये बात आज के दौर में अजूबा ही लगती है लेकिन ग्वालियर के श्रमिकों ने अपनी संस्था इंटक का भवन बनाने के लिए ये अजूबा कर दिखाया था। इस संस्था से जुड़े कुलदीप सेंगर कहते हैं कि मजदूरों से चार पैसे प्रतिमाह का चंदा तय था लेकिन श्रमिकों ने जरूरत को देखते हुए कहा कि ये कम है वे 25 पैसे हर माह देंगे। दरअसल देश आजाद होने के बाद 1948 में ग्वालियर में इंटक की स्थापना हो सकी जबकि इसका औपचारिक पंजीयन 1949 में हुआ। इसके प्रथम और संस्थापक अध्यक्ष बने सुमेर सिंह और महामंत्री का जिम्मा संभाला तारा सिंह वियोगी ने। कालांतर में सुमेर सिंह ग्वालियर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे और वियोगी विधायक भी रहे और राज्य के श्रम मंत्री भी।



सरकार ने इंटक को दी जमीन



उस दौर में देश का सबसे बेहतरीन कॉटन बनाने वाला बिड़ला का जयाजी कॉटन मिल जिसे जेसी मिल कहा जाता था, ग्वालियर में ही था। सरकार ने इससे कुछ जमीन वापस लेकर इंटक को दे दी, जहां वे अपना दफ्तर खोल सकें। हजीरे पर जमीन तो मिल गई लेकिन इस पर श्रम शिविर बनाने के लिए पैसे कहां से आए ? इस समस्या का हल खोजने श्रमिकों की एक सभा बुलाई गई जिसमें श्रमिकों ने कहा कि वे अपने वेतन से चार पैसे की जगह 25 पैसे प्रति माह देंगे ताकि श्रम शिविर का निर्माण शीघ्र पूरा हो सके। आखिरकार वह दिन आ गया जब 1959 में श्रमिक नेता राम सिंह सिंह भाई वर्मा के हाथों इसका शिलान्यास करवाया गया। जल्द ही वह बन भी गया और इसमें श्रमिकों की भीड़ चौबीसों घंटे रहने लगी। पहले मध्य भारत राज्य और फिर मध्यप्रदेश की श्रमिक गतिविधियों का संचालन यही से होने लगा।



कभी ग्वालियर में था औद्योगिक वैभव



ये वो दौर था जब ग्वालियर के नील वितान पर औद्योगिक वैभव का सूरज पूरे उन्माद से चमक रहा था। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां इंटक को अनेक इकाइयां गठित करना पड़ीं थीं। जैसी मिल के अलावा लेदर फैक्ट्री, शराब कारखाना, दुकान संस्थान, चलचित्र कर्मचारी संघ, शासकीय क्षेत्रीय मुद्रणालय, मछली उद्योग, सीमेन्ट फैक्ट्री, सहकारी शक्कर मिल कैलारस और डबरा, सीमेंट खदान, क्लर्क्स एंड टेक्नीशियन, इंजीनियरिंग, सहकारी बैंक, हम्माल, बीड़ी मजदूर, नगर पालिका मजदूरों, दैनिक वेतनभोगी मजदूरों, ड्रायवर्स, कुम्हार, जेसी मिल टेक्निकल स्टाफ आदि के लिए अलग-अलग 25 श्रमिक यूनियन बनाई गई थी। इसके अलावा भारतीय मजदूर संघ, एटक और सीटू आदि संघ भी सक्रिय थे।



अस्सी के दशक में फिर आया उभार



अस्सी के दशक में इस क्षेत्र में एक बार फिर उभार आया। सिंधिया परिवार के सदस्य माधवराव सिंधिया 1977 में अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जनसंघ को छोड़कर अलग हो गए और 1977 में उन्होंने कांग्रेस के सहयोग से निर्दलीय चुनाव लड़ा। जीतकर वे कांग्रेस में शामिल हो गए। 1980 में जब इंदिरा गांधी की फिर से सत्ता में वापसी हुई तो सिंधिया के कहने पर उन्होंने ग्वालियर से सटे बामौर (मुरैना) और मालनपुर (भिण्ड) को बड़े औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करने की पहल की। देखते-देखते इस अंचल में 500 से ज्यादा मध्यम और बड़ी औद्योगिक इकाइयां खड़ी हो गईं। यहां हजारों हाथों को काम मिला बल्कि देश भर से आए नौजवान यहां काम पाने लगे। इससे इस क्षेत्र का होटल, परिवहन, पर्यटन और किराए पर मकान देने का काम भी बढ़ा।



धीरे-धीरे डूबने लगा सूरज



एक समय था जब ग्वालियर-चंबल अंचल में उद्योगों की भरमार थी लेकिन 40 साल बाद ऐसा क्या हुआ कि स्थापित उद्योग धीरे-धीरे बंद होते चले गए। पिछले 3 दशक में तो बानमोर, मालनपुर और ग्वालियर के महाराजपुरा, बिरला नगर, तानसेन नगर, बाराघाटा औद्योगिक क्षेत्रों में 500 से ज्यादा बड़े-छोटे उद्योग बंद हो चुके हैं, लेकिन नए एक भी नहीं लगे। यद्यपि नए उद्योग लाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास तो किए गए, लेकिन सफलता नहीं मिली। इसके चलते 12 सालों में यहां लगभग 20 हजार करोड़ रुपए का निवेश डूब चुका है और 40 हजार से अधिक लोग बेरोजगार होकर यहां से दूसरे जगहों पर चले गए।



ग्वालियर के ये बड़े उद्योग हो चुके हैं बंद



ग्वालियर में कई बड़े उद्योग बंद हो चुके हैं। ग्वालियर पोटरीज, जेसीमिल्स, सिमको, स्टील फाउंड्री, ग्रेसिम, लेदर फैक्ट्री एमपी आयरन, हॉटलाइन सीपीटी लिमिटेड, हॉटलाइन टेलीट्यूब कंपोनेंट, हॉटलाइन ग्लास, रोहिणी स्ट्रिप, रेशम पॉलीमर्स, एटलस साइकिल, लेनिनस राकूल, बानमोर में मैग्नम स्टील, स्पोर्ट इक्विपमेंट, एरोफिल पेपर, डबल त्रिशूल आटा आदि उद्योग बंद हो चुके हैं।



श्रम शिविर बनी सब्जी मंडी



इसी तरह श्रमिकों के अपने खून-पसीने की कमाई से बनाया गया श्रम शिविर और अनेक बड़ी सभाओं का गवाह रहा इंटक मैदान श्रमिकों की सूरत देखने को तरस गया। नब्बे के दशक में हजारों लोगों को रोजगार देने वाली जेसी मिल हमेशा के लिए बंद हो गई तो अंचल की लाइफलाइन कहा जाने वाले उप नगर ग्वालियर में वीरानी छा गई। खराम-खरामा अन्य फैक्ट्रियां भी बन्द होती गई। फिर नई आर्थिक नीतियों के चलते श्रम कानून भी औद्योगिक मालिकों के पक्ष के बनते गए तो ट्रेड यूनियन की भूमिका भी सिकुड़ती गई और ग्वालियर का इंटक मैदान कुछ महीने पहले सब्जी मंडी में तब्दील कर दिया गया। कभी जिस मैदान में मजदूर एकता जिन्दाबाद के नारे गूंजते थे अब वहां लौकी, आलू, टमाटर और हरी धनियां बेचने की गूंज सुनाई देती है।


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